वर्ष 1562 के आसपास का समय था। मुग़ल सेना का नेतृत्व अकबर के हाथों में था। वही अकबर जो सहिष्णुता का फ़रिश्ता माना जाता है। वह युग युद्धों का युग था। एक तरफ मुगलों के “सहिष्णु बादशाह” की सेना थी और एक तरफ थी गोंड राज्य की प्रथम महिला शासिका! स्त्री है तो उसे झुकना ही होगा, उसे बादशाहत स्वीकार करनी ही होगी। और सुन्दर काफिर स्त्री है तो उसे तो हरम में आना ही होगा। ऐसा अकबर को लगा। मालवा के बाजबहादुर को हराकर मुग़ल सेना का उत्साह चरम पर था। रानी दुर्गावती के सामने भी विकल्प था, समर्पण करने का या फिर विकल्प था लड़कर मर जाने का।
“युद्ध में हानि होगी? मुग़ल सेना अत्यंत विशाल है?” रानी को किसी ने समझाया
“हाँ विशाल तो है! असलहा भी बहुत है!” रानी ने चिंता जनक स्वर में कहा
मगर चिंता एक और बात की थी। चन्देल वंश में जन्मी और गोंड वंश में ब्याही गयी रानी दुर्गावती के सामने अपने वंश का आदर बनाए रखने की चिंता थी। वर्ष 1542 में उनका ब्याह गोंड वंश के राजा संग्रामशाह के सबसे बड़े पुत्र दलपतशाह के साथ हुआ था। दलपतशाह की मृत्यु वर्ष 1550 में होने के उपरान्त पुत्र वीर नारायण की उम्र कम होने के कारण शासन कार्य रानी दुर्गावती ही देखती थीं। रानी अपनी राजधानी को सिंगौरगढ़ से चौरागढ़ ले आई थीं। यह कार्य रानी ने रणनीतिक द्रष्टि से किया था।
रानी के गद्दी पर बैठते ही पहले तो बाजबहादुर को लगा कि एक स्त्री क्या कर पाएगी और उसने आक्रमण कर दिया। परन्तु रानी दुर्गावती ने अपने नाम को साकार कर बाजबहादुर के पंखों को काट दिया। बाजबहादुर पराजित होकर लौटा। रानी की चर्चा पूरे हिन्दुस्तान में हो गयी थी। स्वतंत्र सनातनी स्त्री की चर्चा को वह मुगल सत्ता कैसे सहन कर पाती, जिसके लिए उनकी औरतें केवल हरम तक ही सीमित थीं?
शीघ्र ही रानी दुर्गावती की वीरता मुगल बादशाह अकबर की आँखों में चुभने लगी, क्योंकि उसकी वीरता और कुशल प्रशासन के किस्से मुगलों तक पहुँच ही गए थे। इधर बाज बहादुर को पराजित कर मालवा को मुग़ल सेना ने अपना अंग बना लिया था। अकबर का मन अब दुर्गावती के राज्य पर था। इसके दो फायदे थे, एक तो राज्य मिलेगा और रानी भी गुलाम हो जाएगी!
इतिहास में जिसे वाम इतिहासकारों ने महान सहिष्णु बादशाह बताया है, वह कितना सहिष्णु और उदार था वह इस बात से पता चल रहा था कि वह एक हिन्दू स्त्री के स्वीवतंत्रर अस्तित्व को ही सहन नहीं कर पा रहा था। एक दुर्गावती के कारण उसके वीरता पर भी प्रश्नचिन्ह तो लग ही रहे थे। उसने तो अपने मज़हब में सुना और देखा यही था कि औरतें परदे में रहती हैं, फिर यह औरत? उसे परदे में होना चाहिए और उसका क्षेत्र मेरे अधीन!
यह शासक और मुगल और उस पर औरतों को हरम की ही लौंडी मानने वाले हवसी मुगल, तीनों का गुरूर था! उस गुरूर ने दस्तक दी और रानी ने चुनौती स्वीकार की। रानी ने लड़ाई का और इतिहास में एक स्वतंत्र वीर हिन्दू स्त्री होने का निर्णय लिया और फूंक दिया बिगुल संघर्ष का, इस हवसी मुग़ल सत्ता के विरुद्ध! “भारतीय रानियाँ परदे में नहीं रहती हैं। चूड़ियाँ पहनती हैं तो तलवार भी उठाती हैं। कलम उठाती हैं, या तो स्वयं लिखती हैं या स्वयं पर लिखने योग्य कार्य करती हैं। मैं भी इतिहास बनूंगी!” कहकर तलवार उठा ली!
आदमी और मुगल सत्ता दोनों के सम्मुख हिन्दू स्त्री तलवार उठाए, यह किसी मुगल को कैसे मंजूर होता! रानी ने संदेशा भिजवाया “अधीनता स्वीकार करने से बेहतर है मृत्यु को लड़ते लड़ते गले लगाया जाए”!
और फिर युद्ध हुआ। जून 1564 में युद्ध हुआ। तीन बार मुगलों की सेना पीछे हटी। मगर आहत और घायल मुगल तो हिन्दू स्त्री को हर कीमत पर पराजित करने के लिए हिंसक हो जाता है, और वह और हिंसक होता गया। एक तो स्त्री और उस पर गैर मजहबी! उसे तो हर कीमत पर जिन्दा पकड़ना ही है! वह हिंसक होता गया, रानी जबाव देती गयी। मगर रानी को भी पता था कि उसकी मृत्यु इसी तरह लड़ते लड़ते होनी है। रानी के कानों के पास एक तीर लगा, जब वह तीर हटा पातीं तब तक एक और तीर उसकी गर्दन में घुस गया।
रानी से उसके सैनिकों ने कहा कि वह सुरक्षित स्थान पर चली जाए! रानी ने घायल देह देखी, फिर घायल भूमि देखी! उसे लग गया कि समय आ गया है। वह बोली “मृत्यु से सुरक्षित स्थान कौन सा होगा? पुन: जन्म लेने का समय आ गया है! यहाँ से जाना ही होगा, और भूमि की सेवा हेतु पुन: आना ही होगा! अपना भाला उठाओ और मार दो!”
मगर सैनिक अपनी रानी पर तलवार कैसे उठाता? रानी का आदेश प्रथम बार उसके लिए मानना दुष्कर हो रहा था। रानी ने अपनी कटार निकाली और संभवतया यही कहा होगा कि “यह सन्देश इतिहास में देना कि भारत में स्त्रियाँ इन हवस के मारे मुगलों और उनकी सत्ताओं से बार बार टकरा सकती हैं, वह हार मानने के लिए जन्म नहीं लेतीं। वह हँसते हँसते मृत्यु का आलिंगन करती हैं।” और उस कटार को स्वयं में घोंप लिया!
एक तरफ मुग़ल आदमी हार रहा था, हिन्दू स्त्री हार कर भी जीत रही थी। वह युद्ध जीत रहा था, संग्राम हार रहा था, स्त्री जीत गयी। किस अहंकारी मुग़ल में इतनी शक्ति थी कि वह एक सनातनी स्त्री को पराजित कर सके, उसे अपने हरम में जबरन बैठा सके?
रानी दुर्गावती ने संभवतया इतिहास से मरते मरते यही कहा होगा कि “5 अक्टूबर का दिन न भारत भूलेगा और न ही भारत की स्त्रियाँ! प्रयास करना कि सत्ता भी न भूले!”
परन्तु यह देखकर दुःख होता है कि वाम फेमिनिज्म के प्रभाव में आकर, हिन्दू स्त्रियाँ ही अपना इतिहास जैसे विस्मृत कर बैठी हैं। रानी दुर्गावती ने हिन्दू स्त्रियों के सम्मान के लिए, अपनी भूमि के लिए प्राणों का बलिदान कर दिया था और आज? आज हिन्दू स्त्रियाँ उसी अकबर को महान बताने के लिए जीवन लगा देती हैं और वह भी अकादमिक रूप से!