एनसीईआरटी (NCERT) अर्थात राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद का कार्य हम सभी जानते हैं. एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकों का निर्माण करना। कुछ कुशल एवं पात्र व्यक्तियों के कंधे पर यह उत्तरदायित्व होता है कि वह शिक्षा को बच्चों के लिए सरलता से समझने वाली बनाए, एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने वाला बनाए. अपने लोक और संस्कृति से जोड़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य से परिचित कराए. अत: ऐसे व्यक्तियों का चयन किया जाता है जिनके हृदय में अपने देश एवं व्यवस्था के प्रति प्रेम हो, अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम हो, अपने लोक के प्रति अपनापन हो और जो अपने देश को आयातित विचारधारा से परे रखकर देखें और समझें। जो इस देश की सोच से बच्चों को सोचें।
ऐसे पात्र व्यक्तियों का चयन करना सरकार का कार्य है। सरकार अपने एजेंडे के अनुसार भी कभी ऐसे व्यक्तियों का चयन कर लेती है, इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि सरकार किन मूल्यों को लेकर चल रही है. क्या सरकार का उद्देश्य मात्र अपने लिए वोटबैंक तैयार करना है या फिर नई पीढ़ी को मूल्यों के साथ जोड़ना है, यह भी देखना होगा क्योंकि आप उसी के अनुसार ही बच्चों के लिए शिक्षा नीति बनाते हैं. वर्ष 2004 एक ऐसा वर्ष था, जब भारत की राजनीति पूरी तरह से बदली, क्या उससे शिक्षा अछूती रह सकी? यह भी एक प्रश्न है क्योंकि वह प्रश्न आज भी सिर उठाए खड़ा है जब हम अपने बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में ऐसी चीज़ें पाते हैं, जो तथ्यों से कोसों दूर हैं, जैसे मुगलों द्वारा युद्ध में नष्ट हुए मंदिरों का निर्माण, क़ुतुब मीनार का ऐसी इमारत होना जिसे विध्वंस द्वारा नहीं बनाया है और मुस्लिम शासकों का महिमामंडन एवं हिन्दू धर्म की एक अत्यंत नकारात्मक छवि प्रस्तुत करना, जैसे कि मुस्लिमों ने यहाँ आकर हिन्दुओं पर अहसान किया.
आइये इस लेख में कुछ ऐसे लोगों के विषय में जानते हैं, जो पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति की सूची में थे और ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह एक विशेष मानसिकता से ग्रसित होने के साथ ही एक विशेष विचारधारा का भी सामना करते हैं या फिर यह भी कहा जा सकता है किउनकी पूरी सोच वही वामपंथी सोच है, जो भारत को भारत नहीं मानती है।
हरि वासुदेवन
सलाहकार समिति के अब तक अध्यक्ष रहे थे कोलकता विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर हरि वासुदेवन, जिन्होनें वर्ष 2005 से यह उत्तरदायित्व सम्हाला था, (याद रखा जाए वर्ष 2005) तथा उन्होंने सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तक सलाहकार समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए, नीलाद्रि भट्टाचार्य, योगेन्द्र यादव, कुमकुम रॉय आदि के साथ इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की एजेंडापरक किताबें तैयार करने में अपना योगदान दिया। कोरोना वायरस ने मई 2020 में उन्हें अपना शिकार बना लिया था।
सबसे मजे की बात यह है कि बच्चों के मस्तिष्क में भारतीय इतिहास को लाए जाने का उत्तरदायित्व जिनका था उनके पूरे बायोडाटा में भारतीय इतिहास से जुड़ा कोई भी विषय नहीं था, और उन्होंने शोध भी भारत में नहीं किया था। जिन्हें भारतीय इतिहास के विषय में यह सब तैयार करने का उत्तरदायित्व दिया गया था, उनके पूरे बायोडाटा में कहीं भी भारतीय इतिहास परिलक्षित नहीं होता है। उनकी विशेषता थी रूस और यूरोप का इतिहास और भारत-रूस सम्बन्ध। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अपना शोध किया था और वह वर्ष 1978 में कोलकता विश्वविद्यालय में यूरोपीय इतिहास के प्रोफ़ेसर थे।
उनकी एक और पहचान है कि वह एशियाटिक सोसाइटी के साथ जुड़ कर कार्य कर रहे थे और उन्होंनें भारत और रूस के सम्बन्धों पर एशियाटिक सोसाइटी एवं मास्को इंस्टीटयूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज के लिए शोध कार्य किया था। तथा ‘Purabi Roy, Hari Vasudevan, Sobhanlal Datta Gupta (Eds), Indo-Russian Relations : 1917-1947.Select Documents from the Archives of the Russian Federation। Part I : 1917-1928 ; Part II : 1929-1947 (Calcutta : The Asiatic Society, 1999 and 2000)’ के नाम से दस्तावेज़ प्रकाशित हुए थे।
इसी बीच हम यदि कोलकता विश्वविद्यालय में उनका जो भी विवरण उपलब्ध है उसे पढ़ते हैं तो उनमें भी भारतीय इतिहास से सम्बन्धित कोई भी विषय नहीं मिलेगा। तो क्या हम यह मान लें कि एशियाटिक सोसाइटी के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने के लिए भारतीय इतिहास को उन्होंने जानबूझ कर तोड़ा मरोड़ा? या वह किसी ख़ास एजेंडे को शिक्षा के माध्यम से पूरा करना चाहते थे?
उसके बाद यदि हम मुख्य सलाहकार नीलाद्रि भट्टाचार्य पर पर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि वह कक्षा 6 से 12 तक की इतिहास की पुस्तकों के मुख्य सलाहकार हैं, और वह जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज (इतिहास अध्ययन केंद्र) में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वह आज़ादी की अपनी अवधारणा को लेकर विद्यार्थियों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं और उनके आज़ादी की धारणा को यूट्यूब पर भी देखा जा सकता है।
इसके साथ जो इनके विचारों को और स्पष्ट करता है वह है बाबरी के विवादास्पद ढाँचे को सही प्रमाणित करना। ‘The Anatomy of a Confrontation’ नाम की पुस्तक में ‘Myth, History and the Politics of Ramjanmabhumi’ नामक लेख में वह स्पष्ट लिखते हैं कि इस बात के कोई भी प्रमाण नहीं प्राप्त होते कि बाबरी ढाँचे को किसी भी राम मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। यह विचार करने की बात है कि वह नीलाद्रि जो यह कहते नहीं थकते कि विश्व हिन्दू परिषद मिथक को अपना सत्य प्रमाणित कर रही है और जो रामजन्मभूमि के इतिहास को मिथकीय इतिहास बताते हैं, क्या वह किशोर बच्चों के लिए एक भारत से जुड़ा इतिहास तैयार करने में कुछ सार्थक कदम उठा पाएंगे? वह लिखते है कि यह राममंदिर के इतिहास में मिथक और साम्प्रदायिक राजनीति एक जटिल रूप से परस्पर जुड़ी हुई हैं और विडंबना यह है कि वही नीलाद्रि भट्टाचार्य एनसीईआरटी की इतिहास की उन किताबों के मुख्य सलाहकार हैं, जो कक्षा छ में ही कह देती हैं कि हमारा इतिहास चन्द्रगुप्त मौर्य से आरम्भ होता है।
इसके साथ ही मुख्य सलाहकार हैं कुमकुम रॉय! यह भी संयोग है कि कुमकुम रॉय भी नीलाद्रि भट्टाचार्य के ही विभाग से हैं। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी है, और संभवतया इसी कारण उनका चयन किया गया होगा। परन्तु वह हमारे भारत के विषय में क्या सोचती हैं यह बेहद महत्वपूर्ण है। हम सभी को यह ज्ञात है कि हाल ही में भारत सरकार द्वारा एक नई सरकारी शिक्षा नीति की घोषणा की गयी थी, जिसकी आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था और जिसकी मांग भी लगातार की जा रहे थी। उस शिक्षा नीति के लिए जो ड्राफ्ट में सुझाव मांगे गए थे, तो कुमकुम रॉय की क्या सोच रही होगी? जब कहा गया कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, चाणक्य तथा कई अन्य विद्वान हुए हैं, जिन्होनें महत्वपूर्ण योगदान दिया है, तो कुमकुम रॉय ने एक पेपर में लिखा था कि चरक गणितज्ञ नहीं थे और न ही सुश्रुत कोई खगोलविद थे, तो कैसे उन्हें विद्वान माना जा सकता है। इतना ही नहीं वह नई शिक्षा नीति को दलित और महिला विरोधी बता चुकी हैं!
दुर्भाग्य की बात यही है कि ऐसे विचार रखने वाली कुमकुम रॉय कक्षा 6 से लेकर 12 तक एनसीईआरटी की पुस्तकों की सलाहकार हैं।
ऐसे में प्रश्न तो उठता है कि बच्चों के लिए पुस्तकों की जो नयी सलाहकार समिति गठित की जा रही है, उसमें वही विष बुझे लोग दोबारा स्थान तो नहीं पाएँगे?
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