हम संविधान के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। ऐसे समय में संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर पर केंद्रित एक नई बहस शुरू हो गई है। बहस की शुरुआत देश के माननीय गृह मंत्री अमित शाह के भाषण के एक अंश से हुई, जिसमें माननीय गृह मंत्री ने कहा, “अब एक फैशन हो गया है – अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते हैं तो सात जन्म तक स्वर्ग मिल जाता है।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा। पिछले कुछ महीनों से पूरा देश देख रहा है कि कैसे विपक्षी राजनीतिक दल खुद को अंबेडकर प्रेमी या संविधान प्रेमी बताने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं।क्या सिर्फ जेब में संविधान रखकर और हर बहस के दौरान, चाहे टीवी शो हो या संसद में, उसे दिखाकर कोई संविधान प्रेमी बन सकता है? बिल्कुल नहीं। बल्कि संविधान के प्रति किसी व्यक्ति या दल का सम्मान और गरिमा इस बात पर निर्भर करती है कि वास्तव में संविधान का कितना सम्मान किया जाता है।
अब आते हैं कांग्रेस पर, जिस पार्टी का ’54 वर्षीय युवा नेता’ सचमुच संविधान को जेब में रखता है। जब हम कांग्रेस का इतिहास खोलते हैं, तो 1975 के आपातकाल के काले अध्याय हमारे दिमाग में आते हैं। आज जो कांग्रेस संसद में खड़ी होकर संविधान की दुहाई देती है, उसने तब क्या किया था? रातों-रात विपक्षी दलों के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। अब जब विपक्ष संसद में खड़ा होकर मांग करता है कि ‘लोकतंत्र खतरे में है’, तो उस समय कोई भी विपक्षी दल का नेता यह कहने की स्थिति में भी नहीं था, क्योंकि उनके सदस्य सलाखों के पीछे थे। जय प्रकाश नारायण जैसे उच्च स्तरीय विपक्षी नेता के साथ क्या हुआ, यह उनके अपने लेखन से स्पष्ट है। उस समय 26 जुलाई को जयप्रकाश नारायण ने जेल से लिखा था, “I have spent almost a month today in this particular prison, and I would like to add that this one month has been equivalent to spending one full year in prison.” उन्होंने यह भी लिखा था, “The government’s behavior towards me was worse than that of the British government.”
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार आपातकाल घोषणा की दो महीने के भीतर संसद कोआपातकाल की घोषणा को मंजूरी देनी होती है, इसलिए राष्ट्रपति ने 9 जुलाई को संसद का सत्र बुलाया। सत्र बहस से भरा रहा, हालांकि उस समय लोकसभा और राज्यसभा के 59 सदस्य जेल में थे। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, मीडिया, उस समय सरकार के कड़े कोप का शिकार भी हुआ। 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के दौरान मीडिया की भूमिका के बारे में बोलते हुए, लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, “इंदिरा गांधी ने मीडिया को झुकने के लिए कहा, वे रेंगने लगे।”
हालांकि यह कहना गलत होगा कि सभी मीडिया ने खुद को बेच दिया था, लेकिन जिस तरह से इंदिरा सरकार ने मीडिया का गला घोंटा, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई लोगों के लिए आत्मसमर्पण ही एकमात्र विकल्प बन गया। स्टालिन के रूस के बाद, दुनिया में कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा हमला संभवतः इंदिरा गांधी के शासन के दौरान भारत में हुआ था। राजमोहन गांधी के साप्ताहिक ‘हिम्मत’, तमिलनाडु के पाक्षिक ‘तुगलक’ और प्रसिद्ध पत्रकार निखिल चक्रवर्ती द्वारा संपादित ‘मेनस्ट्रीम’ जैसे घोर सरकार विरोधी समाचार-पत्रों को सेंसरशिप के अंतर्गत लाया गया। ‘मदरलैंड’ के संपादक, प्रसिद्ध पत्रकार के.आर. मलकानी और हिंद समाचार के संपादक लाला जगत नारायण को आपातकाल के दौरान हुई मानवीय त्रासदियों को उजागर करने के कारण पूरे इक्कीस महीने जेल में रहना पड़ा। मलकानी ने लिखा, “मदरलैंड देश का एकमात्र ऐसा समाचार-पत्र था, जिसने 26 जून को प्रकाशित अपने संस्करण में न केवल लोगों को आपातकाल के बारे में जानकारी दी, बल्कि आपातकाल के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर गिरफ्तारी और विरोध के बारे में भी बताया।”
कांग्रेस शासन के दौरान, 1 लाख से अधिक विपक्षी कार्यकर्ताओं को मीसा के तहत हिरासत में लिया गया, लोगों के बुनियादी अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली गई; उस पार्टी के आज संविधान-प्रेम देखाना असंगत लगता है।
इतना ही नहीं, एक तरफ जब विपक्ष के लगभग सभी नेता जेल में थे, तब कई महत्वपूर्ण संवैधानिक संशोधन सफलतापूर्वक पारित किए गए, जिनमें से एक 42वां संविधान संशोधन था। यह 42वां संशोधन इतिहास का एक महत्वपूर्ण संशोधन था जिसने संविधान के अधिकांश हिस्सों को संशोधित किया, यही वजह है कि इसे भारत का मिनी संविधान भी कहा जाता है। इस संशोधन अधिनियम ने प्रस्तावना में निम्नलिखित परिवर्तन किए: इसमें ‘सोशलिस्ट’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए।
लेकिन क्या संविधान निर्माता डॉ. बी आर अंबेडकर वास्तव में इन शब्दों को भारतीय संविधान में जोड़ने के पक्ष में थे? इस संबंध में, 15 नवंबर, 1948 को भारतीय संविधान सभा में संविधान की प्रस्तावना पर हुई बहस को देखना आवश्यक है। प्रोफेसर केटी शाह ने मांग की थी कि संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘सोशलिस्ट’ शब्द शामिल किए जाएं। हालांकि, डॉ. बीआर अंबेडकर ने उनकी मांग का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा, “Mr. Vice-President Sir, I regret that I cannot accept the amendment of Prof. KT Shah…. What should be the policy of the State, how the Society should be organised in its social and economic side are matters which must be decided by the people themselves according to time and circumstances. It cannot be laid down in the Constitution itself, because that is destroying democracy altogether. If you state in the Constitution that the social organisation of the State shall take a particular form, you are, in my judgment, taking away the liberty of the people to decide what should be the social organisation in which they wish to live.” (Source – Constituent Assembly Debates, Volume 7; 15 Nov, 1948)
संक्षेप में, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, तथा समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पहलुओं में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, इसका निर्णय लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं करना चाहिए। यदि संविधान में ऐसा निर्दिष्ट किया जाता है, तो यह लोगों की स्वतंत्रता का हनन होगा। संविधान के जिस भाग को वर्तमान विपक्षी दल के नेता बार-बार उजागर करते हैं – जो लोग राम मंदिर निर्माण या किसी भी प्रमुख हिंदू त्योहार को देखते समय धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा देखते हैं – आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़े गए विशेष वाक्यांशों को हिंदुत्व की हवा को रोकने के लिए ढाल के रूप में पेश करते हैं; यह सिद्ध है कि वास्तव में संविधान के निर्माता अंबेडकर स्वयं इन परिवर्तनों के खिलाफ थे। दूसरे शब्दों में, आपातकाल के दौरान संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से ‘सोशलिस्ट’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ना अंबेडकर के निर्देशों की सीधी अवहेलना और अपमान है।
कांग्रेस द्वारा अंबेडकर के अपमान का इतिहास यहीं खत्म नहीं होता। वह वर्ष 1932 था जब डॉ अंबेडकर ने दलितों के राजनीतिक सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने के लिए उनके लिए अलग निर्वाचन की मांग की थी। हालांकि, महात्मा गांधी ने आमरण अनशन के माध्यम से दबाव बनाकर अंबेडकर को पूना समझौते के माध्यम से समझौता करने के लिए मजबूर किया। विडंबना यह है कि यही महात्मा गांधी मुसलमानों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचन का समर्थन करते थे, लेकिन दलितों के लिए अलग निर्वाचन का कड़ा विरोध करते थे।
अंबेडकर के योगदान की कांग्रेस द्वारा उपेक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण 1990 तक संसद के सेंट्रल हॉल में अंबेडकर की तस्वीर लगाने से इनकार करना है। इससे भी ज़्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि कांग्रेस ने भारत के संविधान निर्माता को भारत रत्न देने में आनाकानी की। डॉ. अंबेडकर को उनकी मृत्यु के 44 साल बाद 1990 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
लगातार अंबेडकर और संविधान का अपमान करने वाली कांग्रेस आज सिर्फ़ राजनीतिक स्वार्थ के लिए संविधान की समर्थक बनती नज़र आ रही है। इतिहास को ध्यान में रखते हुए आज लोगों को यह तय करना होगा कि कौन सच्चे अंबेडकरवादी हैं और कौन छद्म अंबेडकरवादी; कौन संविधान का सच्चा सम्मान करता है और कौन राजनीतिक स्वार्थ के लिए संविधान प्रेमी होने का मुखौटा पहनता है।