प्रकृति संसार के ऊर्जा-चक्र का स्रोत है, हमारी गतिशीलता का मूल कहीं न कहीं प्रकृति से प्राप्त ऊष्मा में ही छिपा है, इस तथ्य से परिचित पूर्वज अपने पोषण का श्रेय प्रकृति को देते हुये उसे देवतातुल्य मानते थे, संस्कृतियों की श्रंखलायें इसका शाश्वत प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
जैसे कि हमारे पूर्वजों ने सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को बड़े ही सरल और प्राकृतिक ढंग से उपयोग किया, गोबर के उपलों व सूखी लकड़ी से ईंधन, जलप्रवाह से पनचक्कियाँ, पशुओं पर आधारित जीवन यापन, कृषि और यातायात। अन्य कार्यों में शारीरिक श्रम, पुष्ट भोजन और प्राकृतिक जीवन शैली।
लेकिन क्या हम अपने पूर्वजों की सौंपी हुई विरासत को संभालने में योग्य साबित हुए ?हाल ही में विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने भारत की पर्यावरण रिपोर्ट 2022 की स्थिति जारी की। 1988 में परिकल्पित राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार वन आच्छादन को भौगोलिक क्षेत्र के 33.3% तक बढ़ाने का लक्ष्य है। लेकिन 2019 तक, भारत का केवल 21.6 फीसदी हिस्सा वनों से आच्छादित था। 2015 में संयुक्त राष्ट्र के 192 सदस्य देशों द्वारा 2030 के एजेंडे के एक हिस्से के रूप में अपनाए गए 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में भारत, तीन पायदान नीचे 120वें स्थान पर आ गया है। 2021 में भारत 192 देशों में 117वें स्थान पर था। भारत का समग्र एसडीजी स्कोर 100 में से 66 था। कारण असंख्य हैं, कर्ता असंख्य हैं, पर निश्चित ही मानव हन्ता है, और प्रकति तत्व हन्त्य। आज प्रकति के संरक्षण हेतु हमें अपनी प्रवत्ति में व्यापक स्तर पर सुधार करने होंगे।
प्रकृति के सिखाने के ढंग बड़े सरल हैं, समझना हम लोगों को ही है कि हम कितना समझ पाते हैं। प्रकृति हमें स्थिर न रहने देगी, कितना भी चाह लें हम, चाँद से संचालित मन कोई न कोई उथल पुथल मचाता ही रहेगा। यह भी सच है कि प्रकृति हमें अपनी सीमायें अतिक्रमण भी न करने देगी, कितने भी भाग्यशाली या शक्तिशाली अनुभव करें हम। आदेश कहने वाला कभी आदेश सहने की स्थिति में भी आयेगा, प्रकृति के पास पाँसा पलटने के सारे गुर हैं। सागर से धरती का मिलन होता है तो रेत के किनारे निर्मित हो जाते हैं, सारे पाथर चकनाचूर हो जाते हैं। सागर का अपनी सहधर्मी नदी से मिलन होता है तो सीमाओं का खेल चलता रहता है। सागर का आकाश से मिलन होता है तो अनन्त निर्मित हो जाता है।
प्रकृति में स्वयं को शुद्ध रखने का अभूतपूर्व गुण हैं। प्रकृति का संतुलन ठीक रहे तो प्रकृति शुद्धता बनाये रहेगी। परिवेश स्वच्छ रहे, नदियाँ, झील, वायुमण्डल शुद्ध रहे, तन शुद्ध रहे, मन शुद्ध रहे। स्वच्छता के प्रति दृढ़ आग्रह हमारा सामाजिक दायित्व है। पर्यावरण को अशुद्ध रखने में जीवमात्र की हानि है। हमारे कार्य कहीं ऐसे न हों जो पर्यावरण को हानि पहुँचायें तो यह भी हिंसा होगी, आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिये घातक, आपके अपनों के स्वास्थ्य के लिये घातक। यह हमारा सौभाग्य है कि महान प्रयास इस दिशा में फलीभूत हो रहे हैं, विकास का भारतीय परिप्रेक्ष्य विश्वपटल पर अपना स्थान पा रहा है। संसाधनों का उतना ही संदोहन हो जिससे वे पुनः पनप सकें, पुनः उठ खड़े हो सकें। यदि प्रकृति पर अतिशय अत्याचार होगा तो प्रकृति अपने पावन करने वालों तत्वों से वंचित रह जायेगी और सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा। असंतुलन फैलेगा, रोग फैलेंगे, सामाजिक त्रास फैलेगा।
प्रकृति को किसी भौतिक नियम से संचालित मानने वाले प्रकृति की विशालता को न समझ पाते हैं और न ही उसे स्वीकार कर पाते हैं। प्रकृति में सौन्दर्य है, गति है, अनुशासन है और क्रोध भी। हम तो हर रूप में जाकर हर बार खो जाते हैं। देखते देखते सागर और धरती का मिलन सागर की ओर आगे बढ़ जाता है। दोनों अपनी अठखेलियों में मगन हैं, प्रकृति भी दूर खड़ी मुस्करा रही है। हम सब यह देख कभी विस्मित होते हैं, कभी प्रसन्नचित्त। बस नदी की तरह प्रकृति में झूम जाने का मन करता है, आनन्दमय प्रकृति में।
संरक्षेत् दूषितो न स्याल्लोकः मानवजीवनम् ।
न कोऽपि कस्यचिद् नाशं, कुर्यादर्थस्य सिद्धये ।।”
दीक्षा त्यागी, कक्षा 12