अनन्य (exclusive) एकेश्वरवाद की सीमाएं
अब्राहमिक परम्पराएं( इस्लाम, ईसाइयत आदि) एकेश्वरवादी होती हैं और केवल एक ईश्वर को मानती हैं। फिर भी उनका एकेश्वरवाद बहुत ही अनन्यवादी (exclusivist) होता है। उनका एक ईश्वर किसी और ईश्वर के प्रति सहष्णु नहीं होता। साथ ही, अब्राहमिक एकेश्वरवाद सामान्यतः चित्रों के उपयोग के प्रति भी असह्ष्णु होते हैं, मानो चित्रों का उपयोग करना अपने आप में एक ईश्वर के विरुद्ध हो और किसी तुच्छ और भयानक प्रेत की पूजा करने जैसा हो। कैथोलिक और रूढ़िवादी ईसाई चित्रों का उपयोग करते हैं, परन्तु अपने चित्रों को पवित्र, वहीं गैर ईसाईयों द्वारा चित्रों की पूजा को अपवित्र मानते हैं । यहूदी, प्रोटेस्टेंट ईसाई और मुसलमान किसी भी प्रकार के चित्रों के उपयोग को अस्वीकार करते हैं उसे मूर्तिपूजा मानते हैं, और कभी कभी चित्रों के उपयोग करने के लिए कैथोलिक्स की निंदा भी करते हैं। ईसाई और मुस्लिम संगठनों के पूरे विश्व को अपनी आस्था में परिवर्तन करने की उग्र चेष्टा के पीछे इसी प्रकार का अनन्यवाद ही है, चाहे उनके इस काम के कितने ही दुष्परिणाम निकलें। भारत में आज ज्यादातर मिशनरियों का प्रयास इसी प्रकार के उग्र एकेश्वरवाद को बढ़ावा देना और धार्मिक परम्पराओं को अपवित्र और बुराई बता कर नीचा दिखाना है।
इस परिवर्तन पर आधारित एकेश्वरवाद में चाहे ईश्वर एक हो पर मनुष्य दो प्रकार के हैं, एक वे जिनका उद्धार हो चुका है और दूसरे जो अभिशापित हैं। जो भी एक ईश्वर की आस्था में विश्वास नहीं करते उनका अभिशापित होना तय है, और उनकी आध्यात्मिक प्रथाएं अपवित्र मानी जाती हैं। अनेक अब्राहमिक संप्रदाय अपने पंथ को लेकर मतभेदों के कारण एक दूसरे की निंदा करते हैं। अनन्य एकेश्वरवाद से जन्मी असहिष्णुता न केवल एकेश्वरवादी परम्पराओं को मानने वालों को बल्कि उनको न मानने वालों को भी नुकसान पहुंचाती हैं।
आत्म और आत्मा
हिन्दू परम्पराओं में, दिव्यता की अवधारणा आत्म या पौरुषसे है, जिसे सारे विश्व में व्याप्त शुद्ध चेतना के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो समय और स्थान से परे हो। आत्मा सभी प्राणियों के अंतःकरण में, शरीरऔर मस्तिष्क से दूर वास्तविक प्रकृति रूप में है।
अपने आत्म की समझ के साथ ही सभी में विद्यमान अस्तित्व की एकता को ही कुछ चिन्तक एकेश्वरवाद से जोड़कर देखते हैं। एकेश्वरवाद की एक ही ‘वास्तविक’ ईश्वर होने की अवधारणा और सार्वभौमिक चेतना जो सभी में दिव्यता देखती है, इन दोनों में अंतर है।
अनन्यवादी एकेश्वरवाद दोहरे विश्व दृष्टिकोण पर चलता है। सामान्यतः उनका उद्देश्य मृत्यु के बाद स्वर्ग में जाना है जो कि एक भव्य भौतिक संसार के रूप में परिभषित किया जाता है। यह आत्मबोध की आवश्यकता को नहीं मानता, बल्कि यह समझता है कि आस्था और विश्वास ही अमर होने के लिए पर्याप्त हैं।
अब्राहमिक परम्पराओं में ईश्वर के कई नामों में ‘आत्म’ शब्द कहीं नहीं मिलता और न ही कोई ऐसा शब्द जिसकी तुलना आत्मा से कर सकें। सामान्यतः यह माना जाता है कि ईश्वर स्वयं से अलग है लेकिन दोनों में घनिष्ठ संबंध है, उपनिषद के तरीके से “मैं ईश्वर हूँ” कहना , पंथ विरोधी समझा जाता है।
रहस्यवादी (Mystical) परंपराएं
कुछ रहस्यवादी (Mystical) लोग एकेश्वरवादी परम्पराओं में भी मिलते हैं, जो अलग अलग स्तर के चेतना की एकता की बात करते हैं। ऐसे साधक अब्राहमिक पंथों में, दर्शनशास्त्र और कला के क्षेत्रों में मिलते हैं। चेतना की एकता की बात करने वाले विश्वभर में इतिहास के हर काल में मिलते हैं, जैसे प्राचीन काल में ग्रीक और ग्नोस्टिक साधक, और विधर्मी (पैगन) एवं मूल परम्पराओं में।
अनन्यवादी परम्पराओं में ऐसे रहस्यवादियों(साधकों) को अपनी आस्थाओं के भीतर न केवल अस्वीकार किया गया बल्कि उन्हें मार डाला गया। जैसे बगदाद के अल हल्लाज को अनल हक़ या “मैं सत्य हूँ” की घोषणा करने पर क्रूरता पूर्वक मार दिया गया। मीस्टर एक्खार्ट (Meister Eckhart), जिनके भी विचार इसी तरह के थे, उन्हें भी पोप के द्वारा पंथ विरोध के आरोप में बंदी बनाकर मार दिया गया।
फिर भी सभी रहस्यवाद एक ही तरह के नहीं हैं, सभी आत्मबोध पर बल नहीं देते. इनमें से कुछ रूढ़ीवादी और उग्र रहस्यवादी भी हैं जो अनन्यवादी विचारों को बहुत हठधर्मिता से मानते हैं । हम सभी साधनाओं को आँख मूंद कर समान नहीं मान सकते।
आत्मबोध का मार्ग
आत्मबोध या आत्मविद्या का मार्ग योग और वेदांत पम्पराओं में उच्चतर सत्य प्राप्ति की कोशिश करने वालों के लिए बहुत ही सरलता से समझाया गया है, इसके साथ कर्म के साथ ही पुनर्जन्म को भी समझाया गया है। ऐसी सहज शिक्षा किसी और रहस्यवाद में नहीं है, विशेष रूप से जब एकेश्वरवाद की तलवार लोगों के ऊपर लटकी हुई हो।
रुढ़िवादी ईसाईयत और रुढ़िवादी इस्लाम में आत्मबोध का कोई मार्ग नहीं है। कुछ रुढ़िवादी समूहों में चेतना की एकता तक पहुचने के कुछ तरीके हैं, लेकिन सम्पूर्ण व्यवस्थाएं बहुत ही कम हैं।
हमें केवल एक ईश्वर की अवधारणा वाले एकेश्वरवाद, जिसमें और आत्मबोधऔर चेतना की एकता या यह अवधारणा कि सभी में ईश्वर है, इनको एक समान नहीं मानना चाहिए। धार्मिक बहुलवाद के सम्मान के लिए हमें बिना सोचे समझे दो विपरीत धार्मिक विचारों या दार्शनिक मतों की बराबरी नहीं करनी चाहिए।
केवल एक ईश्वर होने की बात को मानना, सभी प्राणियों में निहित दिव्यता, को स्वीकार करने के जैसा नहीं है । बल्कि सामान्यतः आत्म को नकारना ही एकेश्वरवाद का आधार है। केवल एक ईश्वर को स्वीकार करना, आत्मबोध की आवश्यकता के सम्मान करने से बहुत ही अलग ही है। यदि एक ईश्वर में आस्था, सत्य के लिए अनन्यवादी मार्ग को बढ़ावा देती है और पंथपरिवर्तन की मांग करती है, तो ऐसी आस्था मनुष्य के निहित अध्यात्म के विकास को रोक देती है और सारे विश्व में असहिष्णुता और उग्रता को जन्म देती है।
आत्मबोध धार्मिक परम्पराओं का गुणहै जबकि इस्लाम और ईसाईयत में यह गौण (कम महत्व का), संदेहास्पद और विधर्मी मानी जाने वाला लक्ष्य है। वास्तविकता में आत्मबोध सभी के जीवन का सच्चा लक्ष्य होता है, केवल एक पंथ या समाज का नहीं।
हमें सभी के ‘आत्म’ का सम्मान करना चाहिए, लेकिन सभी पंथों की शिक्षाओं, जिनके लक्ष्य अलग अलग हैं, उनको आत्मबोध के वास्तविक मार्ग से नहीं जोड़ना चाहिए। पंथ और अध्यात्म के कई प्रकार और स्तर हैं जो केवलउच्चतर सत्य को ही नहीं बल्कि आदमी के पूर्वाग्रहों को भी दर्शाते हैं।
यह बिलकुल विज्ञान की तरह है जिसमे सारे वैज्ञानिक सिद्धांतों को बराबर समझ कर सत्य नहीं माना जा सकता। अध्यात्म आत्मबोधका विज्ञान होना चाहिए न कि किसी पंथ का हठधर्म (जिस पर प्रश्न नहीं कर सकते)। इसे हमें यह सिखाना चाहिए कि अपनी चेतना को कैसे बदला जाए- न कि केवल किसी को पन्थपरिवर्तन का लक्ष्य बनाना, जबकि हम स्वयं अपनी वास्तविकता से ही अनभिज्ञ हों।
(अनिल मोटवानी तथा वीरेंद्र सिंह द्वारा हिंदी अनुवाद)