पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जीवन एवं व्यक्तित्व सामाजिक जीवन जीने वाले असंख्य लोगों के लिए सदैव से आदर्श एवं अनुकरणीय रहा है। समाज के वंचित एवं उपेक्षित वर्ग के प्रति आत्मीयता और इनका विशाल चिंतन आज भी इन्हें नेतृत्वकर्ताओं की पंक्ति में अग्रेसर की भूमिका में रखता है। संघ कार्य का विस्तार हेतु आजीवन अविवाहित रहने के संकल्प के साथ दीनदयाल जी ने जिस तरह स्वयं को त्याग और तपस्या के प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित किया वह समाज के युवा वर्ग के लिए अनुकरणीय है। आज के पर्याय में पंडित जी द्वारा दिए गए अंत्योदय के सिद्धांत को धरातल पर उतारने की नितांत आवश्यकता है। जाति-पाति के भेद भाव और वैमनस्यता के खेल को ख़त्म कर देश को नई राह पकड़ाने की जरूरत है, हमें अपने आचरण के माध्यम से इन कुरीतियों को समाप्त करने की जरूरत है, क्योंकि सिर्फ शब्दों से भारत माँ का मुकुट नहीं जगमगायेगा।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक प्रखर वक्ता और लेखनी के लिए भी जाने जाते हैं, राजनीति के क्षेत्र में ‘दीनदयाल’ उस स्तंभ का नाम है जिसके बुते हम एक नए भारत का निर्माण कर सकते हैं। एक अच्छे लेखक और प्रखर वक्ता के रूप में आज भी उनकी पहचान हर जगह स्वीकार्य है। बतौर एक लेखक और चिंतक उन्होंने राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ की आधारशिला रखी थी। जानकारी के लिए बता दूँ कि ‘पाञ्चजन्य’ उस शंख का नाम है जिसका उपयोग भगवान श्री कृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र की भूमि पर महाभारत काल में शंखनाद के लिए किया गया था।
दीनदयाल जी ने सृष्टि, समष्टि, मानव तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं की वास्तविकता पर गहन अध्ययन, चिंतन के उपरांत परिणामस्वरूप संसार को एकात्म मानववाद का वास्तविक और व्यावहारिक सिद्धांत दिया। राजनीति में अरुचि रहते हुए भी गुरूजी के इच्छा के आगे उनका जनसंघ में सहयोग के लिए जाना स्पष्ट करता है कि संगठन के प्रति वे अनुशासित एवं निष्ठावान थे।
आज भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण और राजनीतिक फायदे के लिए जिस तरह जाति, धर्म और संप्रदाय के रंगों को उछाला जाता है और समाज को बांटने का कार्य किया जाता है वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन दीनदयाल जी के विचार और आदर्श आज के समय से बिल्कुल इतर थे। बात 1963 की है जब तीन संसदीय सीटों पर उपचुनाव होना था तब दीनदयाल जी को जौनपुर से संसदीय सीट का प्रत्याशी बनाया गया था। चुनावी मैदान में जब कांग्रेस के उम्मीदवार द्वारा चुनावी जीत के लिए जातीय आधार पर राजपूत जातिवाद को मुद्दा बनाने का कार्य शुरू किया गया, तब कुछ जनसंघ कार्यकर्ताओं ने ब्राह्मण वोट के ध्रुवीकरण की योजना बनाई (क्योंकि दीनदयाल जी ब्राह्मण थे), तब दीनदयाल जी ने स्पष्ट शब्दों में कार्यकर्ताओं को सचेत किया कि यदि जातिवाद को आधार बनाया गया तो वे चुनाव से अपना नाम वापस ले लेंगे (दीनदयाल जी के लिए नैतिकता किसी भी चुनावी जीत-हार से ज्यादा महत्वपूर्ण थी)। हालांकि वे जौनपुर से चुनाव हार गए पर नैतिकता जीत गई।
आज केंद्र में भा.ज.पा की पूर्ण बहुमत की सरकार द्वारा दीनदयाल जी की नाम पर कई योजनाएं चलाई जा रही है, इस कड़ी में हालिया मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर “दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन” रखा गया। लेकिन इसके साथ साथ यह भी जरूरी है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड पाठ्यक्रम की पुस्तकों में इस महामानव का उल्लेख हो और उनके विचारों और दर्शन को जानने का अवसर समस्त देश को प्राप्त हो और इसका दारोमदार अब नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार के उपर है।
राष्ट्रिय अखंडता के प्रति दीनदयाल जी के विचार दलगत राजनीति से परे थे। वो स्वयं कितने उपयोगी होंगे यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के शब्दों, “मुझे ऐसे दो दीनदाययल और दे दीजिए, मैं सारे देश का राजनीतिक नक्शा बदल दूँगा।” से पता चलता है।
एकात्म मानववाद और अंत्योदय के प्रणेता, प्रखर राष्ट्रवादी, महान विचारक और हम सभी के पथ प्रदर्शक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर उन्हें शत्-शत् नमन।
-सोनू निगम सिंह
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