भारत की महिला सुपर स्टार क्रिकेटर मिथाली राज के जीवन पर बनी फिल्म “शाबास मिट्ठू” बॉक्स ऑफिस पर कमाल दिखाने में सफल नहीं हो पा रही है। और जिस प्रकार की समीक्षा फिल्म को मिली है। उससे यह लगता भी नहीं है कि यह फिल्म खास कमाल दिखा पाएगी?
फिल्म का विषय अच्छा है और यह फिल्म महिला क्रिकेट के कुछ पहलुओं पर बात करती है, परन्तु जहाँ तक इसके ट्रेलर और तापसी पन्नू के कई साक्षात्कार की बात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं न कहीं यह भी उसी अल्ट्रा वोक फेमिनिज्म को मिथाली राज के जीवन के बहाने से परोसती है, जो वोक फेमिनिज्म समाज के विरुद्ध ले जाकर खड़ा कर देता है।
जो पूरे हिन्दू और भारतीय समाज को कठघरे में खड़ा करता है, ऐसा लगता है कि अल्ट्रा वोक फेमिनिज्म फिल्म की कहानी ही नहीं बल्कि पूरे विषय को ही अपना शिकार बना लेता है। भारत में खेलों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, ऐसे में कई बार ऐसा हो सकता है कि व्यवस्थागत समस्याएं हों, परन्तु वह पुरुषों के विरोध में जाकर खड़ी हो जाएं, ऐसा नहीं लगता!
कुछ दिनों से ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि जो लोग एक विशेष विचारधारा या कहें वाम विचारधारा को अपने काम पर प्राथमिकता देते हुए हिन्दुओं को कोसते दिखाई देते थे, उनकी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो रही हैं, और यह बॉलीवुड में अधिक देखा जा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे एक बड़ा वर्ग अब किसी भी प्रकार के एजेंडे और एजेंडे बेचने वालों को देखने के लिए तैयार नहीं है।
भारत ने क्रिकेट में अपना पहला विश्वकप वर्ष 1983 में जीता था। उसपर बनी फिल्म भी फ्लॉप रही थी, यद्यपि उसमें इतना अधिक एजेंडा और झूठ परोसा गया था और क्रिकेट से इतर का एजेंडा जो फैलाया गया था, उससे त्रस्त होकर लोग देखने नहीं गए थे। हालांकि दीपिका पादुकोण के चलते भी लोगों में नाराजगी थी।
हालांकि उसमे वोक फेमिनिज्म नहीं था, परन्तु दूसरे एजेंडे थे। एक बात इन दोनों ही उदाहरणों से स्पष्ट होती है कि अब लोग फिल्मों में एजेंडा और झूठ नहीं देखना चाहते हैं।
तापसी पन्नू ने एक बार फिर से फेमिनिज्म का एजेंडा चलाने का अंतिम प्रयास करते हुए कहा था कि “मिथाली राज और मेरे जैसी महिलाओं को समानता नहीं मिली है, परन्तु हमें नोटिस किया जा रहा है!”
इकॉनोमिक टाइम्स को दिए गए अपने साक्षात्कार में उन्होंने मिथाली के मातापिता की प्रशंसा भी की थी और यह भी कहा था कि मिथाली राज को बहुत ही सहयोग करने वाले अभिभावक और कोच मिले, मगर उसके बाद ही उन्होंने अगले प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि हम लोग एक पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, तो परिवर्तन आने में समय लगता है। यह एक रात में नहीं हो सकता, और आने में दशकों में लगते हैं। अगली पीढ़ी जरूर परिवर्तन देखेगी। फिर कहा कि “मिथाली राज और मेरे जैसी महिलाओं को समानता नहीं मिली है, परन्तु हमें नोटिस किया जा रहा है!”
एक सफल क्रिकेटर और कथित रूप से एक विचार के लिए सफल अभिनेत्री तापसी कैसे इस प्रकार की बातें कर रही हैं कि समानता नहीं है? या समाज पितृसत्तात्मक है? दरअसल यही आयातित सोच है, जिसके आधार पर जब फ़िल्में बनती हैं तो उनमें जनता से या कहें लोक से जुड़ाव नहीं हो पाता है, क्योंकि समाज के प्रति भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण रखकर फ़िल्में बनाई जाती हैं।
जब मात्र तथ्यों और सत्य के साथ फ़िल्में बनई जाती हैं, तो वह लोक और कथ्य में जुड़ाव अनुभव कराने में सफल होती हैं, जैसे सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्म “कश्मीर फाइल्स!” इस फिल्म ने दर्द और षड्यंत्र दोनों ही बिना किसी एजेंडे के एकदम स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत किए गए थे। यही कारण है कि फिल्म जनता के दिल को छुई और फिल्म ने सफलता के झड़े गाढ़े!
वहीं सम्राट पृथ्वीराज में भी अनावश्यक वोक फेमिनिज्म का तड़का लगाकर एक वीर योद्धा की कहानी को “औरतों का मसीहा” घोषित करने का कुप्रयास किया तो फिल्म तमाम राजनीतिक समर्थनों के बाद भी फ्लॉप हो गयी। दर्शक पृथ्वीराज चौहान का शौर्य देखने गया, मगर उसे वहां पर मिला एक वोक फेमिनिस्ट, जो कहीं से भी उस छवि के अनुकूल नहीं था, जिस छवि को बेचा गया और जो छवि इतने वर्षों से भारत के लोक में बसी हुई है।

हिन्दुओं में आदि काल से ही स्त्रियों के तमाम अधिकार हैं और यही एकमात्र धर्म है जहाँ पर अर्धनारीश्वर की अवधारणा है। रामायण में और महाभारत दोनों में ही राजा और रानी सिंहासन पर बैठकर संचालन करते हैं।

जहां पर स्त्रियों ने शास्त्रार्थ किया, जहाँ पर स्त्रियों ने युद्ध किया, जहां पर वेदों की ऋचाएं हिन्दू स्त्रियों ने लिखीं, उसी हिन्दू धर्म को तमाम तरह से पिछड़ा बताकर मात्र एक ऐसे आयातित फेमिनिज्म को स्थापित करने का कुप्रयास किया गया, जो दरअसल स्वयं में पिछड़ा है!
जनता ने वीर पृथ्वीराज के सामने इस वोक फेमिनिस्ट पृथ्वीराज को नहीं चुना और फिल्म देखने नहीं गयी, जैसा शाबास मिट्ठू का रिव्यु मिल रहा है और जैसा ट्रेलर एवं जैसा तापसी का साक्षात्कार है, क्या यह समझा जाए कि एक बार फिर से एक महान व्यक्तित्व को बड़े परदे पर एक एजेंडे के रूप में प्रस्तुत किया गया?
और प्रश्न फिर से यही उठता है कि क्या वोक फेमिनिज्म और पुरुषों एवं हिन्दू लोक से घृणा करने वाला फेमिनिज्म ऐतिहासिक एवं वृहद उपलब्धियों वाले व्यक्तित्वों को उस रूप में प्रस्तुत ही नहीं कर है, जो वह हैं?