केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ने देश में एक नई बहस पैदा करते हुए कहा कि भारत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की कोई अवधारणा नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में सभी नागरिकों को एक समान अधिकार प्राप्त है। उन्होंने कहा कि उन्हें किसी भी प्रकार से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा में विश्वास नहीं है और भारत में इस वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं हैं।
वह ‘ज्यूडिशियल क्वेस्ट’ पत्रिका की ओर से आयोजित ‘सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30’ पर एक संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि अल्पसंख्यक होने का क्या अर्थ है, क्या मैं अपने देश में अल्पसंख्यक रूप में रहूँगा, जहाँ मैं पैदा हुआ। अल्पसंख्यक का अर्थ क्या है? क्या मैं बराबर से कम हूँ? क्या यह मेरे लिए शर्मनाक नहीं है? क्या एक इंसान के रूप में मेरी गरिमा का अपमान नहीं करता है?”
उन्होंने यह भी कहा कि औपनिवेशिक सरकार की विरासत के अनुसार ही अल्पसंख्यकों का प्रयोग किया गया है। उन्होंने यह कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का भी हवाला दिया, जिसमें किसी भी प्रकर के भेदभाव का निषेध है और कानून के समक्ष समानता की बात की गयी है।
केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान जहाँ एक ओर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के वर्गीकरण की बात करते हैं तो वहीं भारत सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं को उचित ठहराते हुए यह कहा था कि भारत में अल्पसंख्यकों को कमजोर वर्ग माना जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर हिन्दू बहुसंख्यक हैं।
आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं कि भारत में ऐसा कुछ नहीं है कि अल्पसंख्यकों को कम अधिकार प्राप्त हैं, तो ऐसा लगता है जैसे भारत सरकार के अल्पसंख्यक आयोग की यह राय नहीं है।
जो बात आरिफ मोहम्मद खान कह रहे हैं, लगभग वही बात नीरज शंकर सक्सेना ने वकील विष्णु जैन के माध्यम से दाखिल की गयी अपनी एक याचिका में कही थी कि कल्याणकारी योजनाओं का आधार धर्म नहीं हो सकता है। और याचिका में यह भी कहा गया था कि याचिकाकर्ता और हिन्दू समुदाय के अन्य सदस्यों को इसलिए पीड़ित होना पड़ रहा है, क्योंकि वह बहुसंख्यक समुदाय में पैदा हुए हैं। इस याचिका में कहा गया था कि भारतीय संविधान के पंथनिरपेक्ष सिद्धातों को ध्यान में यदि रखा जाए तो कोई भी राज्य किसी भी अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक किसी भी समुदाय को किसी भी धर्म के आधार पर कोई लाभ नहीं दे सकता है।
इसी याचिका में कहा गया था कि मुस्लिमों को यह सभी सुविधाएँ देकर केंद्र सरकार उन्हें कानून और संविधान से भी ऊपर मान रही है। और यह भी कहा गया अथा कि संविधान के अनुच्छेद 27 में इस बात का प्रतिबन्ध है कि करदाताओं से प्राप्त धन को सरकार किसी विशेष मजहब को बढावा देने के लिए कर दे, जैसा सरकार वक्फ संपत्ति के निर्माण से लेकर अल्पसंख्यक छात्रों और महिलाओं के लिए कई योजनाओं में करोड़ों रूपए खर्च कर रही है।
इस पर केंद्र सरकार ने इस दर्जे को वैधता प्रदान करते हुए यह कहा था कि धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लिए जो भी योजनाएं चला रही हैं, जो कानूनी रूप से वैध हैं और यह समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
सरकार ने अपने शपथपत्र में कहा था कि अल्पसंख्यकों के लिए जो भी योजनाएं चलाई जा रही हैं, वह सभी संविधान में प्रदत्त समानता के सिद्धांत के आधार पर हैं। सरकार के अनुसार यह सभी योजनाएं समावेशी परिवेश बनाने के लिए प्रावधानों का निर्माण करती हैं।
वहीं कुछ दिनों बाद राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र सरकार की योजनाओं को सही ठहराते हुए कहा कि भारत में अल्पसंख्यकों को इसलिए कमजोर वर्ग वाला माना जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर हिन्दू दबदबे वाला वर्ग है!
परन्तु भारत पर यदि हम दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ पर बहुसंख्यक वर्ग इस बात की लड़ाई लड़ रहा है कि उसे कम से कम अल्पसंख्यकों के सामान अधिकार मिले। भारत में जहां अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिम और ईसाई अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठाते हैं। उन्हें अपने विश्वास के आधार पर चर्च और मस्जिद आदि का संचालन करने की स्वतंत्रता है तो वहीं हिन्दुओं के मंदिर भी हिन्दुओं के लिए नहीं है।
बहुसंख्यक हिन्दू समाज के पास वह धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है, जो अल्पसंख्यकों के पास है। इसके साथ ही अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों की परिभाषा में भी बहुत फर्क हैं, यह भी देखना होगा कि अल्पसंख्यकों का निर्धारण कैसे होगा? इस विषय में उच्चतम न्यायालय में वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी कहा है कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों को समान धार्मिक अधिकार मिलना चाहिए।
बहुसंख्यकों के पास अपनी भाषा, संस्कृति बचाने का अधिकार हो, उन्हें अपने धर्म के अनुसार अपने स्कूल खोलने का अधिकार हो, वैदिक स्कूल खोलने का अधिकार हो। उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही किसी भी वैदिक स्कूल और मदरसे आदि में अंतर न समझें।
इतना ही नहीं अल्पसंख्यकों का निर्धारण किस प्रकार किया जाए यह भी तय नहीं है। क्योंकि नागालैंड, मिजोरम, असम, लक्षद्वीप आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, परन्तु उन्हें अल्पसंख्यकों के लिए बनी किसी भी योजना का लाभ नहीं मिलता है।
ऐसे में आरिफ मोहम्मद खान का यह कहना कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसी कोई अवधारणा भारत जैसे देश में नहीं होनी चाहिए, एक स्वागत योग्य बिंदु है और अब समय आ गया है जब इन सभी मुद्दों पर खुलकर बात हो।