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Thursday, April 18, 2024

11 जुलाई 2006, जब ट्रेन में हुए धमाकों से दहल गयी थी मुम्बई, परन्तु न्याय अभी भी दूर की कौड़ी?

यह मुंबई में एक आम दिन था, जब घंटों काम के बाद  थके हुए लोग अपने घरों को लौट रहे थे, कुछ के अपने सपने थे, तो कईयों को घर जाने की जल्दी ही रही होगी, परन्तु उस दिन कौन जानता था कि उनमे से कुछ कभी वापस लौटेंगे ही नहीं।  11 जुलाई, 2006  ही वह तारीख थी जब किसी महानगर की लाइफ लाइन कही जाने वाली परिवहन व्यवस्था पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था।

मुम्बई शहर के परिवहन की रीढ़ की हड्डी के रूप में प्रख्यात उपनगरीय (स्थानीय) ट्रेन की पश्चिमी लाइन के प्रथम श्रेणी के डिब्बों में मात्र 11 मिनट के अंदर शाम 6:24 बजे से शाम 6:35 बजे तक सात बम विस्फोट हुए, जिन्होनें 180 से अधिक लोगों को काल का ग्रास बना दिया और 700 से अधिक लोग घायल हुए। पीड़ितों में ज्यादातर अधिकारी, व्यवसायी, सरकारी कर्मचारी, निजी कर्मचारी और कॉलेज के छात्र थे।  आतंकियों ने प्रेशर कुकर में आरडीएक्स और अमोनियम नाइट्रेट बम के मिश्रण को सेट किया गया था।

ट्रेन का ट्रैक

प्रतिदिन की भांति उस दिन भी रेलगाड़ियाँ पश्चिमी रेलवे लाइन के सिटी सेंटर चर्चगेट से शहर के पश्चिमी उपनगरों तक चल रही थीं।  बम विस्फोट कई स्थानों पर किए गए थे: – खार रोड पर शाम को 6:24 पर,  जिसमें 9 लोग मारे गए, बांद्रा में 6:24 पर जहां 22 निर्दोषों की मृत्यु हुई, जोगेश्वरी में 6:25 पर जहां 28 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, माहिम जंक्शन में 6:26 बजे जहां 43 लोग इस धमाके का शिकार हुए, मीरा रोड में 6:29 पर जहां 31 लोग मारे गए, माटुंगा रोड में 6:30 बजे जहां 28 लोगों की मृत्यु हुई और बोरीवली में 6:35 पर जहां 26 लोग काल के गर्त में समा गए, और कुल मिलाकर इन धमाकों में 187 लोग मारे गए।  अस्पताल में लंबे संघर्ष के बाद दो और पीड़ितों की मौत हो गई।

हमले में शामिल हमलावर

इस हमले को पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) ने किया था जिसमें भारत में स्थानीय समर्थन दिया गया था स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया अर्थात सिमी द्वारा।  लश्कर-ए-तैयबा पाकिस्तान की कुख्यात जासूसी एजेंसी आईएसआई का एक प्रमुख संगठन है।  महाराष्ट्र संगठित नियंत्रण अधिनियम (मकोका) और अन्य कानूनों के अंतर्गत कुल 12 लोगों को दोषी ठहराया गया था।  ट्रेनों में बम रखने वाले फैसल शेख, आसिफ खान, कमाल अंसारी, एहतेशाम सिद्दीकी और नवीद खान को 30 सितंबर 2015 को मृत्युदंड दिया गया था। इस घातक विस्फोट में सम्मिलित अन्य 7 आतंकवादी थे, मोहम्मद साजिद अंसारी, मोहम्मद अली, डॉ तनवीर अंसारी, माजिद शफी, मुजम्मिल शेख, सोहेल शेख और जमीर शेख।  इन सभी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।

आतंकियों ने नेपाल और बांग्लादेश की सीमा से भारत के भीतर प्रवेश किया था। हालांकि वर्ष 2021 तक भी, मुम्बई उच्चन्यायालय में मृत्यु दंड की पुष्टि के लिए आवश्यक सुनवाई आरम्भ होनी शेष है।  आजीवन कारावास पाए हुए अधिकाँश दोषियों ने अपनी सजा के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील दायर की है।

हमले के बाद आधिकारिक बयान और आदेश

इस हमले के बाद रेल मंत्रालय ने एक नियम पारित किया कि रेलवे प्लेटफॉर्म पर गैर-यात्रियों को अनुमति नहीं दी जाएगी। महाराष्ट्र के तत्कालीन सीएम विलासराव देशमुख और रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने पीड़ितों और मरने वालों के परिवारों को कई तरह की क्षतिपूर्ति एवं नौकरी की घोषणा की थी, फिर भी कई रिपोर्ट्स अभी तक यह बताती हैं कि इनमें से कई वादों पर काम किया जाना शेष है।

 हमले के ठीक 1 सप्ताह बाद 18 जुलाई 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री एपीजे अब्दुल कलाम ने शाम 6:25 बजे एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया।  इन बम विस्फोटों से घायल मुम्बई के नागरिकों ने मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजलि अर्पित की एवं पूरी मुम्बई में सायरन भी बजाया गया।

विस्फोट में जीवित बचे लोग

इस आतंकी हमले में जीवित बचे सौभाग्यशाली लोगों में से एक व्यक्ति कलाकार महेंद्र पितले भी थे, उन्होंने बताया था  “मैं 11 जुलाई 2006 के दिन को कभी नहीं भूल सकता क्योंकि मैंने ट्रेन विस्फोट में अपना बायां हाथ खो दिया था। मुझे याद है कि मैंने ट्रेन से छलांग मारी थी। लोग घायलों को अस्पताल पहुंचाने में लगे हुए थे। चूंकि मेरा हाथ चला गया था, तो फिर  मुझे चिंता थी कि मैं कैसे काम करूंगा क्योंकि एक कलाकार के लिए दोनों हाथ महत्वपूर्ण हैं। इसलिए मैंने कंप्यूटर पर डिजाइन का काम करना शुरू किया और अब मैं एक नकली हाथ का उपयोग करता हूं”

उस समय जूनियर कॉलेज के छात्र बिनीत पाटिल ने अपने आतंक के अनुभव को साझा करते हुए कहा, “ट्रेन से कूदने के बाद मैं केवल लोगों को भागते हुए देख सकता था, किसी का हाथ टूट गया, किसी ने अपना पैर खो दिया। बोरीवली स्टेशन पर जब बम विस्फोट हुआ था तो मैं अपनी जान बचाने के लिए ट्रेन से कूद पड़ा था। इस हमले के बाद मैं किसी भी यात्रा में सहज नहीं हो पाया था, हर समय एक डर से भरा रहता था। मुझे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस डर को दूर करना पड़ा।”

वर्ष 2006 में छपाई का काम करने वाले कमल खेमका ने कहा: “मैं उस समय 36 वर्ष का था और अपने जीवन के चरम पर था।  उस समय मेरे दिल में अपने व्यापार को आगे ले जाने के लिए कई सपने थे और जीवन से कई अपेक्षाएं थीं। पर बस एक दुर्घटना और मेरे सारे सपने जलकर राख हो गए।”

इन्हीं जीवित बचे लोगों में से पराग सावंत भी थे। इन्होनें मृत्यु से कई वर्षों तक संघर्ष किया। वर्ष 2015 में 9 साल तक जीवन-मृत्यु के संघर्ष में जीवन हार गया था। जब यह हमला हुआ था तब उसकी पत्नी गर्भवती थी।  पराग 2 साल तक पूरी तरह कोमा में थे और उसके बाद अर्ध-चेतन अवस्था में थे। जब वह कोमा से बाहर आए तो उनकी पत्नी प्रीति ने कहा था कि जब उन्होंने उसे पहचाना तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था।  उस समय संसद में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उनसे मुलाकात की थी। उन्होंने इस मुद्दे पर उचित कदम न उठाने के कारण सरकार की आलोचना की।

पराग सावंत

पराग की मृत्यु के बाद, विस्फोटों की 9वीं बरसी पर एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था जिसमें इस हमले में जीवित बचे कई लोग शामिल हुए थे। न जाने कितने अभागे ऐसे थे, जिन्होनें अपनी देह का कोई न कोई अंग खो दिया था। उन्होंने लालफीताशाही के चलते हुई लापरवाही की कई कहानियाँ सुनाई और अपनी अपनी आपबीती साझा करते हुए बताया था कि उनके लिए जीवन कितना कष्टदायी रहा। कुछ ने कहा कि वे अभी भी लोकल ट्रेन से यात्रा करते समय पूरी तरह से सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से मांग की कि अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, परन्तु वह भी जांच की धीमी गति पर टिप्पणी करने से बचते दिखाई दिए थे।

निष्कर्ष

11 जुलाई 2022 को इस आतंकी हमले के पूरे सोलह वर्ष हो जाएंगे, अर्थात सोलह वर्ष से न्याय की प्रतीक्षा में लोग हैं क्योंकि अब तक आतंकवादियों को न्यायोचित दंड नहीं मिला है। लगभग 500 जीवनों एवं परिवारों को पूरी तरह से प्रभावित करने वाले वह लोग अभी भी जीवित हैं। वर्ष 1993 के सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद मुंबई में यह सबसे घातक हमला था। 7/11 के विस्फोट के बाद, रेल मंत्रियों और अधिकारियों ने कई प्रकार के नियम और क़ानून बनाए थे। केंद्र सरकार ने रेलवे स्टेशनों पर सुरक्षा कड़ी करने के लिए कई उपाय किए थे, जिनसे यह आशा की गयी कि ऐसे तमाम हमलों को रोका जा सकेगा परन्तु जो लोग इन हमलों का शिकार हुए, जिन्होनें अपने प्राण गंवाए, क्या उनके परिजनों को न्याय मिला? शायद नहीं, वह सभी प्रतीक्षा में ही हैं! यह अभी तक समझ नहीं आ रहा है कि सरकार अभी भी इन अपराधियों को खाना क्यों खिला रही है? न्यायालय द्वारा मृत्युदंड दिए जाने के 7 साल बाद भी उन्हें फांसी क्यों नहीं दी जा रही?  भारत की आर्थिक राजधानी में सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक हमले के विषय में यह प्रश्न अभी भी भी अनुत्तरित हैं।

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