15 अगस्त को जैसे ही तालिबान ने अफगानिस्तान पर अपना कब्ज़ा किया था, वैसे ही हिंदी लेखकों का एक बड़ा वर्ग तालिबान के समर्थन में आ गया था, और जिस दिन तालिबान ने प्रेस कांफ्रेंस की थी, उस दिन हिंदी प्रगतिशील लेखकों पर तालिबान का बुखार चढ़ गया था। वह उन्मादी हो गए थे, और यह कहते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर प्रश्न उठाने लगे थे कि कम से कम तालिबान प्रेस कांफ्रेंस तो कर रहा है।
फिर तालिबान द्वारा कथित रूप से औरतों को पढ़ाई का अधिकार दिए जाने पर प्रगतिशील औरत साहित्यकार खिल गईं और कहने लगीं कि यदि ऐसा हो रहा है तो यह बहुत अच्छी बात है और फिर लगे हाथों भारत में बालिकाओं के लिए चलने वाले गुरुकुलों या सरस्वती विद्या मंदिर को भी घसीट लिया था, कि यहाँ पर भी तो लड़के और लड़कियों को अलग अलग पढ़ाया जाता है।
वह “प्रगतिशीलों” का तालिबान के प्रति नया नया प्यार था। उस प्यार की सीमा इतनी विशाल हो गयी कि वह भूल गईं कि अफगानिस्तान में वह लड़कियाँ भी रहती हैं, जिनके कुछ अरमान हो सकते हैं, जिनके कुछ अधिकार हो सकते हैं। भारत में रहकर यह कथित प्रगतिशील लेखिकाएँ अपनी रचनाओं के माध्यम से इस्लामी कट्टरता को बढ़ाती रहती हैं, और वह केवल उसी स्थिति में मुस्लिम लड़कियों का समर्थन करती हैं, जब उन पर हिन्दुओं द्वारा कुछ भी होता है। मुस्लिम लडकियाँ मात्र हिन्दुओं से ही पीड़ित होती हैं, ऐसा उनका मानना है।
हाल ही में जिस तालिबान का गुण हिंदी के “प्रगतिशील” लेखक और लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग गा रहा था, उसने महिला खिलाड़ियों की हत्या तो की ही है, बल्कि साथ ही ऐसी लड़कियों की भी हत्याएं हो रही हैं, जो महिला अधिकारों के लिए काम कर रही थीं।
हमने पाठकों को बताया था कि कैसे एक महिला खिलाड़ी का सिर काट डाला गया था, उसके बाद चार महिलाओं के शव और मिले। दो दिन पहले मिले इन शवों में एक शव 29 वर्ष की ऐसी महिला का भी था, जो महिलाओं के अधिकारों के लिए कार्य करती थी और अर्थशास्त्र की लेक्चर थी। 29 वर्षीय फरोजां सैफी की हत्या उत्तरी अफगानिस्तान में कर दी गयी, जिसे तालिबान द्वारा सत्ता अधिग्रहण के बाद पहली ऐसी हत्या माना जा रहा है, जिसमें महिलाओं के लिए कार्य करने वाले की हत्या की गयी है।
फरोजां सैफी की बहन रीता के अनुसार वह 20 अक्टूबर से ही गायब थीं, उनके निर्जीव देह को मजार-ए-शरीफ के शहर में एक शवगृह में पहचाना गया। रीता के अनुसार उन्होंने अपनी बहन की पहचान उनके वस्त्रों से की थी। बुलेट्स ने उनका चेहरा बिगाड़ दिया था।
रीता ने आगे कहा कि उनकी बहन के चेहरे, दिल, छाती, किडनी और टांगों पर हर जगह गोलियां थीं और साथ ही उनके पास से उनकी मंगनी की अंगूठी और पर्स गायब था। हालांकि मीडिया के अनुसार तालिबान के सूचना और सांस्कृतिक निदेशक जैबीहुल्लाह नूरानी के अनुसार सुरक्षा बलों ने दो अज्ञात महिलाओं का शव बल्ख के प्रांतीय अस्पताल से प्राप्त किया है और यह शव उसी मकान में दो पुरुषों के शवों के साथ मिले हैं। हो सकता है कि यह निजी विवाद हो! पुलिस हालांकि इसकी जांच कर रही है।
तालिबान के आने के बाद से ही मुस्लिम महिलाओं की स्थिति दिन ब दिन गिरती जा रही है। उन्हें पढ़ने के लिए भी निकलने नहीं दिया जा रहा है। और अधिकांश कार्यालयों से महिलाओं को निकाल दिया गया है। मात्र उन कार्यों के लिए औरतें आ रही हैं, जो कार्य आदमी नहीं कर सकते हैं। आजाद ख्याल वाली मुस्लिम औरतों को चुन चुन कर मारा जा रहा है।
इतना ही नहीं जिन तालिबान की प्रशंसा के कसीदे भारत का कथित प्रगतिशील समाज कर रहा था, जो वास्तव में सबसे पिछड़ा समाज है, उसी तालिबान में अब किस्से आ रहे हैं कि कैसे कुछ पैसों के लिए, कैसे पेट भरने के लिए तालिबान के राज में लोग अपनी बेटियों को शादी के लिए बेच रहे हैं।
हालांकि परसों से एक नौ साल की नन्हीं दुल्हन का वीडियो वायरल हो रहा है, जिसे पचपन साल के अधेढ़ को शादी के लिए बेच दिया गया है। परन्तु उससे पहले भी ऐसा हो रहा था। तालिबान के सत्ता में आने के बाद यह सिलसिला और तेज हो गया है। dawn.com के अनुसार अफगानिस्तान में छह साल, डेढ़ साल तक की बच्चियों को शादी के लिए बेचा जा रहा है। कई परिवार हैं, जिन्होंने केवल अपनी बच्चियों को इसलिए शादी के लिए बेच दिया, जिससे उन्हें खाने पीने के लिए मिलता रहे!
अफ्गानिस्तान में सूखे की भी मार पड़ी है। लोगों के पास अब पैसे नहीं बचे हैं। खाने पीने के पैसों का कर्ज चुकाने के लिए भी लोग अपनी बच्चियों को बेच रहे हैं। गुल बीबी नामक महिला ने पुष्टि की कि शिविर में कई परिवार बाल विवाह कर चुके हैं, और वह भी अपनी आठ वर्ष की बेटी आशो की शादी 23 साल के युवक से कर चुकी हैं, वह लड़का अभी ईरान में है और वह उसकी वापसी का इंतज़ार कर रही है।
कई लोगों ने अपने तीन तीन बच्चियों को बेच दिया है, और अब चौथी बच्ची को भी बेचने के लिए तैयार है। फिर भी न ही कथित प्रगतिशील इस बात पर प्रश्न उठा रहे हैं कि गरीबी में इतने बच्चे क्यों पैदा करना और न ही इस्लाम की इस क्रूर कट्टर सोच पर प्रश्न कर रहे हैं कि लड़कियों को केवल बच्चे पैदा करने की मशीन बनाकर रख दिया है! आखिर इनकी प्रगतिशीलता की सीमा मात्र हिन्दू धर्म ही क्यों है?
वैसे तो भारतीय और वह भी हिंदी के कथित प्रगतिशील लेखक और लेखिकाओं का खाना ही भारत और हिन्दुओं की बुराई करके ही भरता है और साथ ही वह अपनी सुबह फ्रेश होने के लिए भी विदेशी विमर्श का रुख करते हैं, फिर भी वह तालिबान के हाथों मारी जा रही या उसके राज में बिक रही नन्हीं लड़कियों के पक्ष में नहीं बोल रहे हैं, यह हैरानी से भरा है!