कवि रूप में मधुर कविताएँ लिखने वाले राजनेता श्री अटल बिहारी वाजपेई का व्यक्तित्व भी उनकी कविताओं जैसा ही था। कभी नर्म, कभी गर्म! कभी कोमल तो कभी कठोर निर्णय लेने वाला। वह सभी के साथ हँसते थे परन्तु कुछ मुद्दों पर समझौता नहीं करते थे। उन्होंने कई बार विपक्षी दलों का मान रखा तो पोखरण में परमाणु परीक्षण के उपरांत पूरे विश्व को चकित कर दिया था। लोकतांत्रिक मूल्यों पर अडिग रहने वाले कवि हृदय राजनेता श्री अटल जी ने छल का सहारा न लेकर मात्र एक वोट से अपनी सरकार बलिदान दे दी थी।
उनका कवि एवं राजनीतिक जीवन परस्पर एक दूसरे के साथ सहज है, और समानांतर चलता है। ऐसा नहीं है कि वह कवि रूप में कुछ और हैं और राजनेता के रूप में अलग। वह हिन्दू की दृष्टि रखते हैं और लिखते ही भी हैं:
“मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।
डमरू की वह प्रलय–ध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुँआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूँ मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!”
राजनेता और कवि दोनों के ही रूप में वह भारत विभाजन से दुखी थे और उन्होंने पाकिस्तान की ओर से कारगिल युद्ध के बाद भी मित्रता का हाथ बढ़ाया था। विभाजन का दर्द उनकी कविताओं में भी बार बार झलकता है:
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को हथियार पहनाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥
उन्हें यह भी ज्ञात था कि शक्तिशाली की ही जय जय कार होती है और देश को वह शक्तिशाली बनाना चाहते थे। उनके शासनकाल में वैसे तो कई निर्णय लिए गए, परन्तु एक निर्णय जिसने देश को परमाणु संपन्न देशों की श्रेणी में ला दिया था वह था राजस्थान में पोखरण में परमाणु परीक्षण का निर्णय। और जब आज बुद्ध अफगानिस्तान में रो रहे हैं, श्री अटल बिहारी वाजपेई ने आत्म रक्षा के लिए बुद्ध को मुस्काते अनुभव किया था। 11 मई 1998 को श्री अटल जी के सरकारी निवास में आए हुए उस सन्देश को कौन भूल सकता है जिसमें पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने हॉट लाइन पर “बुद्ध फिर मुस्कराए” कहकर पूरे विश्व को चकित कर दिया था।
इस विस्फोट को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की सबसे बड़ी हार के रूप में बताया गया था, दरअसल अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए भारत की एक एक गतिविधि पर नज़र रखती थी और अरबों डॉलर खर्च कर 4 सैटेलाईट लगाए थे और इनके विषय में यह प्रसिद्ध था कि इनसे कोई व्यक्ति भी नहीं बच सकता है, फिर इतना बड़ा अभियान कैसे बच गया? वह मशीन थीं, जबकि अटल जी के अनुसार भारत एक जीवित राष्ट्रपुरुष है, फिर वह पराजित कैसे हो सकता था:
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
कवि और राजनेता श्री अटल बिहारी वाजपेई के पास कई उपलब्धियां थीं और उसमें था हिंदी को विश्व पटल पर ले जाना। जब उन्हें अवसर मिला तो वर्ष 1977 में जब वह जनता सरकार में विदेश मंत्री थे तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना पहला भाषण हिंदी में दिया था। और वह भाषण बहुत लोकप्रिय हुआ था। वहां पर उन्होंने वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा भी बताई थी।
आज उन्हें गए हुए तीन वर्ष हो गए हैं, परन्तु उन्हीं के शब्दों में:
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
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