हाल ही में ज्ञानवापी परिसर के मुक़दमे में जो शब्द बार बार मुस्लिम पक्ष बोल रहा है वह है प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट अर्थात पूजा स्थल अधिनियम। बहस इस बात पर हो ही नहीं रही है कि वहां पर कोई शिवलिंग या पूजा स्थल है या नहीं, बहस इस बात पर हो रही है कि पूजास्थल अधिनियम के अनुसार ऐसा नहीं किया जा सकता?
यह पूजास्थल अधिनियम क्या है क्योंकि उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने इस अधिनियम के विरुद्ध याचिका डाली हुई है, जिसमें उन्होंने कई मुद्दों को लेकर इस क़ानून की वैधता को ही चुनौती दी है। उन्होंने अपनी याचिका में इस क़ानून को पक्षपाती बताया है।
मुस्लिम पक्ष का कहना बार बार यही है कि प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के अनुसार उनका अधिकार है। अब प्रश्न यह उभर कर आता है कि प्लेस ऑफ वर्शिप अधिनियम आखिर ऐसा क्या कहता है कि वह हिन्दुओं के आराध्यों के स्थलों को विधर्मियों को सौंप दे?
किसने लागू किया था यह अधिनियम
वर्ष 1991 में नरसिम्हा राव की कांग्रेस की सरकार ने इस अधिनियम को लागू किया था। और इसमें लिखा है कि 15 अगस्त 1947 से पहले जो भी किसी इमारत का धार्मिक स्ट्रक्चर है उसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। अर्थात मुग़ल काल में काशी, मथुरा आदि समेत जो कई और मस्जिदें हैं, जिन्हें हिन्दुओं के मंदिरों पर बनाया गया है, उन्हें वापस लेने के लिए हिन्दू धर्म कोई पहल नहीं कर सकता है।
इतिहास में दर्ज हैं सैकड़ों मंदिरों को तोडा जाना
सीताराम गोयल की पुस्तक “हिन्दू टेम्प्लेस- व्हाट हैपेण्ड टू देम” में उन हजारों मंदिरों की सूची और विवरण है जिन्हें तोडा गया था। और उन्हें किसी राजनीतिक आधार पर नहीं तोडा गया था, बल्कि उन्हें तोड़ा गया था विशुद्ध मजहबी घृणा के चलते। जो मजहबी घृणा अरब से चलकर इधर आई थी।

गजनवी द्वारा मंदिरों के विध्वंस के बाद लगातार अवसर पाकर मंदिर फिर बनते रहे और मुस्लिम शासक उन्हें तोड़ते रहे। एक दौर था, जिसमें हिन्दुओं ने निरंतर विरोध किया और अवसर पाने पर अपने मंदिर वापस लिए।
फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस सरकार ने हिन्दुओं, बौद्ध,, जैन सिखों आदि के लिए यह रास्ता ही बंद कर दिया कि वह अपने मंदिर वापस ले सकें? हाल ही में पंजाब में गुरु की सराय को अचानक से ही मस्जिद में बदल दिया है। इस पर प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की बात नहीं की जा रही है? जबकि वह कोई ऐतिहासिक बात भी नहीं है।
और वहीं काशी और मथुरा जैसे मन्दिर, जहाँ पर हिन्दुओं के आराध्य स्वयं प्रकट हुए, वहां पर इस प्रकार की बातें की जा रही हैं।
यह ऐतिहासिक रिकार्ड्स हैं कि औरंगजेब ने काशी, सोमनाथ और मथुरा के मंदिर तुडवाए थे। यदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब, मेनली बेस्ड ऑन पर्शियन सोर्सेस में लिखते हैं कि
“औरंगजेब ने अपना हिन्दू घृणा का अभियान दुसरे तरीके से आरम्भ किया, उसने पहले बनारस के पंडितों को एक पत्र लिखा कि उसे नए मंदिरों से आपत्ति है, परन्तु पुराने मंदिर वह नहीं तोड़ेगा! बादशाह बनने से पहले औरंगजेब ने गुजरात में एक नए बन रहे मंदिर में गाय काटकर अपवित्र किया था और उसे मस्जिद में बदल दिया था।
उसके बाद उसने अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में यह आदेश दिया कि काफिरों के सभी मंदिरों को तोड़ डाला जाए। और उन मंदिरों में सोमनाथ का मंदिर, काशी विश्वनाथ का मंदिर और मथुरा का कृष्ण मंदिर सम्मिलित थे, जो हिन्दुओं की आस्था के मुख्य केंद्र थे।

जब यह ऐतिहासिक रूप से दर्ज है तो हिन्दुओं को यह मन्दिर वापस लेने से रोकने के लिए क़ानून क्यों बनाया? क्या यह वैध है? आइये जानते हैं कि अश्विनी उपाध्याय ने किन मुद्दों को लेकर इसका विरोध किया है;
उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने इस क़ानून की वैधता को ही चुनौती दी है और उन्होंने इसके लिए कई आधार बताए हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
- लागू क़ानून “सार्वजनिक व्यवस्था” की आड़ में बनाया गया है, जो राज्य का विषय है। इसी प्रकार “तीर्थस्थान, भारत से बाहर के तीर्थस्थानों को छोकर” भी राज्य का विषय है। अत: केंद्र के पास इस क़ानून को लागू करने की क्षमता नहीं है।
- क्योंकि यह लागू क़ानून प्रभु श्री राम की जन्मभूमि को तो अपने दायरे से बाहर करता है और प्रभु श्री कृष्ण जन्मभूमि की जन्मभूमि को सम्मिलित करता है, जबकि दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार है और पूरी दुनिया में दोनों की पूजा की जाती है। अत: यह धारा 14-15 का उल्लंघन करता है।
- यह क़ानून इसलिए भी अवैध है क्योंकि इसमें हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख समुदाय को जो धारा 25 के अंतर्गत अपने धर्म की प्रार्थना करने, उसका पालन करने और प्रचार करने की मूलभूत आजादी दी गयी है, उसे जानबूझकर छीन लिया गया है।
- क्योंकि यह कानून हिन्दुओं, जैनों, बौद्धों, सिखों को धारा 26 के अंतर्गत मिले हुए अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसके अनुसार वह पूजा और तीर्थयात्रा के स्थानों का प्रबंधन, रीस्टोर, प्रशासन और रखरखाव कर सकते हैं।
- क्योंकि जब इसे लागू किया गया, उस समय हिन्दू क़ानून संविधान द्वारा लागू किया गया था।
और जो सबसे महत्वपूर्ण आधार उन्होंने दिया वह है कि
- क्योंकि मस्जिद उन्हीं इमारतों को कहा जा सकता है, जिन्हें इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार बनाया गया हो और यह सभी मस्जिदें इस्लामिक क़ानून में बताए गए प्रावधानों के अनुसार बनी हैं, इसलिए इन्हें मस्जिद नहीं कहा जा सकता है। इसलिए मुस्लिम किसी भी स्थान को तब तक मस्जिद नहीं कह सकते हैं जब तक कि उसे इस्लामिक क़ानून के अनुसार न बनाया जाए। और देवता की संपत्ति देवता की ही रहती है फिर चाहे किसी ने भी उसका गैर कानूनी स्वामित्व किया हो!
- क्योंकि इसका क्रम संख्या 4 इस अवधारणा का उल्लंघन करता है कि “मंदिर की संपत्ति कभी भी नहीं खोती है फिर चाहे इसका उपभोग हजारों सालों तक कोई भी करता रहे, यहाँ तक कि राजा भी मंदिरों को उनकी संपत्ति से बेदखल नहीं कर सकता है। जो अनंत अविनाशी की प्रतिमा है, उसे किसी भी स्थिति में समय के झटकों से मिटाया नहीं जा सकता है।
- क्योंकि मंदिर की भूमि पर बनी मस्जिद इसलिए मस्जिद नहीं हो सकती है क्योंकि यह केवल इस्लामिक क़ानून के ही खिलाफ नहीं है, बल्कि इस आधार पर भी कि देवता की संपत्ति देवता और भक्तों की होती है और वह कभी नहीं खोती है।
इसके साथ ही उन्होंने और भी कई आधार बताए हैं, जिनके आधार पर इस क़ानून को निरस्त किये जाने का अनुरोध किया है। जिस क़ानून की मुस्लिम पक्ष बार-बार दुहाई दे रहा है, उसी वैधता स्वयं न्यायालय के सम्मुख लंबित है क्योंकि यह कानून व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को ही छीन लेता है और वह अधिकार है न्याय का अधिकार!
क्या किसी भी समुदाय के पास यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि एक समय में जब उनकी संपत्ति किसी ने छीन ली या अतिक्रमण कर लिया है, तो वह उसे वापस मांग सकें? भारत के मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गयी हैं, परन्तु इतिहासकार और साहित्यकार एवं फ़िल्में झूठ परोसती हुई आईं और एक अलग ही समानान्तर दुनिया उन्होंने बना दी, जो सत्य से एकदम परे थी। क्या सदियों से पीड़ित समुदाय सदा पीड़ित ही रहेगा?
अब जब झूठ के छिलके उतर रहे हैं, तो वह समझ नहीं पा रहे कि कहाँ मुंह छुपाएँ!
ऐसे में अश्विनी उपाध्याय की यह याचिका इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह हिन्दुओं, जैन, सिख, और बौद्ध सभी धर्मों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए बात करती है और ठोस कदम उठा रही है!
मुस्लिम पक्ष इस बात को लेकर शर्मिंदा नहीं है कि वह अपने इस्लामिक क़ानून का ही पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि वह केवल भारतीय क़ानून जिसकी वैधता को चुनौती दी गयी है, के आधार पर बहस कर रहे हैं, जो उनकी बेशर्मी, थेथरई और ढिठाई को दिखाता है!