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Tuesday, October 15, 2024

प्लाज्मा थेरेपी, कोरोना उपचार, और आत्महीनता बोध

पिछले महीने जब पूरे भारत में प्लाज्मा और रेमेदेसिवर इंजेक्शन के लिए एसओएस आदि शोर मचाकर पूरे विश्व में भारत को बदनाम किया जा रहा था और विदेशी हिन्दुफोबिक मीडिया जलती चिताएं दिखा रहा था, उसी समय बार बार यह कहा जा रहा था कि रेमेदेसिवर इंजेक्शन की जरूरत सभी मामलों में नहीं है, परन्तु फिर भी इस इंजेक्शन को जैसे रामबाण माना गया और जमकर इसकी कमी को भुनाया गया।

यहाँ तक कि जिस विश्व स्वास्थ्य संगठन का प्रमाणपत्र आयुर्वेद के लिए माँगा जा रहा था और माँगा जाता है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन पिछले वर्ष ही यह घोषणा कर चुका था कि ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है कि रेमेदेसिवर इंजेक्शन कोविड के रोगियों को बेहतर करता है

और विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह अनुशंसा कोविड 19 के लिए क्लीनिकल देखभाल पर एक लिविंग गाइडलाइन का एक हिस्सा थी। इसे एक अंतर्राष्ट्रीय गाइडलाइन डेवलपमेंट ग्रुप द्वारा विकसित किया गया था, जिसमें 28 क्लीनिकल विशेषज्ञ, 4 पेशेंट पार्टनर और एक धार्मिक व्यक्ति / ethicist शामिल थे। इन दिशानिर्देशों का विकास गैर-लाभ मैजिक एविडेंस इकोसिस्टम फाउंडेशन (मैजिक) के साथ सहयोग में किया गया था, जो पद्धतिपरक सहयोग देती है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब विश्व स्वास्थ्य संगठन यह बोल रहा है कि इस इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं है, और डॉक्टर्स भी यही बोल रहे हैं, तो अचानक से सभी को यह इंजेक्शन क्यों आवश्यक हुआ और सबसे मजे की बात यही रही कि जिन मरीजों को नकली रेमेदेसिविर इंजेक्शन लगा, उनमें से 90% लोग ठीक हो गए। यह भी एक मज़ाक सा ही था!

यह खबर कहीं न कहीं यह संकेत करती है कि एल्योपैथी में भी इस वायरस को लेकर प्रयोग ही अभी हो रहे हैं। एवं बहुत कुछ अभी अनजाना है। हालांकि यह भी सच है कि भारत ने अपने सीमित चिकित्सीय ढाँचे के बावजूद इस रोग पर काबू पाने में सफलता प्राप्त की है। यदि सभी चिकित्सा पद्धतियाँ साथ होंगी, जिनमें आयुर्वेद इम्युनिटी मजबूत करने में सहायक है तो आधुनिक चिकित्सा रोग का पता लगाने में तथा टीका खोजने में श्रेष्ठ है तो शायद और बेहतर प्रबंधन हो सकेगा!

पिछले लेख में हमने पढ़ा था कि कैसे कोरोनिल के लॉन्च पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने आपत्ति दर्ज की थी कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को “भ्रामक दवा कोरोनिल” के प्रचार से दूर रहना चाहिए था।  यह तो आयुर्वेद या कहें पारंपरिक हिंदुत्व से घृणा की बानगी भर थी।  दिसंबर 2020 में डॉ. जॉनरोज़ ऑस्टिन जायलल को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।  इंडियन मेडिकल एसोसिएशन देश में स्वास्थ्यकर्मियों की सबसे बड़ी पेशेवर संस्था है। इसका गठन सोसाइटीज एक्ट ऑफ इंडिया के अंतर्गत वर्ष 1928 में हुआ था और इसमें पूरे देश में 3 लाख सदस्य डॉक्टर हैं और साथ ही इसकी 1700 सक्रिय स्थानीय शाखाएं हैं।

हाल ही में डॉ जॉनरोज़ ने एक अमेरिकी ईसाई प्रचारक समाचार आउटलेट क्रिश्चियन टुडे को एक साक्षात्कार दिया था।  यह साक्षात्कार पाठकों को पढ़ा जाना अत्यंत आवश्यक है।  क्योंकि कुछ बातें बहुत ही विस्फोटक हैं।  क्योंकि देश के सबसे ताकतवर मेडिकल सलाहकार समूह का नेतृत्व करने वाला कोई भी व्यक्ति अस्पतालों या मेडिकल कॉलेज जैसे धर्मनिरपेक्ष स्थानों का प्रयोग मेडिकल स्टूडेंट्स, डॉक्टर्स और मरीजों को ईसाई बनाने में कर सकता है।

हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु है और वह जीसस और इस्लाम के पैगम्बर का भी उतना ही आदर करता है, ऐसा इनका स्वयं मानना है और वह इस साक्षात्कार में यह कहते हैं। अर्थात हिन्दू समाज सहिष्णु है। परन्तु एक ईसाई डॉक्टर होने के नाते डॉ जॉनरोज आयुर्वेद को लेकर सहज नहीं है क्योंकि उनके अनुसार वह धार्मिक है।  आयुर्वेद को लेकर एक प्रश्न पर उनका कहना था कि “भारत सरकार हिंदुत्व में अपने परम्परागत विश्वास एवं सांस्कृतिक मूल्यों के कारण आयुर्वेद में विश्वास करती है। पिछले तीन या चार सालों में उन्होंने आधुनिक दवाइयों को इस परम्परा से बदलने का प्रयास किया है।

अब वर्ष 2030 से आपको आयुर्वेद के साथ साथ यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी, योग और नैचुरोपैथी के विषय में पढ़ना होगा। और वह एक राष्ट्र एवं दवाइयों के एक सिस्टम को बनाना चाहते हैं।  और यह संस्कृत विषय पर आधारित है, जिसमें अधिकतर हिन्दू सिद्धांत होते हैं। तो यह भारत सरकार की मंशा है कि वह सभी पर संस्कृत भाषा और हिंदुत्व की भाषा लाद दे।”

जिस भाषा से वह इतना चिढ़ते हैं, वह विज्ञान और चिकित्सा दोनों को ही साथ लेकर चलती है। हिन्दुओं में चिकित्सा का उल्लेख वेदों से ही प्राप्त होता है। अर्थववेद संहिता में तो गर्भ संरक्षण के लिए भी प्रार्थना की जाती थी और इस सम्बन्ध में 26 मन्त्रों का पूरा एक सूक्त उपलब्ध है। वैदिक संहिताओं में नारी नामक पुस्तक में अर्थववेद में गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में औषधियों के विषय में उल्लेख है. इसमें लिखा है कि अर्थववेद में गर्भवती स्त्री से कहा गया है कि “तुमने जिस गर्भ को धारण किया है, वह स्थिर रहे और तुम्हारे अधोवस्त्र में बंधी यह औषधि उसकी रक्षा करे.”

“परिसृष्ट धारयतु यद्धित भावपादि तत

गर्भ त उग्रौ रक्षता भषजो नीविभार्या! (अर्थववेद 8/6/20)

वैदिक संहिताओं में नारी-डॉ. मालती शर्मा

फिर इसमें लिखा है कि गर्भ की रक्षा हेतु प्रयुक्त औषधियों में वच औषधि सर्वाधिक प्रचलित थी. गर्भ की रक्षा हेतु श्वेत पीत सरसों का प्रयोग होता था. तत्कालीन समाज का विश्वास था कि सरसों का प्रयोग गर्भ की रक्षा करता है।

परन्तु चूंकि शायद डॉ जॉनरोज़ हिन्दुओं जितने सहिष्णु नहीं हैं तो वह यह सब देखने का प्रयास नहीं करते। उनकी दृष्टि भारतीय ग्रंथों पर जा ही नहीं पाती, वह यह नहीं जानने का प्रयास करते हैं कि हमारे धर्म में आरोग्य का वरदान तो हम मांगते ही है और आरोग्य ही परम वरदान माना गया है जो स्वयं माँ दुर्गा ने देवताओं को दिया था:

देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥

आयुर्वेद के विषय में डॉ जॉनरोज़ के विचार इसलिए अधिक हैरान करते हैं क्योंकि डॉ जॉनरोज़ का विरोध आयुर्वेद से इसलिए नहीं है क्योंकि आयुर्वेद में कोई कमी है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वह हिंदुत्व और संस्कृत से जुड़ा हुआ है। बाद में वह स्वयं इसी साक्षात्कार में स्पष्ट करते हैं कि उनकी लड़ाई इस दवाई से नहीं है बल्कि इस संभावना से है कि यह देश में दवाई या कहें उपचार की एकमात्र व्यवस्था हो जाएगी।

हालांकि ऐसी कुछ भी अभी तक सरकार की ओर से बात नहीं हुई है। क्योंकि हर चिकित्सा पद्धति की अपनी विशेषता के कारण आधुनिक चिकित्सा के स्थान पर आयुर्वेद लाना असंभव है! फिर भी इस बात से एक प्रश्न उठता है कि क्या कथित आधुनिक चिकित्सा शास्त्र इतना कमज़ोर है कि उसमें आयुर्वेद आदि के आने से उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाएगी?

जबकि कोरोना जैसी महामारी में सबसे ज्यादा मौतें उन्हीं देशों में हुई हैं जहाँ पर आधुनिक या पश्चिमी चिकित्सा व्यवस्था है। पिछले दिनों डीआरडीओ ने कोविड -19 के लिए जिस 2deoxy D glucose (2 जी) के लिए आपात प्रयोग का अनुमोदन दिया है, उसका सुझाव भी सबसे पहले पतंजलि अर्थात बाबा रामदेव द्वारा ही एक शोध द्वारा दिया गया था कि 2डीजी वायरस पर सीधे आक्रमण करता है, जैसा योग गुरु बाबा रामदेव ने ट्वीट कर कहा था:

यह सब न ही आईएमए के डॉ जॉनरोज देखते हैं और न ही देखना चाहते हैं, बल्कि सबसे खतरनाक बात इससे भी बढ़कर इस साक्षात्कार में है जिसमें वह कहते हैं कि ईसाई कहीं भी कार्य करें, फिर चाहे वह रेवेन्यु विभाग हो, या कुछ और, वह जगह यह निर्धारित नहीं करेगी कि आपको कैसे ईसाई बने रहना है।  यह तो आपके साथ आपके परमेश्वर का रिश्ता है, और जब हमें पता होता है कि हमारा रिश्ता परम पिता के साथ कैसा है तो हमें पता होता है कि हम कौन हैं और हमारा मालिक कौन है?”

और वह यह भी कहते हैं कि मैं देख पा रहा हूँ कि शोषण के दौरान, फिर चाहे परेशानियों के दौरान और यहाँ तक कि सरकार द्वारा नियंत्रण के  बावजूद, भारत में ईसाई धर्म का प्रसार निरंतर हो रहा है।”

शायद उनका मजहब ही है जो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को संचालित कर रहा है क्योंकि वह कोशिश कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा ईसाई डॉक्टर आएं और मरीजों को दवाई के साथ साथ प्रेयर से भी ठीक करें।

(इस साक्षात्कार का पूरा अनुवाद हम अपने पाठकों के लिए एक दो दिनों में प्रस्तुत करेंगे)  

हालांकि हिन्दू धर्म में भी आरोग्य की प्रार्थना की गयी है, और वह जनकल्याण की भावना के साथ है, जिसमें बिना धर्म के भेदभाव के सभी के स्वस्थ रहने की कामना की गयी है, इस प्रार्थना के लिए चिकित्सा की सभी पद्धतियों को साथ चलना होगा, श्रेष्ठता बोध त्याग कर यही कामना करनी होगी:

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।

हमें स्वयं में अपनी संस्कृति, अपनी चिकित्सा पद्धति के प्रति आदर एवं सम्मान बढ़ाना है जो बार बार निरोगी रहने पर बल देती है, आत्महीनता की ग्रंथि से उबरना है, एवं आधुनिक चिकित्सा और आयुर्वेद दोनों को ही साथ लेकर आगे बढ़ना है, टीका तो लेना ही है परन्तु साथ ही योग करके निरोगी काया को भी बनाए रखना है! हर वैक्सीन को समय पर लेना है और साथ ही आयुष मंत्रालय द्वारा दी जा रही अनुशंसाओं को भी ध्यान में रखना है! 


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