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Sunday, October 6, 2024

भारत में चिताओं की तस्वीर दिखाने वाले मीडिया को अमेरिका से सीखना चाहिए

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी इन दिनों अमेरिका की यात्रा पर हैं। उनकी इस यात्रा की रिपोर्टिंग करने के लिए यहाँ के चैनल भी गए हैं। अमेरिका में कोरोना के मामले सबसे ज्यादा है और वहां पर आधिकारिक मृत्यु भी विश्व में सर्वाधिक है और आज भी सर्वाधिक मामले वहीं से आ रहे हैं। परन्तु वहां की मीडिया ने अभी तक वैसा शोर नहीं मचाया है, जैसा असहयोग और शोर भारत में मीडिया ने मचाया था।

जब कोरोना की दूसरी लहर से लोग यहाँ पर शिकार हो रहे थे, तब मीडिया यहाँ पर लाशों को दिखा दिखा कर लोगों के मन में और अधिक डर भर रहा था। दानिश सिद्दीकी द्वारा खींची गयी तस्वीरें हम सभी की स्मृति में हैं, इतना ही नहीं, गंगा किनारे शव दफनाने की जो परम्परा थी, उसे भी कोरोना काल में कोरोना से होने वाली मृत्यु के नाम पर बेचा गया। जलती चिताओं की तस्वीरें हज़ारों डॉलर्स में बेची गईं और अभी तक बेची जा रही हैं।

कोरोना की दूसरी लहर के मध्य जब एक व्यक्ति अपनी बीमारी आदि से घबराकर टीवी खोलता था, तो उसे तनाव एवं चिंता के अतिरिक्त कुछ मिलता ही नहीं था। उसके पास अवशेष शेष रहते थे और वह भी आभासी। परन्तु आभासी अवशेष ही उसे बेचैन कर देते थे। क्या मीडिया का और वह भी चौबीसों घंटे चलते रहते वाले मीडिया का यही उत्तरदायित्व था कि वह लोगों को इस प्रकार भय से भर दे। परन्तु मीडिया ने किया, और अभी भी साधारण व्यक्ति उसे स्मरण करके सिहर उठता है।

आज उस अवधि का स्मरण इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि प्रधानमंत्री की यात्रा को कवर करने वाले वही गिद्ध पत्रकार और चैनल अमेरिका में उस सफ़ेद मैदान को दिखा रहे रहे हैं, जो अमेरिकी नागरिकों की स्मृति में सफ़ेद हो गया है, अर्थात हरे मैदान में कोरोना पीड़ितों का एक स्मारक बना है और वहां पर जहां तक दृष्टि जाती है, वहां तक कोरोना से दिवंगत हुए नागरिकों की स्मृति में छोटे छोटे सफेद झंडे हैं। उन पर लोगों ने अपने प्रिय जनों को सन्देश लिखे हुए हैं।

शांति से मृत्यु, एवं मृत्यु के उपरान्त सम्मानजनक निजता, सभी का अधिकार है। परन्तु भारत की मीडिया ने कोरोना पीड़ितों से और उनके परिवारों से यह अधिकार छीन लिया था। दरअसल पत्रकारिता का अर्थ भारत में एक्टिविज्म समझ लिया जाता है, जिसमें अनावश्यक क्रांति आवश्यक है। परन्तु पत्रकारिता का अर्थ एक्टिविज्म नहीं होता है और हो ही नहीं सकता है। पत्रकारिता का अर्थ उन्माद फैलाना नहीं होता है, जैसा कोरोना काल के मध्य भारतीय मीडिया ने किया। और कई बार तो सरकार का विरोध कर रहे न जाने कितने पत्रकारों ने झूठी ही तस्वीरें लगाईं।

विदेशी मीडिया की बात यहाँ करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि जब भारतीय मीडिया ही अपने देश का सम्मान नहीं करेगा, तो विदेशी मीडिया को नहीं रोका जा सकता है। हालांकि न्यूयॉर्क टाइम्स ने जिस तरह भारत में जलती चिताओं की तस्वीरें दिखाईं, अमेरिका की नहीं दिखाई हैं।

पंडित जवाहर लाल नेहरू पत्रकारिता को वह माध्यम मानते थे जिसके माध्यम से राष्ट्रीयता का चिंतन किया जा सके और न्याय विरुद्ध शक्तियों को अवरुद्ध कर नए राष्ट्र निर्माण का मार्ग सशक्त किया जा सके।”

पाण्डेय बेचन शर्मा “उग्र” पत्रकारों के विषय में क्या कहते हैं, यह ध्यान देना चाहिए। वह कहते हैं कि “मेरी राय में पत्रकार बनने से पूर्व व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि यह मार्ग त्याग का है, जोड़ का नहीं। जिस भाई या बहन को भोग विलास की लालसा हो, वह और धंधा करे। रहम करे”

परन्तु जिस प्रकार से पत्रकारों ने भारत में जलती चिताओं की ख़बरें बेचीं उससे यह तनिक भी नहीं पता चला कि वह राष्ट्र निर्माण का मार्ग सशक्त करने के लिए कुछ कर रहे हैं या पैसे के लालच में नहीं कर सकते हैं, क्योंकि गेटी इमेज पर कई लोगों के परिवारी जनों की तस्वीरें भी 23,000 रूपए तक में बिक रही हैं।

https://www.gettyimages.in/detail/news-photo/relatives-and-family-members-of-a-person-who-died-of-covid-news-photo/1232343570?adppopup=true

दानिश सिद्दीकी ने भी जलती चिताओं की तस्वीर खींचीं थीं, जो मीडिया आज अमेरिका में जाकर उन श्वेत धवल झंडों में भावनाएं देख रहा है, क्या वह उस समय देश की सरकार या देश के नागरिकों के साथ खड़ा हुआ था, यह कहने के लिए कि यह भी एक दौर है बीत जाएगा, हम आपके साथ हैं। परन्तु यहाँ पर व्यक्तिगत तस्वीरें ही बेची जा रही हैं!

क्या यदि केवल ऑक्सीजन की कमी, या बेड के कारण मृत्यु हो रही थीं भारत में, तो अमेरिका जैसे सुपरपावर देश में क्या हुआ?

आज भी अमेरिका के किसी भी कब्रिस्तान की तस्वीरें बाहर नहीं आई हैं, आया है तो वह भाव कि किसी भी आपदा में लड़ने के लिए साथ है देश। काश कि मीडिया उस समय भी यही दिखाता कि इस समय पूरा विश्व ही एक आपदा से लड़ रहा है, सारा विश्व एक साथ मिलकर ही आगे बढ़ सकेगा, और कितना अच्छा होता कि यदि विश्व के हर हिस्से का दर्द साझा किया गया होता तो दर्द और संवेदना के तंतुओं से देश परस्पर जुड़ते और इसमें माध्यम बनता मीडिया, पर दुखद यह है कि ऐसा नहीं हुआ, भारत के लिए घरेलू और विदेशी मीडिया के मापदंड अलग रहे और अमेरिका के लिए अलग!

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