कश्मीर में कट्टर इस्लामी आतंकवाद दोबारा दस्तक देता लग रहा है जिसमें पिछले तीन दिनों में पांच हत्याएं हो चुकी हैं। यह लक्ष्य बनाकर की गई हत्याएं हैं। पर हमारा बुद्धिजीवी वर्ग इन लक्षित हत्याओं के मुख्य कारण पर चुप है। वह केवल आतंकवाद की निंदा कर रहा है, पर कौन सा आतंकवाद? किस तरह का आतंकवाद? किसने मारा है? इन सब पर अत्यंत सुविधाजनक चुप्पी है। उनके लिए चुप रहना और अपने दायरे में सिमट जाना बहुत ही सहज है। इतना सहज कुछ हो नहीं सकता। वह चुप रहना ही पसंद करते हैं।
जैसे जबरन मतांतरण पर चुप रहना पसंद करते हैं, उसे व्यक्तिगत पसंद का मामला बता देते हैं, पर जब कोई ईसाई या इस्लाम से मूल धर्म अर्थात हिन्दू में वापस आता है तो उन्हें समस्या होती है और असहिष्णुता पैदा हो जाती है। खैर, अब इससे एक कदम आगे चलते हैं। हाल ही में अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा सत्ता संभालने के बाद सर्वाधिक हर्षित बुद्धिजीवी वर्ग इन दिनों तालिबान पर कुछ बोल नहीं रहा।
क्यों नहीं बोल रहा, क्योंकि तालिबान द्वारा प्रेस कांफ्रेंस किए जाने पर तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी को कोसना आरम्भ कर दिया गया था। मगर मजे की बात यह है कि तालिबान ने गुरुद्वारे में हमला किया, अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में गुरुद्वारा कार्ते परवान पर तालिबानियों ने हमला किया और वहां पर तोड़फोड़ की।
इससे पहले तालिबान ने एक हिन्दू व्यापारी का अपहरण कर लिया था, जिसे एक सप्ताह बाद मोलभाव के बाद अपहरणकर्ताओं ने छोड़ा।
मगर तालिबान की वापसी का जश्न मनाते बुद्धिजीवियों ने इन सभी घटनाओं पर चुप्पी साध ली। आज अफगानिस्तान में शिया मस्जिद में नमाज पढ़े जाते समय धमाका हुआ, मीडिया के अनुसार मरने वालों का आंकड़ा दहाई में है और सैकड़ों की संख्या में लोग घायल है। परन्तु समानता की बातें करने वाले कट्टरपंथी जो, लोग हिन्दुओं में सूक्ष्मदर्शी लेकर जातिगत भेद खोजते रहते हैं, वह अफगानिस्तान में होने वाले शिया और हजारा समुदाय पर तो मौन रहते ही हैं, पर साथ ही वह भारत में रहने वाले पसमांदा मुसलमानों पर अशराफ द्वारा किए जाने वाले भेदभावों के प्रति भी मुंह सिये रहते हैं।
हाल ही में एक चर्चा में पसमांदा आन्दोलन से जुड़े हुए लोग डॉ. फैयाज़ अहमद ने अशराफ द्वारा किए जा रहे भेदभाव पर बात की थी। डॉ. फैयाज ने प्रश्न किए थे कि आखिर क्यों अशराफ को ही मुस्लिमों का प्रतिनिधि मान लिया जाता है और उन्होंने खुलकर कहा था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जिसे मुस्लिमों की प्रतिनिधि संस्था कहा जाता है, उसमें एक भी पसमांदा नहीं है। और साथ ही उन्होंने पर्सनल लॉ बोर्ड की किताब दिखाते हुए कहा था कि इस किताब में साफ लिखा हुआ है कि किसकी शादी किससे की जानी चाहिए, और किससे नहीं।
डॉ फैयाज़ ने कहा कि धारा 370 का हटना और तीन तलाक दोनों ही पसमांदा के लिए फायदेमंद फैसले थे क्योंकि धारा 370 हटने के बाद पसमांदा अर्थात पिछड़े मुसलमानों के लिए नौकरी के अवसर खुले हैं।
लेकिन सबसे मजेदार इसमें रहा था, खुद को मुसलमानों का और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक कहने वाली आरफा खानम शेरवानी अपने ही पसमांदा वर्ग की बात सुनने की भी सहिष्णुता का परिचय नहीं दे पाईं। आरफा ने डॉ फैयाज़ के सवालों के जबाव देना भी उचित नहीं समझा।
आरफा की इतनी असहजता का कारण क्या हो सकता है? क्या वास्तव में भारतीय मुसलमानों में विदेशी और भारतीय मूल के मुसलमानों को लेकर भेदभाव है और यह भेदभाव इतना गहरा है कि एक अशराफ, एक पसमांदा की बात तक नहीं सुन सकता? यह कैसा सामाजिक न्याय है? यही बात डॉ फैयाज ने उठाई थी।
डॉ फैयाज ने कहा कि हिन्दू ओबीसी पर बात करने के लिए तो अशराफ चले जाते हैं, मगर अपने ही पसमांदा लोगों के लिए किसी भी प्रकार के सामाजिक न्याय की बात नहीं करते। और उन्होंने यह भी कहा कि यह कहकर नहीं बचा जा सकता है कि यह मुसलमानों का आपसी मामला है, क्योंकि ऐसा नहीं है।
मुसलमानों पर अशराफ अर्थात विदेशी मुसलमानों के शासन पर जैसे ही डॉ फैयाज ने बात करनी शुरू की तो वैसे पहले तो आरफा असहज हुईं और फिर बाद में वह शो छोड़कर चली गईं। ऐसा क्यों? क्या आरफा अपने ही पसमांदा समुदाय के प्रतिनिधि से यह नहीं सुन पाईं कि पसमांदा भी इन्सान हैं? हिन्दू धर्म में भेदभाव की बात करने वाला अशराफ वर्ग अपने ही पसमांदा समुदाय की बात सुनसे से परहेज क्यों करता है?
क्यों वह खुद को आईना दिखाए जाने से डरता है या फिर पसमांदा समुदाय के कारण उनकी विदेशी गुलामी सभी के सामने आ जाती है? कुछ तो है! कुछ तो ऐसा है जिसे अशराफ समुदाय छिपाना पसंद करता है और पसमांदा के विषय में बात नहीं करता है।
डॉ फैयाज ने सच्चाई बताई तो आरफा के साथ साथ उस बड़े बुद्धिजीवी वर्ग को भी असहज होना चाहिए जो पसमांदा वर्ग को मुसलमान तो क्या इंसान तक नहीं मानता है तभी उनकी समस्याओं को उठाने के स्थान पर आरफा खानम शेरवानी या फिर राणा अयूब को ही मुस्लिम औरतों का प्रतिनिधि मानता है और तीन तलाक का कानूनी युद्ध लड़कर जीत हासिल करने वाली औरतों को वह सच्चा मुसलमान नहीं मानता है!
जबकि हिन्दू स्त्रियों को उस आज़ादी के लिए यही मुस्लिम फेमिनिस्ट भड़काती रहती हैं, जो आज़ादी यह अपने ही पसमांदा समुदाय की औरतों को नहीं देना चाहती हैं! वह हिन्दू स्त्रियों को मंगलसूत्र तक के लिए भड़काती रहती हैं, पर कभी अपनी ही बहनों को बुर्के से बचाने की कोशिश नहीं करतीं, बल्कि यह उस पर बात ही नहीं करना चाहती हैं!
यह दोगली औरतें गुलाम मानसिकता से भरी हुई हैं और अपने अस्तित्व को पहचान दिलाने के लिए खुद को भारतीयों से अलग करती हैं, इसे के साथ इसी वर्ग में वामपंथी फेमिनिस्ट हैं, जिन्हें कट्टर इस्लामी जगत एवं वाम ईसाई समुदाय से प्रमाणपत्र चाहिए, तभी वह इस्लामी भेदभाव के बारे में बोलने का साहस नहीं करती हैं और हिन्दू स्त्रियों को इस्लामी गुलाम बनाने लग जाती हैं!