क्या भाजपा के लिए उसके अपने समर्थक या मतदाता मात्र वोट देने के लिए और उन्हें सत्ता तक ही पहुंचाने के लिए है और उसके बाद उनलोगों के लिए रास्ता खुल जाता है जो भाजपा के विरोधी हैं और भाजपा के बहाने भगवा एवं हिंदुत्व को कोसना जिनका सबसे बड़ा धर्म है और जिनकी दृष्टि में भाजपा के समर्थक भक्त हैं? यह प्रश्न वैसे तो समय समय पर उठते रहे हैं, परन्तु हाल फिलहाल तीन निर्णयों के कारण यह और उठे हैं।
पहला निर्णय था हिन्दू विरोधी और #metoo के आरोपी रहे सेक्युलर पत्रकार विनोद दुआ की बेटी को बिना मांगे सरकार के एक मंत्री द्वारा मदद प्रदान किया जाना। यद्यपि इस आपदाकाल में मदद या सहायता के लिए दल या विचार देखा जाना मानवता के सिद्धांतों से परे है, परन्तु यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जिनके लिए सहायता दी जा रही है, क्या उन्होंने आपसे सहायता मांगी है और उनका दृष्टिकोण देश के प्रति कैसा है? कथित कॉमेडियन मल्लिका दुआ जिन्होनें खुले आम भक्तों अर्थात भाजपा समर्थकों के मरने की दुआएं माँगी थीं।
*वीडियो opindia से लिया है!
उन्होंने अपनी माता के लिए ट्विटर पर मदद की गुहार लगती और मजे की बात कि उन्होंने कांग्रेस के दीपेन्द्र हुड्डा को टैग किया था और उन्होंने भाजपा के किसी भी नेता को टैग नहीं किया था। फिर भी केंद्र सरकार में उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने मल्लिका के ट्वीट का उत्तर देते हुए सहायता की। हालांकि बाद में विवाद होता देखकर उन्होंने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया, पर यहाँ पर कई प्रश्न उठते हैं कि भाजपा की सरकार में उनके लिए प्राथमिकता कौन हैं? क्या उनके लिए उस विनोद दुआ का परिवार प्राथमिकता है जो भाजपा का ही नहीं बल्कि पूरे हिंदुत्व की विचारधारा का विरोधी है और वह मल्लिका दुआ जो भाजपा के समर्थकों के मरने की दुआ मांग चुकी हैं।
चलिए भाजपा समर्थकों को छोड़ भी दें तो यही मल्लिका दुआ, इस बात पर आपत्ति जता चुकी हैं कि आखिर पुलवामा हमले का शोक क्यों मनाना चाहिए? रोज़ ही तो इतने लोग मरते रहते हैं, तो क्या हम अपनी ज़िन्दगी जीना छोड़ दें?
Mallika Dua ( yes, yes, defender & daughter of alleged molester Vinod Dua ) says so many people die daily due to hunger, depression etc etc.
So, why mourn martyrs ? pic.twitter.com/N2hLq2m8MB
— Suresh Nakhua ( सुरेश नाखुआ )🇮🇳 (@SureshNakhua) February 18, 2019
भाजपा सरकार के लिए क्या पुलवामा में अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान करने वाले सैनिकों के प्राणों का कोई मोल नहीं है? या अपने ही समर्थकों का आत्मसम्मान उसके लिए कोई मोल नहीं रखता? क्या भाजपा के समर्थक होने का अर्थ है अपने अपमान के लिए तैयार रहना और उन लोगों पर कोई कार्यवाही होते हुए न देखना जो देश पर प्राण न्योछावर करने वालों का अपमान करते हैं और फिर केन्द्रीय मंत्री भी उन्ही की सहायता करते हैं?
इसके बाद कल की एक और मजेदार घटना है, एनडीटीवी और पांचजन्य दोनों के पत्रकार रहे दिनेश मानसेरा का उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का मीडिया सलाहकार नियुक्त होना। दिनेश मानसेरा के एनडीटीवी में काम करने को कई लोग जस्टिफाई कर रहे हैं। और बार बार राष्ट्रवादी पत्रकार अखिलेश शर्मा का उदाहरण दे रहे हैं। परन्तु अखिलेश शर्मा एक पत्रकार हैं एवं भाजपा की बीट देखते हैं।
वहीं दिनेश मानसेरा न केवल एनडीटीवी के लिए कार्य करते हैं, वह पांचजन्य के लिए भी कार्य करते हैं। यह एक अजीब सा कॉम्बिनेशन है। क्योंकि एनडीटीवी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं हिन्दुओं के प्रति कैसे विचार रखता है, यह सभी को पता है। परन्तु कथित प्रगतिशील राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग इसी एनडीटीवी के पत्रकारों द्वारा सत्यापित होने की फिराक में रहते हैं। दिनेश मानसेरा गर्व से मीटू अर्थात स्त्री के यौन शोषण के आरोपी विनोद दुआ के साथ अपनी तस्वीर साझा करते हैं।
क्या यह भाजपा या संघ के स्तर पर आत्महीनता का बोध है या फिर हिन्दुओं के स्तर पर? यह एक प्रश्न है! यहाँ पर संघ का प्रश्न गौड़ हो जाता है क्योंकि दिनेश मानसेरा एक जागरूक पत्रकार होने के नाते हिन्दुओं के कुम्भ पर तो प्रश्न उठाते हैं, परन्तु वह ईद पर प्रश्न नहीं उठाते। बल्कि उनके प्रदेश में ईद कैसे मनाई गयी उसपर भी नहीं लिखते। उनके दाज्यू बोले हिन्दुओं के विषय में बहुत बोलते हैं, परन्तु निष्पक्ष दाज्यू कभी भी उन मुद्दों पर बात नहीं करते, जिन पर की जानी चाहिए या जो असुविधाजनक प्रश्न हैं। और ऐसे ही लोग भाजपा की सरकार में पद भी पा जाते हैं?
यह सुविधाजनक पत्रकारिता है! खैर! कल से उन्हें बधाई देने वाले हिन्दू समाज के लोगों से भी मेरा प्रश्न है कि आखिर आपको ऐसे व्यक्ति से प्रमाणपत्र लेने की आवश्यकता क्यों होती है जो कभी खुलकर आपके हितों के लिए आवाज़ नहीं उठाता? जो कभी आपके मुद्दों पर आपके साथ नहीं होता? जो कभी आपके त्योहारों के पक्ष में नहीं आता?
यह प्रश्न तो स्वयं से करना ही होगा! क्योंकि यदि अधिक क्रोध होगा तो यही कहा जाएगा कि ठीक है अबकी बार भाजपा को वोट नहीं देंगे? और जब यह क्रोध अपने हितों के लिए उदासीन हो जाता है और क्षेत्रीयता के आधार पर विभाजित हो जाता है तो इसका परिणाम पश्चिम बंगाल जैसा होता है। अर्थात हिन्दुओं का वध और पलायन! परन्तु जब वह हिन्दुओं के आधार पर वोट देता है तो परिणाम होता है असम!
यह प्रश्न तो स्वयं से पूछा जाना चाहिए कि क्यों हम दिनेश मानसेरा जैसे लोगों को आदर्श मान लेते हैं, जिनके दो या अधिक चेहरे हैं, जिसमें एक तरफ वह थाल सेवा चलाते हैं तो वहीं दूसरी ओर अपने लिट्फेस्ट में एक ऐसी कविता पर वाहवाही करवाते हैं, जिसमें हिन्दू धर्म को कातिल ठहरा दिया गया है। हल्द्वानी में आयोजित किए गए लिट्फेस्ट में उन्होंने हृदयेश जोशी को आमंत्रित किया था। और वामपंथी पत्रकार हृदयेश जोशी ने उन दिनों चर्चा में रहे कठुआ कांड में बच्ची पर लिखी गयी एक अंग्रेजी कविता का हिंदी अनुवाद सुनाया था।
और तथ्यगत ही गलतियाँ की थीं, हमारे देवी देवताओं को उस मासूम का कातिल सा बना दिया था। क्या इनमें से किसी की भी हिम्मत होगी कि वह मस्जिद या चर्च में होने वाले बलात्कार को उनके रिलिजन से जोड़कर देख सके या लिख सके कुछ भी अपमानजनक?
परन्तु हमारे सामने हमारे ही धर्म पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं और हम सुनते हैं, क्योंकि वह मामला तो जम्मू में हुआ था। जम्मू के किसी देव का दिल्ली या उत्तरप्रदेश से क्या मतलब? हम स्वयं को जोड़ क्यों नहीं पाते? क्यों ऐसा नहीं हो पाता कि पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक हिन्दू की बात हो? कश्मीरी हिन्दुओं के साथ जो हुआ हमने देखा और उसे भुला दिया, और आज वही पश्चिम बंगाल में हो रहा है, कल वही उत्तराखंड में होगा! पर सामूहिक रूप से हिन्दू होने का बोध हममें नहीं आ पाएगा!
यही मल्लिका दुआ और यही दिनेश मानसेरा जैसे लोग उस समय भी हमें भेड़ों की तरह हांक रहे होंगे क्योंकि इन्हें अपनी सामूहिक शक्ति का ज्ञान है पर राष्ट्रवादी और धार्मिक हिन्दुओं को नहीं ! इनका अपना इकोसिस्टम है पर हिन्दुओं का नहीं! कथित रूप से राष्ट्रवादी हिन्दुओं को अपने हितों को लेकर ही स्पष्ट परिभाषा नहीं है, कि उन्हें किसका समर्थन चाहिए और किसका नहीं? आपके भीतर शत्रु एवं मित्र बोध ही स्पष्ट नहीं है।
राष्ट्रवादी हिन्दुओं को अपने लिए अनुकूल राजनीतिक दल को और अनुकूल बनाना होगा, उन्हें बार बार यह बोध कराना होगा कि उन्हें मत किसने दिए हैं, और उन्हें किसके प्रति अधिक उत्तरदायी होना चाहिए। यहाँ पक्षपात की बात नहीं हो रही है, बल्कि यह स्पष्ट किए जाने की बात हो रही है कि राष्ट्र और धर्म सर्वोपरि रहें! और यह बोध बार बार कराते रहना चाहिए, परन्तु अपने हितों को ध्यान में रखते हुए भी वृहद हितों के विषय में सोचना होगा। अतीत में झांकना होगा कि कारसेवकों पर गोली किसने चलवाईं? और फिर उन्हें वोट किसने दिए? बाबा रामदेव के नाम पर निहत्थे लोगों पर लाठीचार्ज किस सरकार ने करवाया? किस पार्टी के नेता ने यह कहा कि “मंदिरों में लड़कियां छेड़ने जाते हैं” और फिर स्वयं को दत्तादेय ब्राह्मण बताया?
और फिर उन्हें वोट देने वाले कौन थे? क्या सभी ऐसे थे जो हिन्दू नहीं थे? नहीं! उनमें भारी संख्या में हिन्दू सम्मिलित थे। फिर प्रश्न उठता है कि हमारे भीतर स्वयं को लेकर आत्मसम्मान का बोध क्यों नहीं है? क्यों “साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी” बिल लाने वाली कांग्रेस के हर पाप भूलने के लिए हिन्दू समाज तैयार हो जाता है? यह कैसी हीन भावना है?
वह किस पार्टी के लोग थे जिन्होनें बौद्धिक श्रेष्ठता के आतंकवाद को आरम्भ किया एवं राष्ट्रवादी हिन्दुओं को इस सीमा तक मानसिक रूप से निर्बल कर दिया कि वह खुद को गाली देने वालों से प्रमाणपत्र लेने लगें? ट्रेन में कारसेवकों से भरी को बोगी जलाने वाले कौन थे? और फिर उस त्रासदी का उपहास यह कहकर उड़ाने वाले कौन थे कि डिब्बे में आग तो स्वयं कारसेवकों ने लगाई थी? और फिर जरा वोट देने वालों को देखिये, कि कितने हिन्दुओं ने उस पार्टी को वोट दिए? जाहिर है कि केवल गैरहिंदू वोट से तो राष्ट्रीय जनता दल को जो वोट मिले उतने मिलने सम्भव नहीं थे।
आखिर क्या कारण है कि हम बार बार उन्हीं के पास अपनी फ़रियाद लेकर पहुँच जाते हैं जो हमारे साथ दशकों से कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर छल करते हुए आए हैं और अपने हितों के साथ जहां सबसे अधिक मोलभाव कर सकते हैं, उससे उदासीन हो जाते हैं? और फिर राष्ट्रवादी हिन्दू अपनी लड़ाई को वहीं ले आता है जहाँ से आरम्भ किया था।
प्रभु श्री राम के अस्तित्व को न्यायालय तक में नकारने वाली कांग्रेस के हर पाप भूलने के लिए हिन्दू समाज कैसे तैयार हो सकता है? यह समझ से परे की बात है!
अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि राष्ट्र से प्रेम करने वाले हिन्दुओं के भीतर यह बोध उत्पन्न हो कि हमें अपने हितों के लिए मांग उठानी ही है! यदि गौ रक्षा हमारे धर्म का एक विशेष अंग है तो गौ के नाम पर कोई मज़ाक न हो और गौमांस का प्रयोग बंद हो! इसके लिए पोलिटिकल करेक्ट होने की आवश्यकता नहीं है। यदि राम मंदिर हमारा गर्व है तो है! इस विषय में खुलकर बात करें, इस दिन के लिए धर्मप्रेमी हिन्दुओं ने पांच सौ वर्षों का संघर्ष किया है। यदि कृष्ण हमें प्रिय हैं तो हैं, और उनके नाम पर चलने वाले हर आपत्तिजनक प्रसंग बंद हों! परन्तु मुद्दों की पहचान जितनी आवश्यक है उतना ही आवश्यक यह है कि वही लोग सत्ता में रहें जो इन आवाजों को सुनें एवं दबाव में कदम उठाएं! आज भी राष्ट्रवादी हिन्दुओं के लिए नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी में ही है, जो खुलकर नागरिकता संशोधन अधिनियम के पक्ष में बोलते हैं, जो लव जिहाद की समस्या को समझते हैं। कांग्रेस एवं अन्य दल तो इस समस्या को समस्या मानने से ही इंकार करते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में यह क़ानून बना है और यह आवश्यक भी था।
इसके लिए सामूहिकता का बोध उत्पन्न करना ही होगा और हिन्दू होना ही अपनी पहचान करनी होगी। और जब भी ऐसा कोई मामला हो जिसमें ऐसा लगे कि सरकार की ओर से गलत हुआ है, या ऐसा गलत निर्णय लिया गया है जिसके कारण धर्म और देश को हानि होने के साथ राष्ट्रवादी धार्मिक हिन्दुओं का विश्वास विचलित हुआ है तो बोलना ही होगा, परन्तु बोलने का अर्थ उन हारे हुए विपक्षी दलों के पक्ष में खड़ा होना नहीं होता जो मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी माने कुछ भी! यहाँ तक कि हिंदुओं की हत्या भी होने दे, जैसा हमने पश्चिम बंगाल में देखा है! इसलिए लक्ष्य स्पष्ट रखना ही राष्ट्रवादी धार्मिक हिन्दुओं के लिए आवश्यक है। सत्ता को समर्थन के साथ विरोध भी, परन्तु मुस्लिम तुष्टिकरण वाले दलों से दूर!
क्योंकि अभी तक वर्ष 2013 में कुम्भ के कारण प्रयागराज रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ में मरने वालों के ढेर प्रश्न पूछते ही हैं! तब तो न ही महामारी थी और न ही कुछ और आपदा! बस आजम खान के प्रभार में और केंद्र के मध्य तालमेल के अभाव में मारे गए थे हिन्दू!
इसलिए प्राथमिकता स्पष्ट रखना अनिवार्य है कि किसे सत्ता में रखना है, किससे सत्ता में रहते हुए कैसे प्रश्न पूछने हैं और अपने हितों पर कैसे बात करनी है! हिन्दुओं के रूप में सामूहिक चेतना का विस्तार करना है।
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