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Thursday, March 28, 2024

केरल की कम्युनिस्ट ‘नास्तिक’ सरकार ने शरिया कानून को ‘पैगंबर की सच्ची अभिव्यक्ति’ बता कर ‘संवैधानिक वैधता’ प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की

शरिया कानून, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ की नींव के रूप में काम करता है, और कहीं न कहीं मानवीय मूल्यों के विपरीत है, केरल सरकार उसे संवैधानिक मान्यता दिलाने का प्रयास कर रही है। पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाले मार्क्सवादी केरल सरकार जल्दी ही उच्चतम न्यायालय में शरिया कानून की ‘संवैधानिक वैधता’ को रेखांकित करने वाला एक हलफनामा प्रस्तुत करने वाली है। केरल सरकार का मानना ​​है कि कानून को ‘पैगंबर की सच्ची अभिव्यक्ति’ के रूप में माना जाना चाहिए और मुस्लिम पर्सनल लॉ के सभी पहलुओं में इसके महत्व को यथावत रखा जाना चाहिए।

सूत्रों के अनुसार केरल सरकार राज्य जल्द ही उच्चतम न्यायालय को यह बताएगी कि शरिया कानून में निहित मुस्लिम पर्सनल लॉ से संबंधित विरासत का कानून और कानून की अन्य सभी शाखाएं ‘संविधान के प्रावधानों का पालन करती हैं’। हलफनामा खुरान (कुरान) सुन्नत सोसाइटी, वीपी ज़ुहरा और अन्य द्वारा केरल उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) के उत्तर में उच्चतम न्यायालय में दायर किया जाना है।

ज़ुहरा कोझिकोड स्थित प्रगतिशील मुस्लिम महिला मंच एनआईएसए की अध्यक्ष हैं। 2018 में, उन्होंने उच्चतम न्यायालय में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान संपत्ति के अधिकार की मांग की और मुस्लिम विवाह कानूनों में संशोधन की मांग की थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों के सामान अधिकार मिलने चाहिए, महिलाओं को देश की सभी मस्जिदों में नमाज़ अदा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, और महिलाओं को भी इमाम बनने की अनुमति दी जानी चाहिए।

उन्होंने सबरीमाला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को अनुमति देने वाले उच्चतम न्यायालय के निर्णय से प्रेरणा ले कर यह याचिका प्रतुत कि थी। ज़ुहरा ऐतिहासिक ट्रिपल तलाक के मामले में मुख्य याचिकाकर्ताओं में से एक थीं। एसएलपी याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि शरिया पर आधारित मुस्लिम पर्सनल लॉ महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव करता है और मुस्लिम महिलाओं के समानता संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। शरिया कानून, मजहब, जाति, और लिंग के आधार पर भेदभाव करता है, और महिलाओं के दमन का मार्ग प्रशस्त करता है।

केरल उच्च न्यायालय ने इस विषय पर कोई भी निर्णय करने से मना कर दिया था। उच्च न्यायालय ने इस विषय पर कानूनी बदलाव करने के लिए इसे केरल विधायिका पर छोड़ दिया था। इसके पश्चात उच्चतम न्यायालय में एसएलपी दायर की गयी थी। वहीं केरल की तथाकथित नास्तिक सरकार मजहबी नेताओं और अन्य इस्लामिक ‘हितधारकों’ के साथ एक उच्च स्तरीय बैठक करने के पश्चात इस विषय पर कोई भी कानून ना बनाने का निर्णय किया था। जैसा कि आशा थी, इस बैठक में भाग लेने वाले सभी मजहबी लोगों ने सर्वसम्मति से यह माना था कि शरिया कानून द्वारा चालित रीति-रिवाज और अन्य इस्लामिक प्रक्रियाएं यथावत जारी रहने चाहिए।

सूत्रों के अनुसार केरल राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय में यह दलील देगी कि मुस्लिम मजहब का व्यक्ति ‘इस्लाम द्वारा स्वीकृत’ सिद्धांतों के विरुद्ध भेदभाव की शिकायत नहीं कर सकता। संयोगवश, ये वही मार्क्सवादी और कथित नास्तिक लोग हैं जो हिन्दू धर्म की प्रगतिशीलता और उनमे ‘सुधार’ करने के लिए क्रांतिकारी लड़ाई करते हैं। यदि याचिकाकर्ताओं को लगता है कि ‘उत्तराधिकार के सिद्धांत’ इस्लामी कानून की उनकी समझ के विपरीत हैं, तो वे अपने ‘विवेक’ के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं; लेकिन वह लोग न्यायालय के माध्यम से अपने विचारों को सभी पर लागू नहीं कर सकते।

मुहम्मडन कानून के अंतर्गत, पैतृक और स्व-अर्जित संपत्ति के बीच कोई अंतर नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित एक मुस्लिम महिला अपने पति की संपत्ति का 1/8 वां भाग पाने की अधिकारी है। यदि उसके बच्चे हैं तब उसे 1/4 वां भाग मिलता है। हालाँकि एक बेटी भी कानूनी उत्तराधिकारी बन जाती है जब उसके माता-पिता की मृत्यु हो जाती है, लेकिन एक महिला उत्तराधिकारी की विरासत की मात्रा पुरुष उत्तराधिकारी के अनुपात में आधी ही होती है। इससे यह स्पष्ट है कि इस्लामिक कानून महिलाओ के प्रति अत्यधिक भेदभाव की भावना से प्रेरित है।

इस्लामिक कानून के अंतर्गत इस भेदभाव के लिए उपलब्ध औचित्य यह है कि महिला को निकाह के पश्चात अपने पति से मेहर (मेहर, निकाह अनुबंध के लिए भुगतान) और रखरखाव प्राप्त होगा, जबकि पुरुषों के पास विरासत के लिए केवल पूर्वजों की संपत्ति होगी।

वहीं अगर हम हिन्दू धर्म की बात करें, तो एक हिंदू महिला का अपने मृत माता-पिता की संपत्ति पर एक हिंदू पुरुष के समान संपत्ति का अधिकार होता है। एक पत्नी को अपने मृत पति की संपत्ति में बच्चों के साथ बराबर का अधिकार मिलता है। एक महिला, माँ होने के नाते, अपने बेटे की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी और बच्चों के समान हिस्से की अधिकारी होती है। हालाँकि, पिता के मामले में ऐसा नहीं है, क्योंकि पिता अपने बेटे की पत्नी, माँ और बच्चों के जीवनकाल के दौरान अपने बेटे की संपत्ति में कोई हिस्सा पाने का अधिकारी नहीं होता है।

यहाँ यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एक विवाहित हिंदू बेटी का विरासत अधिकार अविवाहित के समान ही है। दोनों अपने पुरुष भाई-बहनों के समान विरासत के अधिकारी होते हैं। उच्चतम न्यायालय ने पैतृक संपत्ति के बंटवारे के लिए महिलाओं को समान उत्तराधिकारी या संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में भी मान्यता दी है।

इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है, कि दुष्प्रचार के विपरीत हिन्दू धर्म में महिलाओं को ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं, और इस्लाम में महिलाओं के साथ ना मात्र भेदभाव होता है, बल्कि उनके अधिकारों पर भी कटौती की जाती है। ऐसे भेदभाव पूर्ण मजहबी कानून का भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

लेकिन केरल सरकार के मंतव्य कुछ अलग लग रहे हैं, कथित तौर पर अपने आपको नास्तिक कहने वाले वामपंथी दल के लोग इस विषय में इस्लामिक कुरीतियों का समर्थन कर रही है, जिससे कहीं ना कहीं केरल तालिबानीकरण के रास्ते पर चल पड़ेगा। इस प्रकार के निर्णय लेने के पीछे रखी गई गोपनीयता भी संदेहास्पद है। कुलमिलाकर बात यह है कि केरल सरकार के इस प्रयास का जोरदार विरोध होना चाहिए, आज जहां हमें समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है, ऐसे में केरल सरकार का यह प्रयास भारत को पुनः इस्लामीकरण के रास्ते पर धकेल देगा, जिसके भयावह दुष्परिणाम होंगे।

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