19 नवम्बर को देश ने झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को स्मरण किया है, तो उसके तीन दिनों के बाद ही अर्थात 22 नवम्बर को उनकी हमशक्ल एवं सबसे प्रिय सखी झलकारी बाई का जन्मदिन आता है। गृह और नक्षत्रों पर विश्वास न रखने वाले भी इस संयोग से इंकार नहीं कर सकते कि इन दोनों में जन्मदिवस के साथ साथ कई और समानताएं थीं। यह दोनों एक दूसरे की पूरक थीं, झलकारी बाई का बलिदान एवं साहस आज की स्त्रियाँ भूल गयी हैं, या फिर कहें एक एजेंडे के अंतर्गत भुला दिया गया है।
एजेंडा क्या? पहले झलकारी बाई की कहानी जानते हैं, फिर एजेंडे पर बात करते हैं। लोक ने झलकारी को जीवित रखा है।
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1857 का संग्राम, जिसमें स्वतंत्रता की चाह लिए एक ओर झांसी की रानी अपनी महिला टुकड़ी के साथ डटी हुई थीं तो वहीं झांसी के दुर्ग के बाहर से हजारों की संख्या में प्रवेश करना जारी था। तीन टुकड़ियों में बंटी सेना की गोला बारूद वाली टोलियाँ दुर्ग में प्रवेश करने वाली टुकड़ी के लिए कवर का काम कर रही थीं। रानी लक्ष्मी बाई की स्त्री सैनिक धीरे धीरे कर खेत हो रही थीं। रानी, बिना सोचे समझे बस कदम बढ़ाए जा रही थीं और मन ही मन यही सोचती जा रही थीं कि “क्या झांसी वास्तव में उनके जीतेजी ही गुलाम हो जाएगी?”
लक्ष्मी बाई की सेना में वैसे तो सभी स्त्रियाँ बहादुर थीं, परन्तु उनकी सबसे विश्वसनीय साथी थीं उन्हीं की हमशक्ल झलकारी बाई!
झांसी की रानी के हृदय में झांसी तो केवल विवाह के उपरान्त आया था, पर झलकारी का तो जन्म ही झांसी की धरती पर हुआ था। उसे कब दिन याद होगा, मगर अम्मा उसकी बताती थीं कि वह द्वादस को हुई थी। उसे नहीं पता था कि इतिहास में वह दिन अमर हो जाएगा। 22 नवम्बर 1830, झांसी में भोजला गाँव में धनिया और मूलचंद्र के घर एक सांवली सुन्दर बच्ची ने जन्म लिया था।
धनिया को प्रसव पीड़ा बहुत कम हुई थी, जिसके कारण धनिया ने बच्ची का मुंह चूम कर कहा था, “कुछ कारज करने आई है!” हाँ कारज ही तो था! नहीं तो कैसे बहादुर झलकारी का ब्याह झांसी के वीर युवक पूरन कोरी से हुआ था। वह दोनों रति और कामदेव की छवि लगते। दोनों ही सुन्दर और दोनों ही वीर। झलकारी बाई पूरन जैसा जीवनसाथी पाकर खुद पर इठलाती। पूरन ने कभी उसके तलवार चलाने और साहसिक कार्यों पर रोक नहीं लगाई, बल्कि वह तो खुश ही होता था।
झांसी में आने के बाद रानी की सखी कब झलकारी बाई बन गयी थीं, उन्हें नहीं पता चला था। प्रश्न यह उठता है कि, वामपंथी इतिहासकार और कथित लेखक यह प्रमाणित करने में लगे हुए थे कि दरअसल 1857 का जो विद्रोह था, वह समग्र समाज का विद्रोह था ही नहीं, वह मात्र कुछ राजाओं का विद्रोह था, उसमें कथित वंचित समाज की साझेदारी नहीं थी।
परन्तु झलकारी बाई की कहानी इनके इस झूठ को काटती है। झलकारी बाई की कहानी इस झूठ को काटती है कि राजाओं और प्रजा के मध्य संवाद नहीं था और प्रजा का शोषण राजा करता था।
परन्तु यहाँ तो झलकारी बाई, जिसे यह लोग कथित वंचित वर्ग का कहते हैं, वह रानी की सहेली ही नहीं थी, अपितु विश्वासपात्र भी थी। वामपंथी लेखक कहते हैं कि आम लोग इस विद्रोह से नहीं जुड़े थे और वह खुद को नहीं मारना चाहते थे। यह झूठ भी झलकारी बाई का जीवन चरित्र काटता है। झलकारी बाई जैसी कई स्त्रियों की सेना थी, जिसने इस संग्राम में रानी का साथ दिया था।
झलकारी बाई की कहानी इस अर्थ में अद्भुत और हर विभाजनकारी विमर्श को कटती है कि वह कब मनु बन गयी थीं वह समझ न पाई थी। अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए जब सशस्त्र महिला दल का गठन किया तो रानी लक्ष्मी बाई ने उसका उत्तरदायित्व झलकारी बाई के ही कंधे पर डाल दिया।
पर युद्ध में जब निर्णायक कदम उठाने की घड़ी आ गयी थी तो उसने देखा कि सैनिक बढ़ रहे थे और रानी के घिरने का खतरा मंडराने लगा था। रानी उलझन में थी कि क्या किया जाए? “मैं क्या करूं? झांसी को छोड़ नहीं सकती, और अब तो अंग्रेज बढे आ रहे हैं”
तब झलकारी बाई को लगा जैसे वह क्षण आ गया है, जब वह अपनी भूमि के काम आ सकती है।
रानी और वह, दोनों ही कदकाठी में एक समान थीं और दोनों का चेहरा भी काफी मिलता था। इतना मिलता था कि कभी कभी परिचित ही धोखा खा जाते। उसने रानी से कहा कि वह जाएं और अंग्रेजों को वह देख लेगी। उसने रानी से कहा कि उसका चेहरा मोहरा, कद काठी और यहाँ तक कि बोलने की शैली भी रानी के जैसी है, तो वह अंग्रेजों से मोर्चा लेगी, तब तक वह सुरक्षित निकल जाएं!
रानी भरे मन से अपना किला झलकारी के हवाले करके आगे बढ़ गईं।
परन्तु किसे पता था कि इतिहास मनु के आगे बढ़ते ही बढ़ जाएगा, और झलकारी की चीखें आज तक इतिहास के पन्नों में दब जाएंगी। अम्मा का कारज तो हो जाएगा मगर झलकारी कहीं खो जाएगी। अंग्रेजों ने महारानी के धोखे में झलकारी को पकड़ा। झलकारी ने कहा “तुम्हारा मनचाहा कभी पूरा नहीं होगा। तुम मनु को कभी पकड़ नहीं पाओगे!”
इधर मनु कहीं और बढ़ चली थी इतिहास को अपने साथ लेकर उधर अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ ने कहा “अगर हिन्दुस्तान की केवल एक प्रतिशत लड़कियां, इसके जैसी हो जाएँगी तो हमें यह देश छोड़कर भागना होगा!”
झलकारी और मनु कब कहाँ मिली होंगी, यह नहीं पता मगर इतिहास ने झलकारी को एक कोना देकर ठीक नहीं किया। भारत में चाहे मनु हो या झलकारी, दुश्मन को नाको चने चबाना सभी को आता था।
एजेंडा और काट:
कई लेखक और समाजशास्त्री यह कहते हैं कि रानी चूंकि शासक वर्ग की थीं, इसलिए वह स्वार्थ में झलकारी बाई को छोड़कर आगे बढ़ गईं, और उसके बाद इतिहास में केवल कथित संभ्रांत महिलाओं को ही स्थान दिया। ऐसा नहीं है कि केवल संभ्रांत महिलाओं को ही स्थान मिला, दरअसल इतिहास लिखा जाता है, सरकारी विवरणों के आधार पर।
तो उस समय जो सरकारी विवरण थे, अंग्रेजों ने जो दर्ज किए थे, उनके आधार पर इतिहास लिखा। अंग्रेजों ने यह हर संभव प्रयास किया कि इस संग्राम को मुट्ठीभर असंतुष्ट राजाओं का विद्रोह बताया जाए और हर राजा का कोई न कोई व्यक्तिगत स्वार्थ बताया जाए, कि इस स्वार्थ के सिद्ध न होने के कारण उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया।
जो आम लोग इस संग्राम में सम्मिलित हुए थे, वह लोक में रहे, वह स्थानीय लोगों के लेखन में रहे, परन्तु रिकार्ड्स में उन्हें एक एजेंडे के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया गया।
जो लोग कहते हैं, कि राजा और प्रजा के मध्य सामंजस्य या संवाद नहीं था, तो यह कहानी भी इस झूठे एजेंडे का काट करती है।
और जो लोग यह कहते हैं कि रानियों तक तो ठीक है, अध्ययन एवं शास्त्र शिक्षा प्रदान की जाती थी, परन्तु आम लोगों का क्या? तो आम स्त्रियों को भी शस्त्र प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था, झलकारी बाई की वीरता तो लोक में प्रचलित है ही, परन्तु यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि जहां उसे बचपन से ही हथियारों का प्रशिक्षण प्रदान किया गया था तो वहीं विवाह के उपरान्त उसके पति ने भी उसके हथियारों के शौक पर अंकुश नहीं लगाया था।
रानी के लिए झलकारी बाई ने अपने प्राण नहीं उत्सर्ग किए थे, बल्कि उसने अपनी उस मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण कर दिया था, जहाँ पर उसने जन्म लिया था।
अंग्रेजों ने इसी भाव को मारने के लिए ही झलकारी बाई जैसी आम योद्धाओं को इतिहास में स्थान नहीं दिया, और उसके बाद उनके पिछलग्गू वामपंथी इतिहासकारों ने भी झलकारी बाई जैसी योद्धाओं को नकारा, जिससे उनका हिन्दू विरोधी और समाज को विभाजित करने वाला एजेंडा चलता रहे।
वह हिन्दुओं को बदनाम करते रहें। पर वह यह भूल गए कि लोक कभी कुछ नहीं भूलता है। लोक स्मरण रखता है, अपनी नायिकाओं को। लोक सहेजता है लक्ष्मीबाई को और लोक ही सहेजता है झलकारी बाई को भी!
और वामपंथी और एजेंडावादी दो सहेलियों को, दो नायिकाओं को, दो साथियों को, और देश के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाली दो महान आत्माओं को एक दूसरे के विरोध में खड़े करने लग जाते हैं!
यदि मनु झलकारी बाई के कारण जीवित बची थीं, तो झलकारी बाई भी मनु के कारण ही इस तेज की आधिकारी हुईं. वह परस्पर संपूरक थीं, एक दूसरे की कहानियों को पूर्ण करती हुईं, एक दूसरे की वीरता में रंग भरती हुई, न कि वामपंथियों और आंबेडकरवादियों के अनुसार एक दूसरे की प्रतिद्वंदी!
वह एक दूसरे के साथ अपने सबसे बड़े शत्रु से लड़ी, जिसमें झलकारी बाई पहले स्वर्ग की ओर गईं और लक्ष्मीबाई कुछ समय उपरान्त! यदि रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों से समझौता कर लेतीं, अपना जीवन अय्याशियों के साथ जीतीं, तब तो उन पर यह आरोप लग सकता था कि उन्होंने झलकारी बाई का प्रयोग किया, पर रानी तो स्वयं लड़कर अपनी ही सखी के पथ पर चली गईं, फिर ऐसे में इन दो महान विभूतियों के मध्य विवाद उत्पन्न करने वाले मात्र अपना विभाजानकारी एजेंडा चलाते हैं और कुछ नहीं!