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Sunday, December 8, 2024

साहित्य के नाम पर अश्लीलता एवं हिन्दू विरोध!

कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। तथा वह समाज के लिए एक आदर्श या समाज को चेतन करने वाली कथाएँ या कविताएँ प्रस्तुत करता है। वह लुभाता है, हमें विस्मित करता है एवं साथ ही समाज को एक दिशा भी प्रदान करता है। भारत में भरत मुनि के समय से नाट्यशास्त्र से लेकर वर्तमान में नरेंद्र कोहली तक साहित्य की एक लम्बी परम्परा रही है। मध्य काल में जब मुगलों के अत्याचार हिन्दू समाज पर चरम पर थे तो ऐसे में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखकर प्रभु श्री राम का ऐसा सुन्दर चरित्र रचा जिसने आज तक हिन्दू समाज को चेतन एवं एक रखा है। इससे भी पूर्व, जब हिन्दू समाज भटकाव में था तो आदि गुरु शंकराचार्य ने भी तमाम पुस्तकों की रचना कर समाज एवं धर्म को  एक दिशा दी।

संत साहित्य ने सदैव ही समाज को मार्ग दिखाया यही कारण था कि साहित्य को समाज का दर्पण बताया। परन्तु एक समय विशेष के उपरान्त, अर्थात जब से वामपंथ का उदय हुआ, जब से कथित प्रगतिशील साहित्य चलन में आया, जब से वामपंथी साहित्य का चलन हुआ, तब से साहित्य में अजीब सी नकारात्मकता का चलन हो गया। जहाँ कविता में उत्साह और आनन्द होता था, वियोग एवं विध्वंस था वह भी समाज कल्याण को लेकर था, और जहां कुंठा का नामोनिशान नहीं था वहीं वामपंथी साहित्य आने के उपरान्त एक अजीब प्रकार की निराशाजनक कविताओं ने कविता के क्षेत्र में आकर अधिकार स्थापित कर लिया।

एजेंडा परक कविताएँ लिखी जाने लगीं और इसी के साथ ऐसी कविताओं ने कविताओं का आकाश घेर लिया, अकादमियों, सम्मानों और एक ही विचार के विचारकों को महत्व देने का एक चलन आरम्भ हुआ, जिसने एक ही विचार की कविताओं का ढेर हिंदी कविता में लगा दिया। और वर्तमान में तो जैसे कविता हिन्दुओं की विरोधी और फेमिनिज्म के नाम पर अश्लीलता का पर्याय हो गयी है, और ऐसी कविताओं को कुछ वेबसाइट्स भी आगे बढ़ा रही हैं। पहली नज़र में तो वह वेबसाइट्स साहित्य का प्रचार करने वाली या साहित्य सेवा की वेबसाइट्स लगती हैं क्योंकि उनमें प्रेमचंद, मैथलीशरण गुप्त सहित कई हिंदी साहित्य के कई पुरोधाओं की रचनाएं सम्मिलित होती है। परन्तु यदि और गौर से देखेंगे तो स्त्री विमर्श के नाम पर परिवार तोड़ने वाली या हिन्दुओं की आस्था पर प्रहार करने वाली कविताएँ ही आपको दिखाई देंगी। आज हम हिन्दवी वेबसाइट के स्त्री विमर्श में कुछ कविताएँ देखते हैं। एक हैं आभा बोधिसत्व, जिनकी एक कविता है सीता जी पर! वह सीता जी के बहाने राम जी पर तो उंगली उठाती ही है, साथ ही वह एक अजीब प्रश्न पूछती है कि

मैं पूछती हूँ तुमसे आज

नाक क्यों काटी शूर्पणखा की?

वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार?

उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास?

उसका उपहास किया क्यों?

वह भी तो थी एक स्त्री

वह राक्षसी थी तो क्या

उसकी कोई मर्यादा न थी

क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी?

तुम तो पुरुषोत्तम थे!

नाक काट ली उसकी

तुम रावण से कहाँ कम थे

और इतना ही नहीं, वह पूछती है कि राम ने सीता की रक्षा क्यों नहीं की, कि रावण उठाकर ले गया?

शायद क्रांतिकारी कविताओं में जब स्त्री विमर्श के नाम पर राम जी को कोसा जाता है तो वह तथ्यों को ध्यान में नहीं रखती हैं, या कहें अध्ययन नहीं है, और इन्हीं अध्ययन से रहित स्त्रियों को एक गुट या नैरेटिव के चलते महान कवयित्री बताया जाता है और इन्ही का गलत नैरेटिव हमारे बच्चों के दिमाग में घुस जाता है।

ऐसे ही आदिवासी स्त्री के नाम पर विमर्श कैसे तोड़ा मरोड़ा जाता है, वह भी कविताओं में दिखता है और कैसे इन कविताओं को लिखने वालों को क्रांतिकारी बताकर स्कूल और कॉलेज में लिट्फेस्ट में बुलाया जाता है। ऐसी ही कविताएँ कच्ची उम्र के बच्चों के सामने प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे उनके में अपनी ही सरकार और सेना के खिलाफ असंतोष पैदा होता है।

एक कविता देखिये:

साहेब!

एक दिन

जंगल की कोई लड़की

कर देगी तुम्हारी व्याख्याओं को

अपने सच से नंगा,

लिख देगी अपनी कविता में

कैसे तुम्हारे जंगल के रखवालों ने

तलाशी के नाम पर

खींचे उसके कपड़े,

कैसे दरवाज़े तोड़कर

घुस आती है

तुम्हारी फ़ौज उनके घरों में,

कैसे बच्चे थामने लगते हैं

गुल्ली-डंडे की जगह बंदूक़ें!

यह शहरी नक्सलियों का ही एक सपना है कि लोग राष्ट्रगान के विरोध में खड़े हो जाएं तो उसे कैसे दर्द की चाशनी में लपेट कर पेश किया गया है:

मेरी सोच के भीतर

अचानक बज उठा है राष्ट्रगान

और मैं खड़ा हूँ

राष्ट्रद्रोही कहलाने के डर से

सावधान की मुद्रा में।

अब आते हैं हमारे देवी देवताओं के बहाने अपनी कुंठा शांत करने वाले विमर्श पर। स्त्री विमर्श के नाम पर और इस नाम पर कि हिन्दुओं में स्त्रियों को कुछ समझा ही नहीं जाता है, कुछ क्रांतिकारी स्त्रियों ने कविताएँ लिखीं और ऐसी कविताएँ लिखीं जैसे वह केवल और केवल हिन्दू देवियों को सम्मान दिलाने के लिए हैं। जैसे नेहा नरुका की यह कविता “पार्वती योनि!”

ऐसा क्या-किया था शिव तुमने?

रची थी कौन-सी लीला?

जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग

माताएँ बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए

पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र के लिए

अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ

पूजती है तुम्हारे लिंग को

*****************

तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर

माथे पर लगाती हैं टीका

जीभ पर रखकर

बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं

लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को

वे नहीं जानतीं कि यह

पार्वती की योनि में स्थित

तुम्हारा लिंग है,

वे इसे भगवान समझती हैं,

अवतारी मानती हैं,

तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता

समाया रहता है पार्वती-योनि में,

और उससे बहता रहता है

दूध, दही और नैवेद्य।।।

जिसे लाँघना निषेध है

इसलिए वे औरतें

करतीं हैं आधी परिक्रमा

जबकि ऐसी ही लेखिकाओं को क्रांतिकारी रचनाकार बताकर हमारे बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। जितने भी लिट्फेस्ट होते हैं, उनमें इनका ही गैंग एकाधिकार के चलते कार्य करता है। यह लोग ऐसे लोगों को बहुत कम आमंत्रित करते हैं, जिनकी रचनाओं में देश को एक साथ रखने की बात हो, या फिर जो हिन्दू स्त्रियों को एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर सकें जो वाकई हिन्दू दृष्टिकोण है। जो एक सकारात्मक पक्ष प्रस्तुत करते हैं!

कथित प्रगतिशील लेखकों एवं लेखिकाओं का उद्देश्य केवल और केवल हिन्दू धर्म पर प्रहार करना है और उसके बहाने हिन्दू भारत पर प्रहार करना है।

जब इन्हीं लोगों को महान रचनाकार बताकर प्रस्तुत किया जाता है तो हमारे बच्चों का भ्रमित होना निश्चित है, इसलिए आवश्यक है कि ऐसे सभी रचनाकारों का विरोध किया जाए और यह मांग की जाए कि हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों पर केवल और केवल वही लिख सकते हैं जो उसमें आस्था रखते हैं।


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