1983 में केंद्र में इंदिरा गाँधी की सरकार थी। इस दौर में असम के मोरीगांव कस्बे के नेल्ली में रहने वाले आदिवासी समाज बंगालादेशी मुसलमानों की बड़ी संख्या में घुसपैठ, अवैध कब्ज़ा, और ऊपर से उनमें सम्मिलित जिहादियों से बड़े परेशान रहा करता था । तंग आकर अंततः उन्होंने समस्या से मुक्ति पाने की ठानी, और एक दिन घुसपैठियों के दर्जनों गावों को घेरकर सैकड़ों लोगों की हत्या कर डाली। आगे चलकर लोगों की पीड़ा को समझते हुए, 1985 में राजीव गाँधी नें ‘ असम-समझौते’ के अंतर्गत घोषणा की कि 25मार्च, 1971 तक असम में आकर बसे बांग्लादेशियों को नागरिकता दी जाएगी। और बाकी लोगों को राज्य से निर्वासित कर दिया जायेगा।
‘असम-समझौते’ पर घोषणा से आगे बात नहीं बढ़ी। और क्यूँ नहीं बढ़ सकी , इस पर अलग से बात हो सकती है । पर जिहादी तत्वों का जब प्रभाव बढ़ता है तो कैसे दो समुदायों का सह-अस्तित्व संकट में पड़ जाता है, यह इस घटना के बाद समझना कठिन नहीं। यहाँ समस्या यह है कि इस पर खुलकर बात करने के लिए मुश्किल से कोई तैयार होता है। लेकिन फिर भी कभी-कभी देव योग से राजनैतिक विवशता पर अंतर्मन की चल जाती है।
ठीक वैसे, जैसे 17 जून, 2007 को उदयपुर के नगर परिषद् के परिसर में आयोजित महाराणा प्रताप के 476 वें जन्मदिवस के अवसर पर भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के साथ शायद अनायास हो गया। उपस्थित जन-समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि-‘भारत में पर्दा-प्रथा का आरम्भ मुग़ल आक्रमणकारीयों से हिन्दू महिलाओं की रक्षा के लिए हुआ था।’ मूलत: कांग्रेसी प्रतिभा पाटिल से प्रेरणा लेते हुए तथा-कतिथ ‘गंगा-जमाना तहजीब’ के दिखावे से जरा किनारा करते हुए सच जैसा है वैसा भी कभी-कभी बताते चलना चाहिए। और तभी नूपूर शर्मा को लेकर कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे की नृशंस हत्या जैसी घटनाओं पर आगे लगाम लगाया जा सकती है।
देश के बाहर जो घट रहा है, उसे भी देख लीजिए। कुछ ही दिन पूर्व काबुल स्थित करते-परवन गुरुद्वारा पिछले दिनों दूसरी बार जिहादियों का निशाना बना है। बड़ी मुश्किल से गुरु-ग्रन्थ साहिब को घटना स्थल से संभालकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया जा सका। पर बात इससे भी आगे की है और वह यह है कि सन 1970 में अफगानिस्तान में 1 लाख से ऊपर सिख समुदाय रहा करता था। अब आज जबकि देश तालिबानियों के पूर्ण कब्जे में आ चुका है, तो लगभग सभी सिख और हिन्दू वहां से भारत या अन्य देशो में चले गए हैं ! दूसरी और पड़ोस के बांग्लादेश से यह समाचार आया कि वहां के एक कॉलेज के प्रिंसिपल स्वप्न विस्वास को जूतों की माला गले में डालकर शहर में घुमाया गया है। उन पर आरोप थे कि उनके कॉलेज के एक छात्र राहुल देव रॉय नें सोशल मीडिया में नुपुर शर्मा के फोटोग्राफ को पोस्ट करने का ‘दुस्साहस’ किया था। ध्यान रहे बंगलादेश में कभी 25% से उपर हिन्दू जनसँख्या रहा करती थी, वह अब 8% बची है। और फिर देखिये कि हिन्दू कैसे भय में जीने को बाध्य है! (हिन्दू पोस्ट)
आश्चर्य हो सकता है कि हिन्दू-साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जिस बड़ी संख्या में और जिस प्रभावी स्तर पर हिन्दू बुद्धिजीवी-वर्ग मुखर हो उठता है, मुस्लिम वर्ग से आने वाले नसरुद्दीन शाह , फरहान अख्तर, और पूर्व उपराष्ट्रपति अंसारी जैसे वही लोग मजहबी-कट्टरता को लेकर मौन धारण किये क्यों दिखते हैं। इसे समझने के लिए सारांश में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के इस कथन को देखें –‘ एक मुसलमान के लिए इस सम्भावना को कबूल करना कठिन है कि दुनिया के अन्य धर्म इस्लाम की छाया भी छू सकते हैं। इस्लाम प्रभावित होने से डरता है क्यूंकि संशोधित, प्रभावित अथवा सुधरा हुआ इस्लाम इस्लाम नहीं। अपने को सच्चा मुसलमान कहने वालों के साथ कठिनाई ये है कि ज़माने से उन्हें ये सिखाया गया है कि जिस देश पर मुसलमानों का राज्य नहीं, वह देश दारुल-हरब यानी ‘शत्रुओं का देश’ समझा जाना चाहिए। अतएव देश-भक्ति और धर्म-भक्ति को एक करके चलने में उन्हें कठिनाई होती।’ (पृष्ठ-344, 355, 335; ‘संस्कृति के चार अध्याय’)