ऑनलाइन क्लास लेते लेते मेरी दस वर्षीय बेटी ने अपनी क्लास से साइनऑफ कर दिया और बहुत ही गुस्से से मेरे पास आकर बोली “मैं क्लास नहीं पढूंगी! सब झूठ पढ़ाते हैं!” अभी उसकी कक्षा में इतिहास इतने झूठे रूप में नहीं आया था कि उसे भड़कना पड़े, फिर उसे क्या समस्या हो रही थी? कक्षा 5 में पढने वाली अपनी बेटी से यह सुनकर मैं अचरज में पडती जा रही थी। फिर वह अपनी अंग्रेजी की पुस्तक उठाकर लाई और उसने एक कविता की अंतिम पंक्तियों पर उंगली रखी और कहा कि देखिये क्या लिखा है?
मैंने देखा कविता थी The Wonderful World अर्थात शानदार संसार! “इसमें क्या समस्या है, यह दुनिया कितनी सुन्दर है? नहीं है क्या?” मेरा उत्तर था। पर वह माने तब न, और फिर उसने उन पंक्तियों पर उंगली रख ही दी, जिन पर उसे आपत्ति थी। वह पंक्तियां थीं
A whisper inside me seemed to say,
“You are more than the Earth, though you are such a dot:
You can love and think, and the Earth cannot!”
फिर वह बोली आप कहती हैं न कि पृथ्वी माता हैं, और वह सांस भी लेती हैं, यह वृक्ष हमारी माता के फेफड़े हैं, हम इस धरती माता का आदर करते हैं, और वह हमसे कितना प्रेम करती हैं कि हमारे लिए फल, फूल और अन्न के लिए मिट्टी और खाद देती हैं, हमें जल देती हैं, सब कुछ तो पृथ्वी माता ही देती हैं, तो धरती किसी इंसान से बढ़कर कैसे हो सकती है?
यह सुनकर मैं हैरान थी, क्योंकि मैं उसे जो बातें बताती रहती हूँ, वह उस पर इतना प्रभाव छोड़ेंगी, मुझे नहीं पता था। वह फिर बोली, “माँ ऐसा नहीं होता न कि इंसान प्यार कर सकता है, पर धरती नहीं! माँ, धरती माता ही तो हमें प्यार का अर्थ समझाती हैं!”
मैं हतप्रभ थी! हमारे धर्म में पृथ्वी को माता का ही स्थान प्राप्त है, और बार बार हम यह कहते आए हैं कि यह पृथ्वी हमारी माता है और यही कारण था कि पृथ्वी को माता मानने वाला हिन्दू धर्म सहज रूप से वृक्षों को काटने से दूरी बनाता रहा।
यही कारण है कि मौर्य काल में भारत में आने वाले यात्री मेगस्थनीज ने युद्ध के विषय में लिखा है कि यदि युद्ध भी हो रहे होते थे, तो भी किसानों को हर प्रकार के खतरों से मुक्त रखा जाता था। सैनिक खेतों में फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाते थे और परस्पर युद्ध करने वाले राजा न ही अपने शत्रुओं की भूमि में आग लगते थे और न ही वृक्ष काटते थे!
अर्थात वह पर्यावरण की रक्षा करने के लिए युद्ध के मध्य भी तत्पर रहा करते थे। और अब यह एक वैज्ञानिक शोध में भी यह बात उभर कर आई है कि हमारी पृथ्वी पर ही जीवन नहीं है बल्कि हमारी धरती का अपना मस्तिष्क भी हो सकता है। वैज्ञानिकों ने इस विचार को “ग्रहीय बुद्धिमत्ता” का नाम दिया है और जिसमें उन्होंने कहा है कि यह किसी भी ग्रह की सामूहिक बुद्धि एवं संज्ञात्मक क्षमताओं का वर्णन करता है।
यह शोध इंटरनेश्नल जर्नल ऑफ एस्ट्रोबायोलोजी में प्रकाशित हुआ है और इस पेपर में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इस बात के प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि पृथ्वी पर फंगस का एक ऐसा नेटवर्क प्राप्त हुआ है, जो आपस में परस्पर संवाद करते रहते हैं और जिससे यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी पर एक अदृश्य बुद्धिमत्ता उपस्थित है।
इसमें लिखा है कि इस ग्रह पर एक संज्ञानात्मक गतिविधि के विविध रूप उपस्थित हैं, (अर्थात वेर्नदस्काई की सांस्कृतिक बायोजियोकेमिकल ऊर्जा)। और यह यहाँ पर किसी भी पशु तंत्रिका प्रणाली के विकसित होने से पहले से और साथ ही होमो-जीनस के उपस्थित होने से भी पहले से उपस्थित है। यदि इस ग्रह के फीडबैक लूप्स का निर्माण करने वाले माइक्रोब्स के प्रति यह कहा जा सकता है कि वह अपने संसार की सभी बातें जानते हैं तो यह भी पूछा जाना उपयोगी है कि यदि यह ज्ञान बड़े पैमाने पर उपस्थित होता है तो जो व्यवहार उभर कर आता है, वह ग्रहीय बुद्धिमत्ता कहा जाता है!
भारत में वेदों में न जाने कब से इस पृथ्वी के जीवित होने की बात की जाती रही है। बार बार यह कहा गया कि यह धरती एक जीवंत ग्रह है, जो सांस लेती है, जिसमें से रस उत्पन्न होते हैं। अथर्ववेद के भूमिसूक्त में लिखा है
यत्ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।
तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥
अर्थात “हे पृथ्वी माता, तेरा जो मध्य भाग है, जो नाभि क्षेत्र है, और जो तेरे शरीर से उत्पन्न रस है, वह सभी हमें प्रदान करें, हमें पवित्र करें! भूमि माता है और मैं इसका पुत्र हूँ, पर्जन्य पिता हैं, वह हमारा पालनपोषण करें!”
और फिर आगे लिखा है
त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः ।
तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥१५॥
अर्थात आप से उत्पन्न हुए प्राणी आप में ही विचरण करते हैं, आप दो पैरों वालों को धारण करने वाली हैं और चार पैर वालों को धारण करती हैं। हे पृथ्वी, सभी मनुष्य तेरे हैं और जिनके लिए उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरण से अमृततुल्य प्रकाश फैलाता है!”
परन्तु यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि जहाँ बार बार यह कहा जाता है कि शिक्षा को धर्म से दूर रखा जाए, तो ऐसे में ज्ञान देने वाले समस्त हिन्दू ग्रंथों को मात्र धार्मिक ग्रन्थ तक और मिथकीय ग्रन्थ तक सीमित कर दिया और धर्म से परे जाकर उन कविताओं को हमारे बच्चों को पढ़ाया जाने लगा है, जो एक रिलिजन विशेष के ही विचारों का प्रचार करती हैं, ऐसे में हमारे बच्चे वेदों को, जिनमें ज्ञान है उन्हें मिथकीय मानते हैं और रिलीजियस कविताओं को आधुनिक?
परन्तु अंत में यही प्रमाणित होगा कि सत्य क्या है? ज्ञान क्या है और फिर पश्चिम लौट कर पूर्व की ओर आएगा, जैसे अभी आया है!
मैंने अपनी बेटी को प्यार से अंक में भर लिया क्योंकि मुझे पता है कि वह इस धरती को अपनी माँ ही समझती है और उसके लिए मैं ही धरती हूँ और धरती ही मैं हूँ!