कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने एक अत्यंत चौंकाने वाला बयान दिया है। वैसे तो वह अधिकांश चौंकाने वाले और सनसनी फैलाने वाले ही बयान देते रहते हैं, परन्तु यह बयान कहीं न कहीं एक ऐसे सत्य की ओर संकेत करता है, जिसे सहज सुनना लोग पसंद नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि प्रियंका जी ने एक बहुत इंटरेस्टिंग बात बताई- 40-50 साल की महिलाएं मोदी से प्रभावित है, लेकिन जींस पहनने वाली लड़कियां मोदी से प्रभावित नहीं है’
जैसे ही उनका यह बयान आया और वायरल हुआ, वैसे ही उनका विरोध होने लगा और कई भारतीय जनता पार्टी समर्थक लड़कियों ने अपनी अपनी जींस वाली तस्वीर लगानी आरम्भ कर दी। और ट्विटर पर ट्रेंड चल पड़ा। परन्तु क्या बात इतने तक सीमित है या फिर बात कुछ और है? इस आत्मविश्वास का कारण क्या है?
क्या कभी भी हम यह प्रश्न कर सकते हैं कि आखिर इतने आत्मविश्वास का कारण क्या है? क्या वास्तव में ऐसा कुछ है? या यूंही बोल दिया गया है? यदि इसकी तह में जाएंगे तो कुछ न कुछ तो सच्चाई मिलेगी ही। सीएए का आन्दोलन हो, या फिर जम्मू में कठुआ काण्ड, या फिर किसान आन्दोलन, और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े कई और मामले या फिर हाल ही में कई समाज को तोड़ने वाले विज्ञापनों आदि पर समर्थन, इनमें असाधारण रूप से युवा वर्ग की प्रतिभागिता कुछ अधिक रही है।
ऐसा नहीं था कि विरोध करने वाली यह कुछ लडकियां भारतीय जनता पार्टी के विरोध में थीं अपितु वह लोग कथित कट्टरता और असहिष्णुता के विरोध में थी। परन्तु कैसी कट्टरता या कैसी असहिष्णुता? या फिर हिन्दू धर्म ही कट्टर क्यों? भारतीय जनता पार्टी का ही विरोध क्यों? यहाँ पर आकर जैसे विमर्श ठहर जाता है? दरअसल उनका विरोध हिन्दुओं की कथित कट्टरता से होता है, जो उनके मस्तिष्क में उनके पाठ्यक्रम से लेकर फिल्मों और साहित्य के माध्यम से प्रविष्ट कराई जाती है, और भारतीय जनता पार्टी चूंकि हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है तो वह अपने आप ही भारतीय जनता पार्टी के विरोध में जाकर खडी हो जाती हैं।
कुछ लडकियों की ही नहीं, बल्कि कहीं न कहीं यह बहुत युवाओं की कहानी है।
सेना, पुलिस और कथित हिन्दू अत्याचारों से भरा है पाठ्यक्रम और साहित्य
युवा भारतीय जनता पार्टी या कहें मोदी जी या योगी जी का विरोध क्यों करते हैं? क्यों एक विशेष विचारधारा के लोगों ने जनरल रावत के निधन पर जश्न मनाया या फिर कहें कि क्यों एक विशेष विचारधारा के युवा भारत के प्रधानमंत्री से अधिक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के निकट स्वयं को अनुभव करते हैं? क्यों निजीकरण को वह अभिशाप समझते हैं?
इन सबकी जड़ कहीं न कहीं उन पाठ्यपुस्तकों में हैं, जो सोनिया गांधी की सरकार आने के बाद एनसीईआरटी में आरम्भ की गईं और राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा वर्ष 2005 के अनुसार जो पाठ्यक्रम तैयार किया गया, उसे जेंडर संवेदनशीलता, पितृसत्तात्मक समाज, जाति एवं वर्ग आदि के आधार पर विकसित किया गया है। बच्चों के मस्तिष्क में शिक्षा के नाम पर वह विमर्श स्थापित किया गया, जिसे ग्रहण करने की उनकी शक्ति या क्षमता नहीं है।
उन्हें जैसे हिन्दू विरोधी टूल बना दिया जाता है।
इतिहास में हिन्दुओं के प्रति हुए हरा अत्याचार को पाठ्यक्रम से मिटा दिया गया है:
कक्षा सात की इतिहास की पुस्तक में सल्तनत काल और मुग़ल काल है, दिल्ली का विकास है, पर दिल्ली का हिन्दू इतिहास गायब है! मस्जिदें हैं, पर वह किन मंदिरों को तोड़कर बनी हैं, वह सब गायब है! दरअसल इतिहास को इस प्रकार प्रस्तुत किया है जैसे मुस्लिमों का आना सहज प्रक्रिया थी और उनके आक्रमण का कोई भी नकारात्मक सामाजिक प्रभाव नहीं पड़ा!
हिन्दू इतिहास या तो है नहीं, या फिर नकारात्मक रूप में है।
हिन्दुओं को जातिगत आधार पर नीचा दिखाना
कक्षा सात से ही बच्चों के मस्तिष्क में यह बात भर देना कि हिन्दुओं में ही जातिगत व्यवस्था है और यह सामाजिक बुराई है। विवाह में स्वजाति के विज्ञापनों के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास है कि हिन्दू इतने बुरे होते हैं कि विवाह अपनी जाति में करते हैं! समानता नामक अध्याय में यह स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि मुस्लिमों को हिन्दू समाज किराए पर घर नहीं देता और ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन का भी उल्लेख है, और इस प्रकार हिन्दू समाज को एवं विशेषकर कथित उच्च समाज को दोषी ठहरा दिया गया है।

जबकि मुस्लिम समाज में जो जातिगत आधार पर विभाजन है उस पर चुप्पी है, मुस्लिमों में एक जाति के लोग दूसरी जाति में शादी नहीं कर सकते हैं, और यह देवबंद की वेबसाईट पर उपलब्ध है, इसे और विस्तार से हमने पहले भी लिखा है!

भारतीय लोकतंत्र में समानता नामक अध्याय में हिन्दुओं पर मुस्लिमों द्वारा होने वाले अत्याचारों का वर्णन नहीं है और न ही यह बताया गया है कि कैसे एक मुस्लिम बहुल सोसाइटी में हिन्दुओं को पूजा का ही अधिकार नहीं होता, या फिर कैसे हिन्दू बच्चों के धार्मिक प्रतीकों को असमानता का सामना करना पड़ता है?
इसी प्रकार निजीकरण का विरोध करते हुए उदाहरणों में यह दिखाया गया है कि हिन्दू बच्चा अमीर है जो निजी अस्पताल का इलाज करा सकता है और मुस्लिम बच्चा गरीब है, जो महंगा इलाज नहीं करा सकता है।
स्वास्थ्य व्यवस्था के नाम पर केरल की व्यवस्था का उल्लेख है।
यह विष जो बचपन से घुलना आरम्भ होता है, उसे कक्षा दस की यह कविता और भी अधिक विस्तार देती है,

कक्षा छह से लेकर कक्षा बारह तक हिंदी और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों के माध्यम से बच्चों के कोमल मस्तिष्क में हिन्दुओं के विरुद्ध जो विष घोला जा रहा है, उसी की परिणति है “फक हिंदुत्व” जैसे नारे या फिर जेंडर जैसे मुद्दों पर हिन्दू धर्म को गाली देना। जबकि समलैंगिकता को इस्लाम और ईसाईयत में पाप माना गया है।
स्त्रीविमर्श की रचनाओं में हिन्दू लोक के विरोध के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता है, फिर ऐसे में जब भारतीय जनता पार्टी कथित रूप से हिन्दुओं की पार्टी बनकर स्वयं को प्रस्तुत करती है तो वर्ष 2005 से यह विष पढता हुआ बच्चा, जो आज युवा हो गया है, वह तब योगीजी और मोदी जी का विरोध करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित हो जाएगा, यदि उसे परिवार से धार्मिक संस्कार नहीं दिए जा रहे हैं।
यदि इन पुस्तकों को पढने के बाद भी बच्चे हिन्दू धर्म का पालन कर पा रहे हैं, तो उसमें हिन्दू धर्म की चेतना और संस्कार का बहुत बड़ा योगदान है! और अब प्रहार उस शेष चेतना पर भी है!
संभवतया, दिग्विजय सिंह अपनी सरकार के शिक्षा के माध्यम से किए गए षड्यंत्र को लेकर बहुत आशान्वित हैं, तभी उन्होंने इतनी बड़ी बात कही है!