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Friday, March 29, 2024

खलनायकों का नायकों के रूप में अनुकूलन? और विमर्श के स्तर पर हिन्दुओं का पतन

हाल में ही यह कहा जाने लगा है कि क्यों नहीं कबीलाई पूजा पद्धति को अपना लिया जाता? क्यों नहीं अपनी ही धरती पर अपने ही परन्तु पराए मजहब वालों को अपनाते नहीं?

दरअसल यह बहुत ही सूक्ष्म स्तर का षड्यंत्र है और यह आज से आरम्भ नहीं हुआ है, यह बहुत पुराना है. यह हमने पहले भी अपने लेखों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया है, आज वही पुराना लेख कुछ परिवर्तनों के साथ प्रस्तुत है:

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अनुवाद अध्ययन में एक शब्द बहुत ही आम सुनाई पड़ता है।  adaptation अर्थात अनुकूलन। अनुकूलन अर्थात जो सोर्स टेक्स्ट है उसे टार्गेट टेक्स्ट में उन्हीं तथ्यों के साथ नए रूप में ले लेना।  अनुवाद का यह रूप सबसे पुराना है।  यह भाषांतरण न होकर तथ्यों को नए काल के अनुसार लिखना है।  परन्तु यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जब अनुकूलन किया जाए तो कितना एड किया जाए, कितना डिलीट किया जाए और किस तरह से एड किया जाए।  

इस प्रकार का अनुवाद हमें भक्ति साहित्य में देखने को मिलता है, वही राम कथा, वही कृष्ण कथा, कथ्य वही परन्तु प्रस्तुतीकरण अलग।  जब भी हम किसी कथा का अनुवाद करते हैं या उसे पुनर्लेखन करते हैं तो हम मूलभूत तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं।  यदि करते हैं तो हमको यह डिस्क्लेमर देना होगा कि आपकी रचना का पूर्ववर्ती रचना से कोई सम्बन्ध नहीं हैं।  परन्तु ऐसा होता नहीं।  

हर युग में रामायण और महाभारत का पुनर्पाठ हुआ है।  और हर युग में जनता उस पुनर्पाठ से समृद्ध हुई है।  समृद्धि की यह परम्परा कबीर, तुलसी और सूरदास, रहीम, मीरा तक अनवरत चली है।  एवं इन सभी संतों ने अपने साहित्य के माध्यम से जनता के मनोबल को ऊंचा रखने में सहायता दी।

प्रयोजन के साथ अनुकूलन या एडाप्टेशन

साहित्यिक अनुकूलन एक मूल आवश्यकता से अधिक एक कौशल है।  और जब भी किसी रचना का adaptation किया जाता है तो उसका हमेशा ही कोई प्रयोजन होता है।  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्य के उद्देश्य के विषय में लिखते हैं “साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आंकलन से बहुदर्शिता बढ़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, ह्रदय में एक बार संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं और आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा को पहुँच जाए।  मनोरंजन मात्र के लिए प्रस्तुत किए गए साहित्य से भी चरित्र को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। ”

परन्तु इससे इतर जे ई स्पिनगार्न का कहना है कि ।  Romantic criticism first enunciated the principle that art has no aim except expression, that it aim is complete when expression is complete that beauty has its own excuse for being. अर्थात कविता में नैतिकता के बंधन से मुक्त रहना चाहिए।

सकारात्मक अनुकूलन:

जब हम साहित्य या काव्य के प्रयोजनों की बात करते हैं, तो अनुकूलन या अनुवाद के उद्देश्य भी उसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने चाहिए।  काल के अनुसार अनुकूलन हुए।  अनुकूलन का सबसे बड़ा उदाहरण है रामचरित मानस! तुलसीदास कृत रामचरित मानस राम कथा के पुनर्लेखन का ऐसा उदाहरण है, जैसा कभी न हुआ है और न ही होने की कभी सम्भावना है।  

एजेंडा के अनुसार अनुकूलन

आधुनिक साहित्य में आकर पुनर्लेखन और पुनर्पाठ की परम्परा पुन: आरम्भ हुई।  

परन्तु एक बार ठहर कर यह सोचना ही होगा कि आखिर जो पुनर्पाठ किया गया उसका प्रयोजन क्या था? भारतीय परम्परा में राम और कृष्ण का स्थान किसी से भी छिपा नहीं है।  अत: ऐसा क्यों हुआ कि अचानक से रामायण और महाभारत का पुनर्पाठ और पुनर्लेखन किया गया, उसे प्रतिनायकों के अनुसार किया गया।  

खलनायकों को नायक बनाने के लिए अनुकूलन

प्रतिनायकों को नायक बनाने के लिए adaptation किया गया।  उसमें एड और डिलीट तो किया गया, मगर एड अपनी कल्पना से किया जाने लगा और डिलीट तथ्यों को किया जाने लगा।  इसी क्रम में कई हैं जैसे तुमुल खंडकाव्य, कर्ण की आत्मकथा, द्रौपदी की आत्मकथा, मेघनाद वध, मृत्युंजय आदि आदि! कई हैं, अथाह! इससे हमके नायकों को, जिन नायकों की वीरता की गाथाएं सुनकर शिवाजी ने मुगलों और अंग्रेजों दोनों महाशक्तियों के दांत खट्टे कर दिए थे, डायल्युट किया जाने लगा।  

हमारे भीतर अनुकूलन होता रहा।  और एक वैकल्पिक विमर्श के नाम पर हमने राम, कृष्ण, इंद्र, शिव,विष्णु आदि सभी पर संदेह करना आरम्भ कर दिया।  हमारा ही अनुकूलन होता गया कि हाँ,  इन्होनें गलत तो किया ही! राम ने यह गलत किया, राम ने वह गलत किया और फिर धीरे धीरे हम इतने अनुकूल हो गए कि अपनी संस्कृति पर ही प्रश्न उठाने लगे।

इसमें हमका कोई दोष नहीं है।  

जब राम, कृष्ण की वीरता की कहानियां सुनाई जाती थीं तब शिवाजी जैसे नायक जन्म लेते थे, मगर जब से हमने मूल ग्रंथों को छोड़कर अनुकूलन वाली गाथाएं सुननी आरम्भ की तब से न केवल हम भ्रमित हुए बल्कि हमके बच्चे और भी भ्रमित और अपनी ही संस्कृति पर शर्म करने वाले हो गए।

हम अनुकूलित हो गए कि हां, औरंगजेब फ़कीर था! हम अनुकूलित हो गए कि अकबर हिन्दू और मुसलमान एकता का प्रतीक था, हम अनुकूलित हो गए कि जहांगीर तो सच्चा प्रेमी था, और हाँ हमने ही खुद को इसके अनुकूल कर लिया कि ताजमहल प्यार का प्रतीक है।  हमने खुद को अनुकूलित कर लिया कि बाबर ने किसी को नहीं मारा था।  इसलिए राम के जन्मस्थान पर मस्जिद बन भी जाए तो क्या हुआ? राम ही कौन से सही थे? राम ने भी तो सीता के साथ बुरा किया था? हुंह, बड़े आए!

साहित्य के अनुसार समाज हो जाता है

समाज जैसा साहित्य पढता है वैसा ही हो जाता है।  भक्तिकाल में कुरीतियों पर कबीर फटकार लगाते समय पोलिटिकली सही होने की चिंता नहीं की, हिन्दू हो या मुस्लिम दोनों को फटकार लगाई और शक्ति दी कि जनता लड़ सके।  तुलसी ने सत्य का एक नायक प्रस्तुत किया।

आगे आकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अनुकूलन करते हुए द लाईट ऑफ एशिया का अनुवाद किया।  यद्यपि हम यदि दोनों ही ग्रंथों को देखेंगे तो पाएँगे कि तथ्य को छोड़कर और कोई समानता नहीं है, शैली अलग है, कहने का तरीका अलग है एवं कई बार शुक्ल जी ने अनुकूलित करते हुए स्वतंत्रता ले ली है।  परन्तु उन्होंने इसे अपनी रचना न कहकर अनुवाद ही कहा है।  अनुकूलन का यह सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिसमें हम लगभग विस्मृत हो चुके और राजनीतिक कारणों से कुछ लोगों द्वारा प्रयोग किए जा रहे गौतम बुद्ध के विषय में इतना अच्छा हम पढ़ते हैं।  हम भाव विभोर भी हो उठेंगे।

साहित्य का प्रभाव

इसी प्रकार नरेंद्र कोहली जी का महासमर, महाभारत के adaptation का सबसे अच्छा उदाहरण हैं।  इसमें किसी भी प्रकार से मिथ्या महिमा मंडन नहीं हैं और न ही किसी प्रकार किसी को नीचा दिखाया गया है।

जब हम एजेंडा द्वारा अनुकूलित की गयी रचना पढ़ते हैं तो हम भी अनुकूलित होते जाते हैं, फिर क्या फर्क पड़ता है कि राम को गाली दें, फिर क्या फर्क पड़ता है कि कृष्ण को गाली दें, फिर क्या फर्क पड़ता है कि शिव को भंगेड़ी बोल दें, क्या फर्क पड़ता है कि कृष्ण को छिछोरा बोल दें।  मगर उस दिन फर्क पड़ता है जब आपकी ही बेटी आकर कहती है कि घूँघट तो बुरा है, काला बुर्का अच्छा है।  क्या फर्क पड़ता है जब हम इतने अनुकूलित हुए तो आपकी संतान इससे भी एक और कदम जाकर अनुकूलित हो जाएगी।  जब हम शिवाजी न पढ़कर उसे औरंगजेब और बाबर पढ़ाएंगे तो क्या फर्क पड़ता है कि आपकी बेटी भी हमके अनुकूलन का शिकार होकर एक बड़ी साज़िश में नहीं फंस जाती।  ऐसे ही तो कोई लड़की शाकिब बने अमन के जाल में नहीं फंसती न! ऐसे ही कोई लड़की टुकड़े टुकड़े होकर एक साल बाद नहीं मिलती!

जब हम अपने ही भजनों में अली मौला आदि शब्द भरेंगे, और जब हम अपने नायकों को यह कहकर अपमानित करेंगे कि “ब्रह्मा ने अपनी ही पुत्री से विवाह किया” तो बच्चे सहज ही उधर चले जाएंगे

प्रतिनायकों को नायक न बनाइए, नायकों की शक्ति को शक्ति बनाइए

हम इस षड्यंत्र पर निरंतर और नई दृष्टि से लिखेंगे

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1 COMMENT

  1. A very meaningful essay! We need to be careful about giving right and truthful education to our children.

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