भारत का एक प्रान्त जिसे सबसे शिक्षित कहा जाता है, जिसका नाम हिन्दू-कोसने वाले वर्ग में आदर से लिया जाता है, वहां पर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिन्दुओं के साथ जो छल हो रहा है, वह सब कल्पना से भी परे है। आज जब हिन्दुओं के अस्तित्व के लिए नए नए खतरे पैदा हो रहे हैं, तब केरल की ओर देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि यह छल की सबसे बड़ी सीमा है और इससे अधिक कुछ हो नहीं सकता।
कल ही हिन्दुओं के साथ छल की सारी सीमाएं पार करते हुए कहा कि मंदिर सार्वजनिक संपत्ति है जबकि मस्जिद और चर्च निजी संपत्तियां हैं।
दरअसल यह सारा मामला मालाबार देवस्वाम बोर्ड से जुड़ा हुआ है, जो केरल सरकार का ही एक अंग है और जिसने कन्नूर में मट्टानूर महादेव मंदिर को अपने अधिकार में ले लिया है और वह भी स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद।
इस मामले के विषय में केरल के भाजपा अध्यक्ष ने ट्वीट करते हुए कहा था कि पिनरयी विजयन सरकार ने केरल पुलिस की सहायता से प्रतिष्ठित मट्टानूर महादेव मंदिर को अपने अधिकार में ले लिया है, जबकि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का कोई भी लेनादेना किसी भी मन्दिर प्रशासन में नहीं होना चाहिए।”
परन्तु केरल में है। क्या भारत के संविधान में सभी धर्मों को बराबर अधिकार नहीं दिए गए हैं? या फिर चर्च और मस्जिदों के लिए अलग अलग अधिकार हैं? यदि चर्च और मस्जिदों का प्रबंधन सरकार के हाथों में नहीं है तो मंदिरों का क्यों है? मंदिर ऐसे लोगों के हाथों में क्यों हैं, जिनकी आस्था ही मंदिर में नहीं है?
मंदिर धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकते हैं? यह सब हिन्दुओं के साथ किया जा रहा छल है, जिसे धर्मनिरपेक्षता के जहर के साथ पिलाया जा रहा है।
स्थानीय नागरिक सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उनका कहना है कि सरकार निजी मंदिरों की आय पर नज़र गढ़ाए हुए है। टाइम्स नाउ के अनुसार श्रद्धालुओं ने कहा कि “जब तक अंग्रेजों ने इन मंदिरों को अपने अधिकार में नहीं लिया था, तब तक राजा ही इन मंदिरों का प्रबंधन देखते थे। पर अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमें मंदिर वापस नहीं मिले हैं।”
जब इस विषय में मालाबार देवस्वाम बोर्ड के अध्यक्ष एम आर मुरली से बात की गयी तो उन्होंने कहा कि “यह निजी मंदिर नहीं है और सरकार का है।” मुरली ने कहा कि चूंकि मंदिर का निर्माण राजा ने किया था, इसलिए यह मंदिर सरकार का है और मंदिर सार्वजनिक संपत्ति है, जबकि चर्च और मस्जिद निजी सम्पत्ति हैं।”
भारत के हिन्दू मंदिरों में हिन्दू अपने देव और आराध्यों के लिए धन चढाते हैं, पर उस धन पर उस सरकार की गिद्ध दृष्टि होती है, जो हिन्दू धर्म को मानती ही नहीं है। जिसका एक मात्र उद्देश्य मंदिर और मंदिर परिसर का प्रयोग अपने हित के लिए प्रयोग करना होता है। हिन्दू मंदिरों में हिन्दू प्रशासन नहीं हो सकता, वह तो एक बात है, पर अब केरल सरकार के अनुसार हिन्दू मंदिरों के अनुष्ठानों में भी हिन्दू शायद ही मिलें।
यह भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ पर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल और केवल हिन्दू धर्म का सरकारी रूप से विनाश करना ही है। जहां पूरे विश्व में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है धार्मिक संस्थानों और सरकार के बीच एक दूरी सुनिश्चित होना तो वहीं भारत में इसका एक ही अर्थ है किसी भी प्रकार से बाद हिन्दुओं के धर्मस्थानों को नष्ट करना, हिन्दुओं में आत्महीनता को भरना।
केरल से ही एक और समाचार है कि वहां पर महिलाएँ हिन्दुओं के धार्मिक अनुष्ठान कराया करेंगी। सरकार का कहना यह है कि जब महिलाऐं पूजा कर सकती हैं तो करा भी सकती हैं! यह बात गलत नहीं है और कई स्थानों पर यह परम्परा है। हिन्दुओं में आदिकाल से ही ऐसी महिलाएं हुई हैं, जो यज्ञ कराया करती थीं। हिन्दू धर्म स्वीकारता है।
परन्तु इसके लिए भीतर से प्रेरणा और ज्ञान की आवश्यकता होनी चाहिए, सरकार द्वारा प्रशिक्षण की नहीं। केरल में पिछले दिनों कई महिलाओं को नागराज क्षेत्रं, पेरामंगलम, में के वी सुभाष तंत्री से दीक्षा प्राप्त हुई है। तंत्री का अर्थ केरल में मुख्य पुजारी से होता है। केवी सुभाष ने अपनी बात रखते हुए कहा था “भेदभाव पर आधारित इन नियमों को तोडा जाना चाहिए। बड़ी संख्या में महिलाऐं पूजा के लिए आती हैं, तो उन्हें पुजारी का कार्य क्यों न करने दिया जाए?”
महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म करने का यह कदम तो सराहनीय कहा जा सकता है, परन्तु जो आपत्तिजनक है वह यह कि क्या जिन्हें दीक्षा दी जा रही है, वह हिन्दू धर्म में विश्वास करती हैं या फिर उनके लिए यह कैरियर विकल्प है? दीक्षा को क्या मात्र नौकरी के लिए ही अपनाया गया है या फिर वास्तव में वह उस धर्म में विश्वास है भी कि नहीं?
द न्यू इन्डियन एक्सप्रेस के इस लेख में दो ऐसी भी महिलाओं का उल्लेख है जिनका धर्म हिन्दू नहीं है जैसे आयशा (बदला हुआ नाम) जो पच्चीस वर्ष की है और जिसने अभी हाल ही में पुजारी वाले कार्य करने आरम्भ किए हैं और वह रविवार की शाम हिन्दू धर्म के मन्त्रों को सीखने में व्यतीत करती है और लिनेट पी जॉय, ईसाई धर्म मानने वाली 35 वर्षीय महिला जो कहती हैं कि उन्हें हमेशा से ही एक दिव्य पुकार आती थी और वह अब उसका उत्तर देने में सक्षम हो पाई हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या आयशा, हिन्दू मन्त्र सीख रही हैं या आत्मसात कर रही हैं? आयशा के लिए हिन्दू धर्म क्या है? कैरियर विकल्प या फिर आदर? क्योंकि कुरआन में काफ़िर शब्द की अवधारणा है, तो क्या आयशा कुरआन के विषय में क्या कहेंगी?
या फिर लिनेट, ईसाई मतांतरण के विषय में क्या सोचती हैं?
यह सभी प्रश्न हैं जो एक आम हिन्दू के हृदय में उत्पन्न होंगे?
और यह भी कि क्या वास्तव में हिन्दू धर्म एक सार्वजनिक सम्पत्ति की तरह माना जाएगा? हिन्दुओं को उनकी मान्यताओं के साथ अकेला क्यों नहीं छोड़ दिया जाता है, जैसे मुस्लिम और ईसाइयों को छोड़ा गया है?
अभी केरल में हिन्दू धर्म के साथ यह प्रयोग हुए हैं, देखना होगा कि कहाँ जाकर यह रुकते हैं, रुकते भी हैं या नहीं/