मैं एक बिंदु, परिपूर्ण सिन्धु,
है ये मेरा हिन्दू समाज।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का,
कर सकता बलिदान अभय।
भारत के लोकप्रिय और सर्वमान्य पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी जी की ये पंक्तियां डॉ भीमराव अंबेडकर के व्यक्तित्व के लिए एकदम खरी बैठती हैं। अपनी बात रखूं इससे पहले एक प्रसंग जो मुझे याद है वो बताना चाहूँगा –
भीमराव जब अपने बाल्यावस्था में थे तब उन्हें अन्य छात्रों-शिक्षकों के जूतों के पास बैठकर पढ़ने की शर्त पर विद्यालय में दाखिला मिला। तत्कालीन समय में ऐसी शर्तों पर बच्चे को दाखिला मिलना माँ-बाप के लिए कितना कष्टदायी होगा और वेे स्वयं में कितने अपमानित और ग्लानि से भरे होंगे यह आप और हम समझ भी नहीं सकते, लेकिन तब के समय में अपनी माँ के आँखों में आंसू होने के बावजूद छह वर्ष के भीम ने कहा – ‘माँ मेरा दाखिला करा दो, मैं जूतों के पास बैठकर पढ़ लूंगा।’
बच्चे तो बच्चे होते हैं उन्हें क्या पता की समाज की बेड़ियाँ क्या होती हैं, बच्चों में फर्क करने वाले बड़े लोगों के समाज को भीम का यह उत्तर तो था ही लेकिन यह प्रसंग चरितार्थ करता है कि भीम के लिए शिक्षा की महत्ता कितनी अधिक थी।
परिस्थितियों को प्रमुखता ना देते हुए भीमराव आंबेडकर ने सदैव परिणामों के प्रति चिंता की। आज बाबासाहब इतने प्रासंगिक इसलिए हैं क्योंकि इन्होंने अपने बल पर बिना डगमगाए बाधाएं पार की। अनूठी अध्ययनशीलता, अद्भुत मेधा, हिंदू समाज का भला करने की उत्कट इच्छा, विपन्नता और विचलन में भी ध्येय तथा प्रसन्नता खोज लेने की प्रवृति और बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी धैर्य रखने वाला मन इन्हीं प्रखर गुणों के आधार पर वो राष्ट्र के गौरव बाबासाहब भीमराव अंबेडकर बनें।
प्राथमिक कक्षा में जिन ब्राह्मण मुख्याध्यापक ने भीम के लिए सबसे पहले शिक्षा मंदिर के दरवाजे खोले, इस छात्र की विलक्षण प्रतिभा को पहचाना, स्नेह के कारण प्यार से अपना उपनाम दिया, बाबासाहेब ने वह उपनाम अंबेडकर अंत तक अपने ह्रदय से लगाए रखा। बड़ौदा नरेश महाराज गायकवाड़ का पूरा पूरा सहयोग इस मेधावी छात्र को मिला, उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृति मिली, रियासत को सेवा देते हुए लेफ्टिनेंट का ओहदा मिला।
पिता मृत्यु शैया पर पड़े थे तो पिता की सेवा के लिए छुट्टी ना देने वाले अधिकारी के खिलाफ महाराज से गुहार नहीं लगाई अपने व्यक्तिगत संबंधों का फायदा नहीं उठाया। अधिकारी के प्रति मन में कटुता पाले बगैर पिता की सेवा के लिए रौबदार नौकरी सहज ही छोड़ दिए। मान-अपमान की लड़ाई के बजाय वे सदैव अनुशासित रहे और भारतीय संस्कारों को अपने अंदर जिन्दा रखा। बाद में महाराज से भेंट हुई परंतु दोनों ओर से वही सहजता, वही सहयोग और सम्मान भरा व्यवहार। विषम परिस्थितियों में जूझने के उपरांत भी चीजों को बिगड़ने न देना यह डॉ अंबेडकर की विशेषता रही।
सोचिए, जो लोग बाबासाहेब को वर्ग हितैषी, सवर्ण शत्रु, और विद्रोही व्यक्तित्व का चित्र खींचते हैं, उनका स्वयं का चित्र अधूरा और धूर्तता भरा है। बाबासाहेब किसी वर्ग विषेश के लिए नहीं बल्कि पूर्ण समाज और राष्ट्र का उत्थान चाहने वाले नेता थे।
सन 1949 के अंत में एक भाषण जिसका शीर्षक था “Country Must Be Placed Above Community” (देश समुदाय से ऊपर रखा जाना चाहिए) में बाबासाहेब ने कहा था कि ‘यहां जाति, वर्ग और पंथों के विभाजन की नहीं, एकात्मता की कल्पना है। देश की एकता और स्वतंत्रता के लिए छोटी-बड़ी जातियों में बंटे वर्गों को एकजुट होना चाहिए और मजहब, पंथ, जाति ये देश से बड़े नहीं हो सकते, यह बाबासाहेब का स्पष्ट मत था। सोचिए तत्कालीन समय में सामाजिक दंश झेलने के बावजूद देश और हिन्दू समाज के प्रति कितनी आस्था और प्रेम उनके हृदय में रही होगी।
देश की स्वतंत्रता के उपरांत देश को चलाने हेतु लिखित संविधान देकर देश की उन्नति और सुव्यवस्थित रखने के लिए बाबासाहेब का योगदान अविस्मरणीय और अमर रहेगा। बाबासाहेब के इस योगदान के अतिरिक्त भी एक केंद्रीए मंत्री के बतौर उनके कई योगदान थे जो उन्हें हमारे लिए राष्ट्रिय धरोहर बनाते हैं।
अतीत में बाबासाहेब के जीवन से जुड़ें ऐसे दर्जनों प्रसंग होंगे जिनको आप और हम अनेकों पुस्तकों के माध्यम से जान सकते हैं लेकिन जो विषय मैं आज रखना चाहता हूँ वो उनके विचारों से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में भीमराव आंबेडकर जी देश के राष्ट्रिय नेताओं के सबसे चहेते चेहरे हो गए हैं और समय दर समय बाबासाहेब की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। दल चाहे क्षेत्रीय हो या राष्ट्रिय, दोनों को बाबासाहेब के आशीर्वाद की जरुरत है।
बाबासाहेब जिन कुरीतियों से लड़कर आगे बढ़े और जिन सामाजिक सुधारों के सूत्रधार थे आज ठीक इसके विपरीत भीमराव आंबेडकर जी को एक वर्ग विषेश का नेता बनाकर चित्रित किया जाता है, यह अत्यंत दुखद है और कुंठित सोच है। बाबासाहेब इस देश के नेतृत्वकर्ता थे और एक प्रखर राष्ट्रभक्त भी, उन्होंने सदैव देश की उन्नति और पिछड़ों (किसी भी वर्ग से हो) की उन्नति की वकालत की।
पिछले 60 वर्षों से कांग्रेस ने शासन किया लेकिन परिस्थितियों में बड़ा बदलाव आज तक नहीं हो सका, देश में चल रहे छोटे बड़े कई योजनाओं का नाम भी एक नेहरू-गांधी परिवार के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया। सबसे पाखंडी पहलू यह है कि वही कांग्रेस जिसने नेहरू-गांधी परिवार की महिमा के निर्माण के चलते डॉ अंबेडकर, बोस, पटेल जैसे दिग्गजों की विरासत को दबा दिया, आज उन्हें कांग्रेस की जागीर कहती है! कांग्रेस जैसी पार्टियाँ जो आज अंबेडकर की जय जय कार कर रही हैं, जमीनी स्तर पर पिछड़े वर्गों के आर्थिक ओर सामाजिक उत्थान के लिए कुछ नहीं कर रही हैं।
चाहे JNU का मुद्दा हो या हैदराबाद विश्विद्यालय का मुद्दा, हर जगह बाबासाहेब की तस्वीर आगे रखकर चंद लोग अपनी राजननीति की रोटी ही सेंक रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि बदलाव नारों से नहीं इरादों से होते हैं, संकल्प से होते हैं – जो बाबासाहेब ने देश के लिए लिया था।
बाबासाहेब और उनकी माताजी शिक्षा में ही सभी समस्यायों का हल मानते थे, लेकिन इस आधुनिक युग में शिक्षा व्यवस्था की, और खास-कर के सरकारी पाठशालाओं की, जो दुर्गति हुई है इस वजह से शिक्षा अब दलितों से और दूर हो गई है। सबसे अधिक निरक्षर आबादी दलित समाज की है। कई दलित बच्चों ने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है आजतक। और RTE (शिक्षा के अधिकार) क़ानून ने कम-बजेट वाले निजी स्कूलों को भी बंद होने पर मजबूर कर दिया है। कौन है इन विषम परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार? यह विडंबना देखिए की गुलाम भारत में भीमराव आंबेडकर विदेश जाकर दीक्षित होते हैं लेकिन स्वतंत्र भारत में बच्चों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने में सरकारें नाकाम है। हमें सरकारी और निजी स्कूलों में क्रांतिकारी बदलाव करना होगा – उन्हें अधिक से अधिक स्वायत्तता दे कर, और सीखने के परिणामों के लिए जवाबदेह बनाकर।
वर्तमान में नेताओं द्वारा बाबासाहेब का चित्र और प्रतिमाएं लेकर दलित समाज को भावुक कर अपने वोटबैंक की राजनीति को साधने का जो प्रयास जाऱी है, अगर बाबासाहेब अभी जीवित होते तो यह सब देखकर निश्चित ही वर्तमान परिस्थितियों को लेकर शर्मिंदा होते।
अंबेडकर जी स्वयं इस देश के लिए क्या विचार रखते थे, देशहित में क्या सोचते थे, अब यह कोई विषय भी नहीं रह गया। अब बस पिछड़ों और दलितों को भावनात्मक तरीके से उनका वोट लेने हेतु हर पार्टी ललाहित है लेकिन इनके दूरगामी परिणाम बहुत अच्छे नहीं होंगे। अंबेडकर जी की पूजा की जगह हम उनके विचारों पर खरा उतरने हेतु नेक विचारों से आगे बढ़ेंगे तो जो संकल्प बाबासाहेब ने लिया था वो हम और आज की पीढ़ी द्वारा पूर्ण हो सकता है। बाबासाहेब के धूमिल हो रहे श्रेष्ठ विचारों का प्रसार नितांत आवश्यक भी है और समय की मांग भी।
लेख को ज्यादा लंबा ना खींचते हुए बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के 125वीं जन्मतिथि पर नमन करते हुए हमें यह संकल्प लेना चाहिए की हम देश को समरस बनाएँगे और देश की उन्नति में योगदान करेंगे। देश में हो रहे किसी भी उत्पीड़न या शोषण के मामले के खिलाफ स्वर ऊँचा करेंगे और हिंदू समाज को एक जुट करेंगे।
सामाजिक समरसता के पुरोधा, प्रखर देशभक्त, संविधान निर्माता और हम जैसे करोड़ों युवाओं के प्रेरणाश्रोत बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर जी के जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन।
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