भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सुदर्शन टीवी के सुरेश चव्हानके के “यूपीएससी जिहाद” वाले केस/वाद की सुनवाई करते हुए एक प्रश्नवाचक टिप्पणी की। रिपोर्टों के अनुसार, चंद्रचूड़ ने सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम के सम्बन्ध में कहा , “यह बहुत ही छलपूर्ण है! क्या इसे स्वतंत्र समाज में सहन किया जा सकता है? ” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ आरम्भ से ही सुदर्शन टीवी के विरोध मे प्रतीत होते हैं , परन्तु कुछ समय के लिए यह भूलकर हम भारत में उनके द्वारा संदर्भित ‘स्वतंत्र समाज’ की कार्यशैली पर दृष्टि डालते हैं।
कुछ दिन पूर्व ही, “प्रख्यात” क्रिकेट प्रेमी और अंशकालिक इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक ट्वीट किया ।यह ट्वीट ‘12000 साल पहले भारत की संस्कृति का अध्ययन’ करने के लिए स्थापित एक सरकारी समिति के विषय में था। कई ईसाई मानते हैं कि दुनिया ४००४ ईसा पूर्व में बनाई गई थी, तो इस विषय पर उन्हें आपत्ति हो सकती है : कि 12000 वर्ष पूर्व कैसी सभ्यता! किन्तु गुहा, जो कि शायद ईसाई नहीं हैं ,की आलोचना का बिंदु भिन्न है ।
The members of this sarkari committee that shall define “Indian culture” for us are all male, and almost all Brahmins by the sound of their surnames. https://t.co/eJmwr94OvR
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) September 16, 2020
गुहा, जो कि भारतीय “स्वतंत्र समाज” उदारवादियों के प्रतिनिधि हैं, इस बात का ओर संकेत करते हैं कि इस समिति के लगभग सभी व्यक्ति ब्राह्मण हैं। गुहा जी द्वारा की गई यह ब्राह्मण गणना कोई नई बात तो है नहीं। नृशंस पुलवामा हमले के समय इस तरह की जातिगत गणना की होड़ सी लग गई थी । कारवां मैगजीन के लेख में,दावा किया गया था कि ‘हुतात्मा सैनिकों’ में से 40 में से मात्र 8 ही ‘उच्च जाति’ के थे, और उच्च जाति के लोग ‘निचली जाति’ के सैनिकों को इस प्रकार मृत्यु के द्वार पर भजेते हैं । हालाँकि इस विमर्श से यह बात नदारद है कि हमारे प्रधान मंत्री जी कोई उच्च जाति से नहीं है और यह 20 % हुतात्मा सैनिक भारत में उनकी जातिगत जनसंख्या के अनुरूप ही हैं।
हाँ ,किसी ने यह बिन्दु नहीं उठाया कि उन 40 हुतात्मा सैनिकों मे से मात्र 1 या 2.5 प्रतिशत ही हिस्सेदारी मुसलमानों की थी, जो कि भारत में उनकी उनकी जनसंख्या के अनुरूप बहुत ही कम है । इस विषय से तो ‘सेकुलरवाद’ संकट में आ जाएगा। यह भी सुनिश्चित है कि ऐसा कोई भी प्रश्न न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा उल्लेखित “स्वतंत्र समाज” के मानदंडों का उल्लंघन के रूप में ही देखा जायेगा । किन्तु यह भी स्पष्ट है कारवां के लेख, जिसका उपयोग जातिवादी कट्टरपंथियों द्वारा किया गया, की निंदा अधिकांश ‘उदारवादी’ नहीं करेंगे ।
गुणात्मक रूप से, सुदर्शन टीवी द्वारा की गई ‘यूपीएससी परीक्षा’ उत्तीर्ण करने वालों में मुसलमानों की गणना और कारवां द्वारा हुतात्मा सैनिकों की जातिवार गिनती में कोई अंतर नहीं है। साथ ही, सभी को यह स्मरण रहना चाहिए कि कारवां का आरोप हवा-हवाई है, जबकि सुदर्शन टीवी की पड़ताल में वास्तव में कुछ सच्चाई है। हिंदूपोस्ट ने इस विषय पर एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया था, जिसके निष्कर्ष वास्तव में सुदर्शन टीवी के आरोपों को सत्य सिद्ध करते हैं ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषय पर बहस होनी चाहिए और अभद्र भाषा पर अंकुश भी लगाना चाहिए। इसमें कोई शंका नहीं है। परंतु एक समुदाय के विरुद्ध आधारहीन आरोप पर चुप्पी और दूसरे समुदाय की न्यायोचित आलोचना को भी लाल आँखों से देखना ,इस भेद-भाव का अंत होना चाहिए । किसी अवसर पर , ऐसे उदारवादी ‘नोबेल चयन समिति’ की आलोचना भी कर सकते थे कि भारत में जन्में हुए लोगों में 10 में से 8 नोबेल ब्राह्मणों को क्यों दिए गए। क्या कभी वे यह पूछने का साहस भी करेंगे कि भारत में आतंकवादी हमलों का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा ही क्यों किया जाता है?
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ पूरे विषय को समग्रता रूप से देखकर तथा अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए विषय का दायरा बढ़ाकर उसपर उचित निर्णय लेना देश के प्रति सच्ची सेवा होगी ।
(प्रमोद सिंह भक्त द्वारा इस अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद)
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