इन दिनों भारत में हिन्दू स्त्रियों को बरगलाने के लिए कई सिंगल मदर उभरकर आई हैं, और कई फेमिनिस्ट वेबसाइट्स हैं, जो बार बार सिंगल मदर अर्थात एकल माँ की अवधारणा पर जोर देती है। वैसे तो सिंगल मदर की अवधारणा न ही अलग है और न ही नई, मगर फेमिनिस्ट वेबसाइट्स ऐसा नहीं मानती हैं। वह इसे समाज को तोड़ने वाली एक अवधारणा बनाकर प्रस्तुत करती हैं, और ऐसा दिखाती हैं कि हिन्दू धर्म में स्त्रियों को हमेशा से ही दबाकर रखा गया है, पीड़ित, दबी कुचली! मगर वह यह नहीं बतातीं कि भारत का आज जो नाम है, वह भरत के नाम पर है, वही भरत, जिसका छ वर्ष तक पालन पोषण सिंगल मदर ने किया था, और वह सिंगल मदर समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझते हुए, अपने बच्चे को इतना शक्तिशाली बनाती है कि वह अपने शैशव में ही सिंह के दांत गिनने लगता है। और फिर जाकर सौंप देती हैं अपने पति को, पूर्ण स्वाभिमान के साथ!
शकुन्तला की कहानी: (कहानी के तथ्यों का महाभारत से संदर्भ लेकर पुन:प्रस्तुतिकरण है)
“माँ, मेरे पिता कौन हैं? सब मुझसे कहते हैं कि मैं किसी राजा की संतान हूँ, इस आश्रम का अंग नहीं हूँ? कौन हूँ मैं?” बालक सर्वदमन ने अपनी माँ शकुंतला से पूछा! शकुन्तला दुष्यंत की प्रतीक्षा करते हुए अत्यंत कृशकाया हो गयी थी। यद्यपि तेज से देह जगमगाती रहती थी!
उसके नेत्र मार्ग पर दुष्यंत की सेना की राह तकते तकते थक गए थे। वह क्लांत हो मौन बैठ गयी थी। उसके मौन में एक प्रतीक्षा थी। समय से प्रश्न थे, पर सकारात्मक प्रतीक्षा से भरे हुए वह प्रश्न थे। वह सोचती कदम उठाए, और लज्जावश उसके कदम रुक जाते! उसकी स्मृति में अभी भी वह प्रथम स्पर्श व्याप्त था, जब दुष्यंत ने उसे छुआ था। आज भी वह प्रणय याचना करते दुष्यंत की आँखों को नहीं विस्मृत कर पाती है। जब भी वह अपने पुत्र सर्वदमन को देखती है तो उसकी आँखों में दुष्यंत की छवि उभरती है। हाँ, वह पुत्र को देखकर जीती है, उसे अपने परम प्रतापी पति के उत्तराधिकारी के रूप में प्रशिक्षित भी तो करना है!
वह कौन सा क्षण था जब दुष्यंत ने उसके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा था और वह भी उस प्रस्ताव के सम्मुख समर्पण कर बैठी थी। तथापि वह चाहती थी कि विवाह उसके पिता ऋषि कण्व की अनुमति से हो। तब दुष्यंत ने कहा था “हे सुन्दरी मैं तुम्हें पाने के लिए इच्छुक हूँ। तुम भी मुझे स्वीकार करने की इच्छा रखकर मुझे गान्धर्व विवाह के माध्यम से अपना पति चुनो!” परम प्रतापी राजा को अपने सम्मुख यूं याचक बने अप्सरा पुत्री शकुन्तला को अपने भाग्य पर ईर्ष्या हो आई थी। क्या वह सच में महारानी बनेगी? मगर इस गान्धर्व विवाह से यदि पुत्र होगा तो? और पिता ने यदि स्वीकार नहीं किया तो? शकुन्तला के मस्तिष्क में यह प्रश्न उभर आया
“हे राजन, यदि गान्धर्व विवाह धर्म का मार्ग है तो मैं आपसे विवाह के लिए तैयार हूँ, परन्तु क्या आप यह वचन देंगे कि मेरा पुत्र ही आपका उत्तराधिकारी हो?”
दुष्यंत के मुख पर एक मुस्कान तिर आई! वह बोले “तुम्हारा पुत्र ही मेरा उत्तराधिकारी होगा! हे शुचीस्मिते शीघ्र ही मैं तुम्हें अपने नगर ले चलूँगा!” ऐसा कहकर राजा दुष्यंत ने अनिन्द्य सुन्दरी शकुन्तला से विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया तथा एकांतवास किया। उस एकांतवास की स्मृति को अब तक देह से संजो कर रखे हुए है शकुन्तला! कितनी मधुर हैं यह स्मृतियां! परन्तु दुष्यंत के विदा लेते समय वह उनके चरणों में गिर पड़ी थी! राजा ने देवी शकुन्तला को फिर उठाकर बार-बार कहा- ‘राजकुमारी! चिन्ता न करो। मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूं, तुम्हें अवश्य ही बुला लूंगा।’
पिता ने गान्धर्व विवाह का भान होने पर कुछ नहीं कहा था। बस मुस्करा कर यह बोले “तुम्हारा पुत्र अत्यंत बलशाली होगा!”
शकुन्तला ने एकाकी रहकर अपने पुत्र को इतना बलशाली बनाया कि छ वर्ष की अवस्था में ही वह बलवान् बालक कण्वत के आश्रम में सिंहों, व्यांघ्रों, वराहों, भैंसों और हाथियों को पकड़ कर खींच लाता और आश्रम के समीपवर्ती वृक्षों में बांध देता था।
वह कभी कुपित होती तो पिता कण्वश कहते “कुपित न हो पुत्री, यह पुत्र ही इस देश का भविष्य है शकुंतले! वीर स्त्रियाँ ही वीर पुत्रों को जन्म देती हैं। तुमने इस बालक का लालन पालन अकेले जिस प्रकार किया है, वह पूरे विश्व के लिए एक उदाहरण है शकुन्तला!”
एक दिन सर्वदमन का नाम भरत होना था, यह नियत होकर आया था, शकुन्तला ने एकाकी रहकर अपने पुत्र को जिस प्रकार श्रेष्ठ बनाया था, वह इस भूमि की विशेषता है! यहाँ की स्त्री शक्ति स्वरूपा है, विपरीत परिस्थितियों में भी वह साहस नहीं खोती। समय आने पर उन्होंने अपने पुत्र और उसके पिता का मेल कराया, दुष्यंत की धरोहर सौंपी, मगर रोई नहीं, साहस नहीं खोया!
परन्तु भारत की इन स्त्रियों की कहानी को, इन वीर और स्वाभिमानी स्त्रियों की कहानी को जब एक एजेंडे के अंतर्गत पुरुष विरोध में और वह भी हिन्दू पुरुषों के विरोध में सुनाया जाता है तो लडकियां अपने ही धर्म से दूर हो जाती हैं। उनमे हृदय में अपने ही धर्म के प्रति एक ग्लानिभाव उत्पन्न होता है।
यह यौन स्वतंत्रता, निर्णय लेने की स्वतंत्रता और पवित्र काम की कथा है, जिसका विस्तार हर जनमानस तक होना चाहिए
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