हाल ही में हरियाणा सरकार ने एक निर्णय कर एक नए विमर्श को जन्म दिया और वह था “गोरखधंधा” शब्द पर प्रतिबन्ध लगाना। गोरखधंधा शब्द का प्रयोग अनैतिक, अवैध कार्यों के लिए किया जाता है। सरकार के अनुसार उन्होंने यह निर्णय गोरखनाथ समुदाय की मांग पर लिया है। गोरखनाथ समुदाय ने मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर से मिलकर इस शब्द के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी। अब समुदाय की मांग पर इस संबंध में आदेश जारी कर दिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर ने बताया कि इस शब्द का प्रयोग आम तौर पर अनैतिक कामों के लिए किया जाता है और जिसके कारण गोरखनाथ समुदाय के लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। और उन्होंने यह निर्णय गोरखनाथ समुदाय के प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात के बाद लिया।
मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर ने यह भी कहा कि संत गोरखनाथ एक संत थे और किसी भी राजभाषा, भाषण या किसी भी अन्य सन्दर्भ में इस शब्द का प्रयोग उनके अनुयायियों की भावनाओं को आहत करता है। और चूंकि प्रदेश में गुरु गोरखनाथ के अनेक अनुयायी हैं, तो उनकी भावनाएं इस शब्द से आहत नहीं होने देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश में किसी भी समुदाय के किसी नाम या शब्द को लेकर आपत्ति जताई गयी है तो सरकार ने उस पर कदम उठाए हैं।
इस निर्णय के बाद उत्तर प्रदेश में भी यह मांग उठने लगी है और कन्नौज के सांसद सुब्रत पाठक ने मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ से यह मांग की है कि वह भी इस शब्द पर प्रतिबन्ध लगाएं। उन्होंने उनसे पत्र लिखकर अनुरोध किया कि मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ स्वयं गुरु गोरक्षनाथ के अनुयायी और उस मठ के महंत हैं, तो इस स्थिति में उत्तर प्रदेश में भी इस शब्द के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।
गुरुगोरखनाथ द्वारा योग की तमाम जटिल क्रियाओं एवं चमत्कारिक सिद्धियों के कारण गोरखधंधा शब्द प्रचलन में आया प्रतीत होता है, जो संभवतया उस समय जटिल क्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाता होगा। कालान्तर में जब अंग्रेज आए और जिन्हें योग, आदि की समझ नहीं थी और जो स्वयं को श्रेष्ठ एवं हिन्दुओं को हीन मानते थे उन्होंने इस शब्द का उपहासजनक स्वरुप प्रस्तुत किया होगा, या फिर औपनिवेशिक शिक्षा पढ़कर निकले हुए आत्मगौरव से हीन शिक्षित वर्ग ने इस शब्द का प्रयोग गलत कार्यों के लिए करना आरम्भ कर दिया होगा। क्योंकि उनके भीतर स्वयं के अस्तित्व को लेकर हीनभावना थी।
प्रत्येक शब्द की अपनी एक धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है, जिसे भिन्न सम्प्रदाय वाला व्यक्ति नहीं समझ सकता है एवं जब वह समझता नहीं है तो उसकी मनचाही व्याख्या का आरम्भ हो जाता है। जैसा गोरखधंधा शब्द में हुआ। यह शब्द प्रचलित हुआ था जटिल यौगिक क्रियाओं के लिए, परन्तु जिनके लिए योग या अन्य हिन्दू क्रियाएं झूठ थीं, उनकी शिक्षा के प्रभाव में आए लोगों ने इस शब्द के साथ ही नहीं बल्कि “गुरु” शब्द की गरिमा को भी घटा दिया।
जिन गुरु को हिन्दू धर्म में भगवान को पाने का माध्यम बताया गया था उन्हें अब “गुरु-घंटाल” आदि कहना आरम्भ कर दिया गया क्योंकि गुरु का अनुवाद टीचर कर दिया गया था। गुरु कभी टीचर या मेंटर नहीं होता। परन्तु यह सांस्कृतिक अंतर था, एवं यहाँ पर समतुल्यता का सिद्धांत लागू होकर भी लागू नहीं होता है। क्योंकि गुरु एवं टीचर तथा मेंटर दोनों ही भिन्न शब्द ही नहीं है बल्कि भिन्नार्थी भी हैं।
जब गोरख, गोरखा आदि शब्द का अवमूल्यन कर दिया गया तो उसके बाद पूरी की पूरी संस्कृति में ही शब्दों के माध्यम से आत्महीनता भरने का दुष्प्रयास किया गया। जो क्षेत्र गाय को पूजते थे, अर्थात उत्तर भारत, उन्हें काऊ बेल्ट अर्थात गोबरपट्टी के लोग कहा गया, जिस क्षेत्र में अपने धर्म और देश पर बलिदान होने के लिए तत्पर लोग होते हैं, और जो लोग प्रकृति के हर कण में ईश्वर को देखते थे, उन्हें सबसे पिछड़ा घोषित कर दिया गया क्योंकि वह गाय पालते थे एवं गाय के लिए रोटी निकालते थे।
गाय के लिए प्रथम रोटी ग्रास के रूप में निकालने वाले पिछड़े एवं साम्प्रदायिक हो गए तथा गाय को मारकर रोटी में लपेट कर खाने वाले प्रगतिशील हो गए! यह मात्र एक शब्द का नैरेटिव था, इसी कारण ऐतिहासिक सन्दर्भ लिखने के लिए शब्दों का चयन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
यह अवधारणा अचानक से नहीं आई। जिनके लिए काऊ अर्थात एक गाय एक पशु ही थीं, वह कभी भी इस बात को समझ नहीं पाए कि हिन्दू धर्म में प्रभु विष्णु ने एक अवतार गौ-रक्षा के लिए ही किया था और गौ-रसों की महत्ता को समझाने के लिए किया था। उन्होंने स्वयं गैया चराई थीं। गाय इस भारत देश की अर्थव्यवस्था का आधार थी, और जब तक गाय इस देश की अर्थव्यवस्था का आधार रही, तब तक देश समृद्ध रहा। जैसे जैसे औपनिवेशिक सोच हावी होती गयी, वैसे वैसे ही देश के स्थानीय कौशलों का विनाश होता गया, क्योंकि औपनिवेशिक गुलाम शिक्षा ने आपके मन में आपकी अपनी ही भाषा, आपके अपने कार्य एवं आपके अपने विशिष्ट कौशल के विषय में हीनभावना भर दी।
इसी प्रकार एक और शब्द है जो सभ्यता के अर्थ को पूर्णतया परिवर्तित कर देता है। और वह है भिक्षा! भिक्षुक को भारतीय संस्कृति में कभी भी भिखारी नहीं माना गया। भिक्षुक का स्थान हिन्दू समाज में अत्यंत उच्च पायदान पर था क्योंकि वह समाज से भिक्षा लेकर एक स्थान से दुसरे स्थान जाकर ज्ञान का प्रचार करते थे या फिर जो भगवान की भक्ति का प्रचार करते थे। वह भिक्षा इसलिए समाज से लेते थे ताकि उनके भीतर से झूठे “मैं” का बोध समाप्त हो जाए, एवं अपने आवश्यकतानुसार ही भिक्षा लेते थे। गुरुकुल के छात्र भी गाँव से भिक्षा मांगकर लाते थे और उसी प्रकार यह परम्परा चलती थी।
यह परम्परा थी जिसमें या तो ज्ञानी या ज्ञान की चाह रखने वाला व्यक्ति समाज से भिक्षा मांगता था जिससे वह अपने समाज से निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञान की धारा को बनाए रखे। यह हुआ भिक्षा या भिक्षुक का अर्थ, परन्तु जैसे ही अंग्रेजी में इसका अर्थ beggar कर देते हैं, तो हम उसे एक दीन-हीन निराश्रितों की श्रेणी में रख देते हैं, जिसका सब कुछ लुट गया है और जिसके पास कुछ बचा नहीं है! भिक्षुक का अंग्रेजी समतुल्य कहीं से भी beggar नहीं है। जब भिक्षुक का अंग्रेजी पर्याय हम beggar लेकर आगे बढ़ते हैं, रचना का सच्चा अर्थ कभी भी पाठक नहीं उठा पाएगा। गौतम बुद्ध भिक्षा मांगते थे, परन्तु दीक्षा देने के लिए! यहाँ सांस्कृतिक शब्दों और अवधारणाओं को समझे जाने की आवश्यकता है, यहाँ भाषांतरण तो हो रहा है, परन्तु अनुवाद नहीं! या तो इसके लिए कोई नया ही शब्द गढ़ने की आवश्यकता है या फिर भिक्षुक को भिक्षुक के रूप में लेने की, क्योंकि इसका पर्याय भिखारी भी नहीं है!
परन्तु औपनिवेशिक शिक्षा पढ़कर हिन्दू शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करने वाले शब्दों के इतिहास पर और न ही शब्दों की परम्परा पर ध्यान देते हैं। यही कारण है कि हिन्दू धर्मग्रंथों की मनमानी व्याख्या हर स्थान पर हो रही है। औपनिवेशिक गुलाम शब्दों के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग ही किया जाना चाहिए, फिर चाहे वह अंग्रेजी में हों या अनुवाद में! एवं जो भी शब्द सनातन की परम्परा को गलत अर्थों में व्यक्त करते हैं, उनपर रोक लगनी ही चाहिए!
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