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Friday, April 19, 2024

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सखी एवं बलिदानी झलकारी बाई को स्मरण करने का दिन: 22 नवम्बर

19 नवम्बर को झांसी की रानी का जन्मदिन होता है तो आज 22 नवम्बर को उनकी हमशक्ल एवं सबसे प्रिय सखी झलकारी बाई का! यह दोनों एक दूसरे की पूरक थीं, झलकारी बाई का बलिदान एवं साहस आज की स्त्रियाँ भूल गयी हैं, क्योंकि उनकी सारी रचनात्मकता सीता जी केआधार पर समस्त पुरुष जाति को अपराधी ठहराने की हो चली है! और जो एक विमर्श की धारा झलकारी बाई को स्मरण करती है, वह इसलिए जिससे झांसी की रानी को शोषण करने वाली बता सके कि कैसे रानी ने अपनी जान बचा ली और झलकारी बाई को अंग्रेजों के हवाले कर दिया।

हिन्दुओं को परस्पर जातियों में और विभाजित करने के लिए अब झलकारी बाई जैसी नायिकाओं को प्रयोग किया जाने लगा है और कहा जाने लगा है कि रानी लक्ष्मीबाई वीर नहीं थीं, बल्कि उन्हें झलकारी बाई की वीरता का श्रेय दिया जाता है! क्या यह सत्य है? इस बात को समझना होगा कि यदि झांसी की रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों के विरुद्ध यह हुंकार नहीं भरतीं कि वह अपनी झांसी अपने जीतेजी किसी को नहीं देंगी? तो क्या झलकारी बाई को अपनी वीरता दिखाने का अवसर प्राप्त होता? जब सभ्यता एवं संस्कृति के लिए युद्ध होता है तो विमर्श सामूहिक होता है, एवं परस्पर गुंथा हुआ होता है! झलकारी की वीरता एवं इतिहास में झलकारी बाई के आने पीछे सबसे बड़ा कारण वह भाव है जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी हुंकार से जागृत किया!

जिस भाव को रानी ने आश्वस्त किया कि हम लड़ेंगे! परन्तु हिन्दुओं को तोड़ने वाला विमर्श यह प्रमाणित करने पर तुला हुआ है कि दरअसल हिन्दुओं का इतिहास बहुत ही विभाजित इतिहास था और बहुत सामाजिक भेदभाव से भरा हुआ था। वह नायक जो हमारे जनमानस में बसे हुए हैं, वह पितृसत्ता, बहुजन, हरिजन विमर्श के दायरे में झोंके जा रहे हैं। झलकारी बाई ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के स्थान पर प्राण अवश्य दिए थे, परन्तु यह भी सत्य है कि झलकारी बाई इतिहास में इसीलिए बसी हुई हैं क्योंकि उन्होंने अपनी नायिका के लिए प्राणों का बलिदान दिया।

कौन थीं झल्कारी बाई और क्यों विभाजन का विमर्श उन्हें अपना शिकार बना रहा है? उनकी कहानी “कहानी” में ढालकर

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1857 के संग्राम में, अंग्रेजों के प्रति विद्रोह का झंडा उठाने वाली रानी अब परेशान थीं क्योंकि झांसी के दुर्ग के बाहर से हजारों की संख्या में प्रवेश करना जारी था। तीन टुकड़ियों में बंटी सेना की गोला बारूद वाली टोलियाँ दुर्ग में प्रवेश करने वाली टुकड़ी के लिए कवर का काम कर रही थीं। रानी लक्ष्मी बाई की स्त्री सैनिक धीरे धीरे कर खेत हो रही थीं। रानी, बिना सोचे समझे बस कदम बढ़ाए जा रही थी। और अपनी झांसी पर गोरों के साथ अपनी प्रजा के शव देखकर दुखी होती जा रही थी। “क्या मेरे जीतेजी झांसी इन गोरों की गुलाम हो जाएगी?” वह जितना उन्हें आगे बढ़ते देखती उतना ही प्रश्नों में डूबती जाती।!”

झांसी अब अंग्रेजों के चंगुल में फंसने ही जा रही थी। मगर अभी उसके मध्य इतिहास की दो महान नायिकाएं भी लोक में बस जानी थीं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक थीं, जिनके जन्मदिन भी लगभग एक साथ थे एवं जिनकी कदकाठी, रूपरंग एक ही जैसा था!

जहां एक तरफ मनु अर्थात झांसी की रानी के ह्रदय में विवाह के उपरान्त झांसी के दिन बार बार आ रहे थे, तो वहीं उनकी साथी झलकारी बाई ने तो जन्म ही झांसी की धरती पर लिया था। उसे कब दिन याद होगा, मगर अम्मा उसकी बताती थीं कि वह द्वादस को हुई थी। उसे नहीं पता था कि इतिहास में वह दिन अमर हो जाएगा।

22 नवम्बर 1830, झांसी में भोजला गाँव में धनिया और मूलचंद्र के घर एक सांवली सुन्दर बच्ची ने जन्म लिया था। झलकारी बचपन से ही बहादुर थी। बहादुर झलकारी का ब्याह झांसी के वीर युवक पूरन कोरी से हुआ था। वह दोनों रति और कामदेव की छवि लगते। दोनों ही सुन्दर और दोनों ही वीर। झलकारी बाई पूरन जैसा जीवनसाथी पाकर खुद पर इठलाती। पूरन ने कभी उसके तलवार चलाने और साहसिक कार्यों पर रोक नहीं लगाई, बल्कि वह तो खुश ही होता था।

मगर झलकारी की आँखों में आज आंसू थे, क्योंकि उसकी प्यारी रानी, प्यारी सखी और उसकी झांसी, सभी खतरे में थीं! उसके जीवन का उद्देश्य जैसे उसे बुला रहा था! उसे लग रहा था कि इतिहास में अपना नाम दर्ज करने का अवसर तो उसे मनु ने दिया था। रानी कब मनु बन गयी थीं वह समझ न पाई थी। अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए जब सशस्त्र महिला दल का गठन किया तो रानी लक्ष्मी बाई ने उसका उत्तरदायित्व झलकारी बाई के ही कंधे पर डाल दिया।

इधर सैनिक बढ़ रहे थे और रानी के घिरने का खतरा मंडराने लगा था। रानी उलझन में थी कि क्या किया जाए? “मैं क्या करूं?”  “आप झांसी की रानी हैं, आप यहाँ से जाएं, मैं सब सम्हाल लूंगी!”  झलकारी बाई ने मनु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। उसे लगा जैसे वह क्षण आ गया है, जब वह अपनी भूमि के काम आ सकती है। रानी और वह, दोनों ही कदकाठी में एक समान थीं और दोनों का चेहरा भी काफी मिलता था। इतना मिलता था कि कभी कभी परिचित ही धोखा खा जाते।

झलकारी झांसी के दुर्ग में रह गयी और राजकुमार को पीठ पर बाँध कर रानी अपने दुर्ग को झलकारी के हवाले करके चल दी!

किसे पता था कि इतिहास मनु के आगे बढ़ते ही बढ़ जाएगा, और झलकारी की चीखें आज तक इतिहास के पन्नों में दब जाएंगी। अम्मा का कारज तो हो जाएगा मगर झलकारी कहीं खो जाएगी। अंग्रेजों ने महारानी के धोखे में झलकारी को पकड़ा। कहा जाता है कि झलकारी पर बहुत अत्याचार किए गए थे!

और झलकारी ने अपनी झांसी के लिए प्राण त्याग दिए थे! परन्तु इतिहास ने झलकारी को एक कोना देकर ठीक नहीं किया और इस कारण विभाजनकारी एजेंडा चलाने वालों ने झलकारी के बलिदान को भुनाना आरम्भ कर दिया। सत्य यही है कि भारत में चाहे मनु हो या झलकारी, दुश्मन को नाको चने चबाना सभी को आता था।

ऐसे में इतिहास को ऐसा नहीं करना चाहिये था, स्त्रियों के सामने झलकारी बाई और लक्ष्मी बाई सभी का इतिहास लाना था क्योंकि यदि इतिहास ने झलकारी को यदि स्थान नहीं दिया या हमने अभी भी झलकारी बाई को स्मरण नहीं किया तो कास्ट, मनुवाद एवं ब्राह्मणवाद आदि के चलते विषैला और समाज तोड़ने वाला विमर्श झलकारी बाई जैसी देशभक्त नायिकाओं को हमसे दूर कर देगा, जिसका प्रयास निरंतर जारी है!

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