जब भी लव जिहाद की बात आती है या यह बात आती है कि लड़कियों के साथ मजहबी कट्टरता के साथ बलात्कार होता है, तो एक बड़ा वर्ग यह कहते हुए खड़ा हो जाता है कि ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा कहकर मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है! परन्तु बार बार ऐसे मामले आते हैं, बार बार ऐसा होता है कि ऐसे उदाहरण सामने आते हैं, जिनसे उस पूरी लॉबी का यह झूठ खुलता है कि यह सब मुस्लिमों को बदनाम करने की हिन्दू साजिश है!
मध्यप्रदेश से ऐसा ही एक मामला सामने आया है, एक ऐसी पीड़ा सामने आई है, जिसका स्थान विमर्श में आ ही नहीं पाएगा। उस महिला की पीड़ा मात्र उस तक ही सीमित रह जाएगी क्योंकि उसकी पीड़ा से वह एजेंडा प्रभावित होता है, जो वैश्विक स्तर पर फैलाया जा रहा है कि उत्पीड़क ब्राह्मण हैं और पीड़ित दलित! जबकि वास्तविकता कहीं और, कुछ और ही कहीं न कहीं है।
आइये चलते हैं उस कहानी की ओर, जो विमर्श में आने के लिए कसमसा तो रही है, परन्तु आ नहीं सकती। आइये बात करें उस घटना की, जिस घटना में सबसे पहले लड़की को ही दोषी ठहराया जाता है, जिस घटना के लिए लड़की पर ही यह प्रश्न उठता है कि आखिर वह गयी ही क्यों? और इसी प्रश्न के नीचे वह अपराधी दबकर रह जाते हैं, जो नफरत पाले रहते हैं। जिन्हें “काफिरों’ के अस्तित्व तक से नफरत है, वह हिन्दुओं के इस अहंबोध के चलते अपने हर उस अपराध से बच जाते हैं, जिसमें कहा जाता है कि हिन्दू लड़की गयी ही क्यों, बात ही क्यों की?
आज उस घटना की बात, जिसे जाति की राजनीति करने वाले एकदम अनदेखा कर देंगे क्योंकि उनका विमर्श मात्र ब्राह्मणों के विरोध तक ही है। उनका विरोध मात्र यहीं तक सीमित है कि यदि कोई कथित उच्च जाति का व्यक्ति दोषी है, तो वह मरने मारने तक आएँगे, नहीं तो वह चुप बैठेंगे! उनके लिए वह पीड़ा पीड़ा है ही नहीं, जो उनकी कथित जाति वाली लडकी को किसी कट्टर मजहबी मानसिकता ने दी है!
आज बात, उसी विमर्श की! आइये देखते हैं कि क्या हुआ है? और आखिर में ऐसा क्या क्या है, जिसे लेकर सारा फेमिनिस्ट जगत एवं कथित समानता की बात करने वाला हिन्दी का लेखक वर्ग मौन साधे बैठा है! क्योंकि वह महिला जो कह रही है, उसे स्वीकारना या सुनना ही उनके दायरे से बाहर है, जो महिला यह कह रही है, वह कथन वह कटु सत्य है, जिसके प्रति वह डिनायल मोड में रहती हैं।
एक दलित महिला, जो छह माह की गर्भवती भी थी, उसके साथ उन लोगों ने बलात्कार किया जो उसे नौकरी दिलवाने का झांसा लेकर अपने साथ गए।
कहानी इंदौर की, जहां पर एक दलित महिला मई माह में नौकरी की तलाश कर रही थी, और उसी बीच इन्स्टाग्राम आईडी पर अरबाज से उसकी मुलाक़ात हुई और फिर उसने कहा कि वह उसे नौकरी दिलवा सकता है। फिर जून में उसकी मुलाक़ात अरबाज से हुई और फिर 2-3 जुलाई के आसपास अरबाज और अफजल ने उसे भंवरकुआँ चौराहे पर मिलने बुलाया। उसके बाद उससे रेज्यूम माँगा और फिर पीड़िता के अनुसार वह वापस आ गयी।
उसके बाद अफजल ने उससे कहा कि वह उसे पसंद करता है। इसके बाद पीड़िता ने उससे बात करना बंद कर दिया।
फिर एक महीने बाद प्रिंस का मेसेज आया कि उसके यहाँ नौकरी है। और बैठकर ही करने वाला काम है। जब वह मिलने गयी तो प्रिंस उससे कार से मिलने आया था, उस कार में अफजल, अरशद, और सैय्यद भी थे। पीड़िता ने कहा कि उन्होंने उसे एक समोसा खाने को दिया और फिर उसे चक्कर आने शुरू हो गए। फिर उसे वह लोग एक स्थान पर ले गए।
पीड़िता के अनुसार प्रिंस ने उससे कहा कि वह उसकी बात माने तो वह उसका काम करा सकता है। जब उसे समझ आया तो उसने गर्भावस्था का हवाला दिया, तो प्रिंस ने कहा कि हमारे समाज में सब चलता है। हम हिन्दू लड़की से सम्बन्ध बनाते हैं तो हमें जन्नत नसीब होती है।
उसके बाद कार में उन दोनों ने धमकी दी कि अगर यह बात बताई तो वह पीड़िता और उसके पति को काटकर फेंक देंगे।
पीड़िता ने यह बात बाद में अपने पति को बताई और फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। सभी चारों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है!
इस घटना को लेकर कई प्रश्न उठते हैं!
इस घटना को लेकर कई प्रश्न हैं जो उठते हैं! सबसे पहले तो यही कि जब पीड़िता को यह आभास हो गया था कि प्रिंस दरअसल क्या चाहता है, तो भी वह काम के ही सिलसिले में सही मिलने क्यों गयी? जब उसने शिकायत के अनुसार यह कह दिया था कि वह बात नहीं करना चाहती तो वह आखिर मिलने क्यों गयी?
आखिर ऐसा क्या कारण है कि हिन्दू महिलाओं के भीतर से यह बोध समाप्त हो गया है कि यह व्यक्ति दरअसल उनका शत्रु है और जो एक बार उसके साथ ऐसी बात कर सकता है, वह उनका कोई लाभ नहीं उठाएगा? इस बोध का समाप्त होना ही महिलाओं के लिए सबसे अधिक घातक है क्योंकि इसके कारण उन्हें यह अहसास ही नहीं हो पाता है कि उनके साथ दरअसल क्या हो सकता है?
इसके साथ ही एक और प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसी क्या विवशता थी कि एक छ माह की गर्भवती महिला को नौकरी खोजनी पड़ी?
यह घटना एक ओर जहाँ इस बात की ओर संकेत करती है कि हिन्दू परिवार व्यवस्था में कहीं न कहीं तो बहुत अधिक पतन आ चुका है, जहाँ पर एक छ माह की महिला को नौकरी खोजने के लिए जाना पड़ रहा है, तो वहीं यह भी संदेह उत्पन्न होता है कि कहीं यह मामला भी उसी फेमिनिज्म से प्रभावित आजादी का नहीं है, जो घर में बैठने को पिछड़ापन और बाहर जाने को आजादी कहती है?
या फिर क्या ऐसा कारण रहा कि गर्भवती महिला को खर्च चलाने के लिए बाहर जाना पड़े और वह भी उन लोगों से इन्स्टाग्राम पर सहायता मांगनी पड़े, जिनके लिए अपने मजहब के अतिरिक्त सब काफिर हैं!
प्रश्न यही होना चाहिए कि इतने मामलों के बाद भी यह बोध जागृत क्यों नहीं हो पा रहा है? क्योंकि वामपंथी फेमिनिज्म से लेकर कथित राष्ट्रवादी शुचितावादियों का पहला प्रश्न यही होगा कि “आखिर गयी ही क्यों थी?”
उस समय कोई नहीं देखेगा कि पूरा मीडिया और साहित्य कैसे मजहबी कट्टरपंथ के लिए सहारे की सबसे बड़ी दीवार बना हुआ है, कैसे वह खाद पानी तो दे ही रहा है, बल्कि साथ ही आम जनता के मन में वह “इंसानियत के मसीहा” की इमेज भी बना रहा है, जो दरअसल उसकी है ही नहीं और जिस वर्ग को खलनायक के रूप में चित्रित किया जा रहा है, वही वर्ग इन पीड़िताओं की पीड़ा समझ रहा है!
परन्तु दुर्भाग्य यही है कि इस युवती की पीड़ा कभी भी विमर्श में नहीं आ पाएगी क्योंकि वह एजेंडा के विपरीत पीड़ा है!