गोस्वामी तुलसीदास जी इन दिनों पुन: निशाने पर हैं। यद्यपि इन तमाम विवादों का तुलसीदास जी पर या उनके द्वारा रचित रामचरित मानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता है, क्योंकि एक समय के लिखे गए विमर्श को एक बाद के काल के विमर्श की सीमाओं मी नहीं देखा जा सकता है। जो परिभाषाएं एक संस्कृति की भाषा ने अपने अनुसार गढ़ीं, उन्हें उन परिभाषाओं के आधार पर कैसे आँका जा सकता है, जो पूरी तरह से भिन्न परिवेश में गढी गईं!
जैसे धर्म! धर्म की परिभाषा कभी भी रीलिजन या मजहब नहीं हो सकता है। जैसे विवाह, विवाह का अर्थ निकाह या मैरिज नहीं हो सकता है, जैसे प्रायश्चित, मोक्ष जैसे असंख्य शब्द ऐसे हैं, जिनका स्थानापन्न किसी भी दूसरी भाषा या दूसरे भाषा परिवार में हो ही नहीं सकता है।
अत: जिन दोहों को लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी को अपमानित किया जा रहा है, वह राजनीतिक हानि लाभ को लेकर ही है क्योंकि जिन शिक्षामंत्री ने गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस को ऐसा ग्रन्थ बताया जो नफरत फैला रहा है, उन्होनें इस्लाम को “अकेला” मोहब्बत फैलाने वाला मजहब बताया है।
ऐसा उनका वीडियो वायरल हो रहा है। यह दो वीडियो उनकी राजनीतिक तुष्टिकरण को स्पष्ट बता देते हैं कि उन्होनें उस ग्रन्थ का अपमान क्यों किया जिसने मुग़ल काल ही में नहीं बल्कि मिशनरी काल में अर्थात जब गाँव के गाँव ईसाई बने जा रहे थे, तो उत्तर भारत के हिन्दुओं को कैसे हिन्दू बनाए रखा। कैसे इस ग्रन्थ की प्रशंसा मिशनरी तक ने की है और अंग्रेजी में भाषांतरण करने वाले भी इस ग्रन्थ को लेकर प्रशंसा से भरे हैं।
आदरणीय रामचरित मानस की यही शक्ति ही पहले मिशनरी और बाद में उन लोगों के निशाने पर रही है जो हिन्दुओं में फूट डालकर अपनी छुद्र राजनीति चमकाना चाहते हैं।
इतना ही नहीं एक बड़ा वर्ग है जो परस्पर कबीरदास एवं तुलसीदास जी के मध्य यह तुलना करता रहता है कि कबीरदास प्रगतिशील हैं एवं तुलसीदास जी पिछड़े तथा स्त्रीविरोधी। वह इस सीमा तक गोस्वामी तुलसीदास जी के विरोधी हैं कि कबीरदास जी की उन तमाम पंक्तियों को अनदेखा कर देते हैं, जो पूर्णतया स्त्री विरोधी हैं।
ऐसा क्यों है कि एक कालखंड के उस रचनाकार की साधारण पंक्तियों को निशाने पर लाकर उन्हें निरंतर कोसा जाता रहता है जिनकी रचनाएं हिन्दुओं में आत्मगौरव का भाव भरती हैं? क्या मिशनरी शिक्षा के प्रभाव के चलते आत्महीन हिन्दुओं की एक बड़ी पीढ़ी इस सीमा तक आत्महीन हो चुकी है कि उसने अपनी तमाम परिभाषाएं भी मिशनरी शिक्षा की ही आत्मसात कर ली हैं?
यहाँ आदरणीय कबीरदास जी का अपमान करने का कोई प्रश्न न होकर बस यही प्रश्न है कि आखिर ऐसा क्यों है कि श्रद्धेय गोस्वामी तुलसीदास जी को निशाने पर लिया जाता रहा है और शेष किसी को नहीं? जिन पंक्तियों के चलते उन्हें स्त्रीविरोधी ठहराया जाता है, उससे कहीं अधिक स्त्री विरोधी रचनाएं रचने वाले कबीरदास क्यों उसी वर्ग द्वारा प्रगतिशील बताए जाते हैं? क्या मात्र इस कारण कि रामचरित मानस के चलते मिशनरी एजेंडा सफल नहीं हो पा रहा है।
साहित्य को राजनीतिक दृष्टि या राजनीतिक मुनाफे के लिए न ही देखा जा सकता है और न ही देखा जाना चाहिए। भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पर अपने महापुरुषों को गाली देने के लिए शैक्षणिक अनुदान दिए जाते हैं। उन्हें उस परिभाषा की सीमाओं में बांधकर देखा जाता है जो उसकी हैं ही नहीं और फिर राजनीतिक दृष्टि से किस उस जाति के रचनाकार को गाली देकर हित साधा जा सकता है, जिस जाति को कोसने से वोट अधिक मिलेंगे तो फिर किया जाता है!
जो सामाजिक विमर्श और परिभाषाएं थीं, वह कालिदास के समय में पृथक थीं, एवं तुलसीदास जी के समय पृथक थीं तथा अभी एकदम अलग हैं।
यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि बिहार के शिक्षा मंत्री खुद को धर्म की ठेकेदारों से भी बड़ा और सच्चा हिन्दू बताते हैं और कुरआन पर यह कहते हुए बोलने से परहेज करते हैं कि उन्होंने इसे पढ़ा नहीं है, इसलिए वह कुछ नहीं कह सकते हैं।
परन्तु वह अपनी तुष्टिकरण की राजनीति के लिए उन तुलसीदास जी पर प्रश्न उठा सकते हैं, जिन्होनें जीवन भर प्रभु श्री राम का सहारा लिया और किसी भी राजनीतिक दरबार का मुंह नहीं देखा। दरअसल आदरणीय तुलसीदास जी का जीवन किसी भी हताश और निराश व्यक्ति के हृदय में इस आशा का संचार करता है कि बिना दरबारी सहायता के भी जीवन जिया ही नहीं जा सकता है बल्कि शताब्दियों तक जनमानस की चेतना में रहा जा सकता है और यह भी सत्य है कि जिस विमर्श की पहचान ही मात्र एक दल, एक परिवार तक सीमित हो, वह कभी भी यह नहीं सहन कर सकता है कि उसके रहमोकरम पर निर्भर जनता किसी स्वतंत्र सत्ता के साए तले जाने का विचार भी करे!
अत: बार-बार श्री रामचरित मानस पर हमला होता है और चूंकि अन्य पंथों के ग्रंथों को पढ़कर उनके विषय में कुछ भी कहे या लिखे जाने पर बेअदबी की चलते सिर तन से जुदा होने का खतरा रहता है, इसलिए उनके विषय में मौन धारण करके हिन्दुओं की सहिष्णुता का लगातार लाभ उठाया जाता है।
परन्तु यह सत्य है कि कालजयी साहित्य को मिटाने के लिए उसकी आलोचना नहीं की जाती अपितु उसके समक्ष एक बड़ी पंक्ति खींची जाती है, जो करना किसी के वश की बात नहीं है, अत: अब नीचता पर उतरे राजनेता आदरणीय रामचरित मानस को लेकर अभियान चला रहे हैं, जो सफल नहीं होगा क्योंकि जो विमर्श और राष्ट्र अपने ग्रंथों एवं अपने काल से परे कवियों का आदर नहीं करता है, उसे नष्ट होने से कोई भी रोक नहीं सकता है।