सावन माह में कांवड़ को बदनाम करने के लिए सेक्युलर समाज जहाँ एक ओर कांवड़ लाने वाले युवकों को अपमानित करता है, जैसा अभी हाल ही में कांग्रेस की एक महिला नेता ने कहा था कि किताब उठाओ, कांवड़ नहीं तो वहीं वामपंथी रविश जैसे पत्रकार भी उद्योग के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं, जबकि वही संवेदनशीलता शाहीन बाग और किसान आन्दोलन के समय क्रांतिकारियों के साथ थी, तब उन्हें व्यापारियों को हो रहा नुकसान मधुर लग रहा था!

कांवड़ क्यों नहीं उठाई जाए? कांवड़ को लेकर समस्या क्या है? कांवड़ जिसमें भगवान भोलेनाथ पर जल चढ़ाने के लिए जल लेकर जाया जाता है, उसमें आखिर क्या समस्या है और क्यों समस्या है?
कांग्रेस सहित शेष विपक्ष एवं कथित सेक्युलर लोग क्यों चिढ़ते हैं? इस विषय में प्रख्यात विचारक, लेखक एवं एनसीईआरटी में प्रोफ़ेसर रहे श्री प्रमोद दुबे ने अपनी फेसबुक वाल पर भारत की जल संस्कृति एवं जल के माध्यम से भारत की एकता के सन्दर्भ में लिखा था कि
“एक मूर्खा ने काँवड़ के बदले किताब लेने की बात की!
वास्तव में उस मूर्खा ने
“भारत की जल संस्कृति” पर हमला किया है। इस बहाने दो बातें-
हम प्राणिमात्र को जल उपलब्ध कराते हैं, प्याऊ बनते हैं, प्यासे को जल पिलाते हैं, अतिथि का पद प्रच्छालन कर यात्रा की थकान मिटाते हैं।
नरोत्तम दास की पँक्ति है-
“पानी परात के हाथ छूयो नहीं, नयन के जल ते पग धोयो”- श्रीकृष्ण ने सुदामा के पाँव नयनों के जल से पखारा।
हम जलाशय, बावड़ी, कुंआ बनाते हैं। जलप्रबंधन का ऐसा उपकारी उदाहरण विश्व में दुर्लभ है।
गांव- गांव के समवय मित्र मिल जुलकर एक साथ जेठ में तपे- प्यासे पंचतत्त्व की महामूर्ति महादेव के लिए जल लाने जाते हैं, महादेव से हमारा अभेद प्रेम है, उनकी प्यास हमारी प्यास है, उनकी संतृप्ति हमारी संतृप्ति है।
इस सामूहिक पदयात्रा से युवाओं की सामाजीकरण होता है। उन्हें परिश्रम और उद्यम का संस्कार मिलता है।
भारत के एक स्थान को दूसरे स्थान से जलवहन/ कांवड़ की पदयात्रा जोड़ देती है।
इस जल संस्कृति से गंगोत्री से रामेश्वरम् तक आसेतु- हिमाचल हमारा भारत एकाकार हो जाता है, इससे राष्ट्र की अखंडता और एकात्मता अभिव्यक्त होती है।
हमारे शास्त्र जल को प्राण कहते हैं। काँवड़ से जलवहन करके हम भारत राष्ट्र के प्राणसूत्रों का एकीकरण करते हैं।
हमने वेदों से नदियों को माता कहना सीखा- “अम्बीतमे नदीतमे देवीतमे सरस्वती”(ऋग्।)। नदियां मनुषी सभ्यता का उत्स हैं।
आज जलसंस्कृति विहीन आधुनिक युग के निर्माता पश्चिमी देश जलसंकट से जूझ रहे हैं।
उन्हीं पश्चिमी मूर्खों के आधुनिक चेले भारत की सांस्कृतिक परंपरा का विरोध करते हैं।
यदि जल संकट से विश्व जीवन की रक्षा करनी है तो भारत की जल संस्कृति को प्राण के समान सुरक्षित करना होगा।“

प्रमोद जी एनसीईआरटी में भारतीय भाषाओं के व्याकरण अर्थात बहुभाषी व्याकरण पर कार्य कर रहे हैं। भाषा के आधार पर भारत को बांटने की जो रूपरेखा अंग्रेजों ने रची और उस पर वामपंथ ने अपनी पूरी इमारत बनाई, उसे प्रमोद दुबे के नेतृत्व में चल रही इस परियोजना के माध्यम से चुनौती दी जा रही है। वह यह बार-बार कहते हैं कि भारत की समस्त भाषाएँ व्याकरण के स्तर पर लगभग समान ही हैं।

प्रमोद दुबे जी ने जब कांवड़ को लेकर यह लिखा कि जल संस्कृति ही प्राणों की रक्षा करती है तो उसी पोस्ट में उनकी यह पीड़ा भी व्यक्त हुई कि उन्होंने एनसीईआरटी में कक्षा 8 की हिंदी की पाठ्यपुस्तक भारती भाग 3 बनाई थी, और उसमें जल संस्कृति पर एक अध्याय था “’बहती रहो सरस्वती’!”
और फिर वह लिखते हैं कि
2004 में अटल सरकार के हटते ही कम्युनिस्टों ने वह पाठ बड़ी क्रूरता से हटाया।
यही क्रूरता वह कांवड़ यात्रा के साथ दिखाते हैं क्योंकि वह उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक एक सूत्र में बांधे जाने में मुख्य कारक जल से घृणा करते हैं, वह उस एक होने के भाव से घृणा करते हैं, जो इन यात्राओं से उपजता है!
किसी भी देश का मुस्लिम हो, वह हज की यात्रा के बहाने से समुदाय में एकीकरण की भावना का विस्तार करता है, वह यह प्रमाणित करता है कि चाहे कुछ हो जाए, इस यात्रा पर आने वाले हम एक ही हैं। यही भाव कांवड़ यात्रा, होली, दीपावली एवं अन्य पर्वों के माध्यम से झलकता है, परन्तु वामपंथी इसे नष्ट करना चाहते है।
अनुपम मिश्र की पुस्तक अब भी खरे हैं तालाब, भी तालाबों के माध्यम से ही जीवन की बात करती है। वह बताती है कि कैसे तालाब अर्थात जल की संस्कृति पूरे भारत को जोड़े हुए है।
इसी जुड़ाव से वामपंथियों को चिढ है और जब वह जल लेकर अपने बाबा को अर्पित करने वाले कांवड़ियों को देखते हैं तो वह आक्रोश और क्रोध एवं खीज से भर जाते हैं। बकरीद की शुभकामनाएं देने वाले लोग, जल लाने की बात करने वालों को प्रदूषण फैलाने वाला कहते हैं, तो कोई उन्हें यह कहता है कि घर से आवारा हैं, कोई कहता है बेरोजगारी बढ़ गयी है आदि आदि!
दिल्ली सरकार में मंत्री रहे संदीप कुमार ने ट्वीट किया कि:
परन्तु जब वह एक सुर में हर हर महादेव का उद्घोष करते हैं तो वह उस जीवन को जागृत करते हैं, जो जल से ही संभव है, वह उस सहज लय को स्वर देते हैं, जो हिन्दू होने का बोध कराती है। कांवड़ियों का स्वागत करते लोग ऐसा प्रतीत होता है उस बोध को स्वयं में भर लेते हैं।
इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर रविश कुमार भी लग रहा बेचैन है कि कांवड़ यात्रा से व्यापार प्रभावित होता है, जबकि पूरे एक वर्ष शाहीन बाग़ और उसके बाद किसान आन्दोलन के दौरान हुई जन सामान्य को असुविधा एवं व्यापार को हुए नुकसान पर यह पूरी तरह से मौन थे:

जबकि कांग्रेस सहित विपक्ष तनिक भी नहीं चाहता है कि हिन्दुओं में हिन्दू होने का बोध आए, उनमे परस्पर एकात्मकता आए और उनमें जल संस्कृति का ज्ञान आए, तभी वह अपमानित करने का प्रयास करते हैं, हर पर्व के बहाने अपना विघटन का एजेंडा चलाते हैं, हर पर्व के बहाने आत्महीनता का विस्तार करना चाहते हैं, परन्तु कांग्रेस, विपक्ष सहित समूचे कथित प्रगतिशील समाज की पोल तब खुलती है जब नदियों का प्रदूषण बढ़ाने वाले सार्वजनिक कुर्बानी के प्रदर्शन को वह “शान्ति” का प्रतीक बताते हैं एवं सैकड़ों किलोमीटर दूर से चलकर अपने बाबा के अभिषेक के लिए जल लाने वाले हिन्दू युवाओं को अनपढ़ या बेरोजगार या पिछड़ा!
जो भी यात्रा भारत को एक सूत्र में एक सिरे में जोडती है, जो भी यात्रा यह बताती है कि हिन्दुओं की जल संस्कृति से ही विकास एवं एकात्मकता संभव है, उसका वह अपमान करेंगे ही करेंगे!