इन दिनों लेखक होने का अर्थ मात्र वामपंथी होना ही रह गया है और हम देखते हैं कि यदि मार्क्सवादी विचार न हों, तो एक बड़ा वर्ग जो अब तक इस बौद्धिकता पर अधिकार किए हुए था, वह खारिज करने पर उतर आता है, जैसे इन दिनों कश्मीर के ऐसे विशेषज्ञ कश्मीरी हिन्दुओं के भोगे हुए यथार्थ को खारिज कर रहे हैं, जिन्होनें कश्मीर को एक तरफ़ा विमर्श की पुस्तकें पढकर ही जाना है।
और कश्मीर फाइल्स पर चर्चा करते समय एकतरफा ही विचार लिए जा रहे हैं, एवं उन लोगों को विमर्श का हिस्सा ही नहीं बनाया जा रहा है, जिन्होनें इस दर्द को झेला है, जो स्वयं उसे भोगकर आए हैं। इससे पता चलता है कि आज, जब लोग इतने जागरूक हुए हैं तब भी विमर्श को एकतरफा ही रखा जा रहा है, तो आज से कुछ वर्ष पहले तक क्या होता होगा?
हाल ही में हिन्दी साहित्य में लेखक निर्मल वर्मा की जयन्ती मनाई गयी। निर्मल वर्मा एक ऐसे समृद्ध लेखक रहे हैं, जिन्होनें उस समय पर खुलकर यह कहा था कि एक लेखक के तरीके से उन्होंने कभी मार्क्सवाद को स्वीकार नहीं किया। वह ऐसे बहुत ही दुर्लभ लेखकों में से हैं, जिन्होनें खुलकर धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर बातें की और उस नकली धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार किया, जो लेखक वर्ग ने राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने के लिए ओढ़ ली थी!
उन्होंने धर्म और धर्मनिरपेक्षता निबंध में छद्म धर्मनिरपेक्षता एवं हिन्दू धर्म के प्रति घृणा को ही क्रांति मानने की गलत अवधारणा पर उंगली उठाते हुए कहा था कि
“ स्वतंत्रता के 50 वर्ष बाद भी यदि हमें धर्मनिरपेक्षता के अर्थ के बारे में आशय स्पष्ट है कि अवश्य ही धर्म के प्रति हमारे मन मन में उलझने आज भी हैं, जिनका समाधान हम नहीं कर पाए हैं। उस धर्म के बारे में हमारी अवधारणा क्या हैं, जिसके प्रति हम निरपक्ष होना चाहते हैं, और जब तक हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं, तब तक हमारे समाज में सेक्युलरिज्म की सारी बहस कोई विशेष अर्थ नहीं रखेंगी! हर सभ्यता में धर्म का अपना विशेष स्वरुप और अर्थ होता है। क्रिश्चन सभ्यता, इस्लामी सभ्यता, यूनानी सभ्यता, इन समस्त सभ्यताओं में मनुष्य का ईश्वर की लौकिक शक्तियों के साथ सम्बन्ध अलग अलग रूपों में प्रकट होता है।”
फिर वह जो लिखते हैं, वह कितना महत्वपूर्ण है, उसे देखा जाए
“भारतीय सभ्यता में धर्म क्या वह भूमिका संपन्न करता था, जैसा उन सभ्यताओं में जिनका हमने जिक्र अभी किया है?उसी धर्मनिरपेक्षता की बहस हमें इस प्रश्न से आरम्भ करनी चाहिए!”
धर्म की दो अवधारणाएं उपस्थित हैं, एक वह जो मनुष्य और संस्कृति के सम्बन्ध को पवित्र मानती है और जब यह स्वीकार करती है कि मनुष्य सृजन चेतना का संवाहक है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह सृष्टि के केंद्र में है। भारतीय सभ्यता महानतम स्तर पर पवित्रता के इस सार्वभौमिक बोध से अनुप्रमाणित होती रहेगी!”
वह फिर भारतीय अर्थात हिन्दू धर्म की महानता बताते हुए लिखते हैं कि
“धर्म के परिवेश में मनुष्य शक्तिशाली होने के कारण शोषक नहीं, सिर्फ अपने दायित्व बोध के प्रति सजग होना है!”
उसके बाद वह उस अवधारणा की बात करते हैं, जो इस समय पूरे विश्व में व्याप्त हैं,
वह लिखते हैं
“ इसके विपरीत धर्म की एक और दूसरी अवधारणा है, जो अपनी वैधता किसी मसीहा की वाणी या फिर किसी विशिष्ट पुस्तक के वचनों से प्राप्त करती है! वह एक ऐसी वैधता लिए होती है, जिस पर संदेह न ही प्रकट किया जा सकता है और न ही जिसे चुनौती दी जा सकती है? धर्म की यह अवधारणा अपने इर्द-गिर्द सार्वभौमिक सत्य का एक दायरा खींच लेती है, इस दायरे से बाहर जो लोग हैं, जो प्राणी हैं, जीव जगत है, वह “अन्य” की श्रेणी में आते हैं और वह अन्य केवल तभी उस दायरे में प्रवेश कर पाएंगे जब वह उस मसीहा को स्वीकारेंगे!”
फिर वह कहते हैं कि
“कहना न होगा कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलरिज्म का सम्बन्ध धर्म की दूसरी अवधारणा से सम्बंधित था। उस अवधारणा से नहीं जो भारतीय सभ्यता के केंद्र में थी। यह एक ऐतिहासिक विडंबना ही मानी जाएगी, कि हमारे सत्ता गुरु शासकों ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय जनसाधारण को एक ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने के लिए बाध्य किया गया, जिसका उनसे कोई लेनादेना नहीं था, और इस प्रक्रिया में उन्हें एक ऐसे सेक्युलर समाज व्यवस्था में रहने के लिए विवश किया गया, जहाँ स्वयं उनकी धार्मिक आस्थाएं एक हाशिये की चीज़ बनकर रह गईं। धर्म निरपेक्षता इस अर्थ में एक भारतीय के लिए आत्मनिर्वासन की अवस्था बन कर रह गयी!”
छद्म वामपंथी धर्मनिरपेक्षता पर इतना बड़ा प्रहार किसी और लेखक ने कभी किया हो, ऐसा नहीं देखा गया।
उन्होंने स्पष्ट लिखा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता जैसा कृत्रिम विभाजन कभी नहीं था! वह लिखते हैं कि जीसस ने ईश्वर और सीज़र के बीच जो भेद किया था, वह भारतीय मानस में कभी मौजूद नहीं था, इसलिए राजनीति तो दूर, हमारे देश का भूगोल भी पौराणिक स्मृतियों में स्पंदित होता है। वह कहते हैं गंगा, हिमालय, वाराणसी या वृन्दावन मात्र प्रतीक नहीं है, बल्कि यह जीवित इतिहास हैं और यह पौराणिक स्मृति के साथ मनुष्य के साथ एक साथ रहते हैं!
यह भी भारत का दुर्भाग्य ही है कि जहाँ हम “मजहब के नाम पर देश को छलने वाले” लेखकों और कवियों को प्रगतिशील मानते हुए तमाम तरह के विमर्शों की बात करते हैं, वहीं हम उन निर्मल वर्मा को स्मरण करना तक उचित नहीं समझते, जिन्होनें इस छद्म धर्मनिरपेक्षता को तो तार तार किया ही था, साथ ही उन्होंने भारतीय इतिहास और स्मृति की चेतना पर बात की थी।
यह भारत का दुर्भाग्य है कि कौमी तराना गाने वाले इकबाल और मजहब के नाम पर देश तोड़ने वाले इकबाल आज भी लोगों की जुबान पर हैं और निर्मल वर्मा स्मृति से भी ओझल हो रहे हैं!
इकबाल सोमनाथ विध्वंस को दोहराना चाहते हैं: परन्तु फिर भी वह “सेक्युलर हैं!”
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
उनका तिरस्कार वामपंथी लेखन समाज ने मात्र इसलिए किया था कि उन्होंने 1990 में प्रकाशित टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राजनीतिक सर्वेक्षण में यह कह दिया था कि वह इस बार भारतीय जनता पार्टी को वोट देंगे! बीबीसी से बात करते हुए उनकी पत्नी गगन गिल, जो स्वयं प्रख्यात रचनाकार हैं, ने कहा था कि
“यह सारा किस्सा इस सर्वेक्षण से ही शुरू हुआ. उनसे पूछा गया कि वो किसको वोट देंगे. उन्होंने जवाब दिया की कांग्रेस को तो इतने सालों से देते ही रहे हैं, इस बार भाजपा को वोट दूंगा। बस, इसके बाद इस बात पर बहुत हल्ला मचा।”
”निर्मल का मानना था कि किसी पार्टी को वोट देना या न देना उनका लोकतांत्रिक नागरिक अधिकार है. पर उन्होंने कभी भी अपने नागरिक अधिकार को अपने लेखन में शामिल नहीं होने दिया. निर्मल अकेले लेखक हैं जो कभी किसी भी पार्टी के नेताओं के साथ खड़े नहीं हुए।”
यही वामपंथ है कि इकबाल मुस्लिम कौम द्वारा किये गए तमाम अत्याचारों और कत्लेआम पर “फख्र” करते हुए, देश तोड़ने का सपना दिखाने वाले और उसे सच करने के बाद भी “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” हो सकते हैं, परन्तु निर्मल वर्मा मात्र यह कहने से ही पिछड़े हो गए थे कि कांग्रेस को इतने वर्षों से वोट दे रहे हैं, इस बार भाजपा को देंगे!”