भारत में विज्ञान और वैज्ञानिकों की दुनिया कुछ आवरण में रही है। वह एक बड़े षड्यंत्र का शिकार होते रहे हैं, वह बात दूसरी है कि उनके साथ जो षड्यंत्र हुए, वह देश की जनता के सामने सहज आ नहीं पाए। न जाने कितने वैज्ञानिकों की रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गयी। छुटपुट कहानियां आती रहीं, परन्तु ऐसी बातें लोगों के मध्य स्थान न पा सकीं!
इसका सबसे बड़ा कारण था इन कहानियों का मुख्यधारा के विमर्श में न पाना। न ही इन पर कोई फिल्म बनती थी और न ही विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लिखे गए समाचार पत्रों को कोई उन समाचारों के आधार पर अतिरिक्त खरीदता था। फिर ऐसे वातावारण में यह तमाम षड्यंत्र दब गए।
परन्तु नांबी नारायण का मामला जब सामने आया तो उसने लोगों को विज्ञान और वैज्ञानिक विषयों से परिचय कराया। यद्यपि आरम्भ में उनका नाम भारतीयों ने दूसरे या कहें ऐसे तरीके से जाना जिस तरीके से कोई जानना भी नहीं चाहेगा। बाद में उनका जीवन संघर्ष के ऐसे प्रतीक के रूप में उभरा, जिसने न्याय की आस नहीं छोड़ी! वह नाम बन गया आदर का, विश्वास का, देश भक्ति का!
नांबी नारायण, वह वैज्ञानिक जिन्होनें अपना सारा जीवन देश केलिए बलिदान कर दिया, जिन्होनें नासा की नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा देश के लिए वह करने का सोचते रहे, जिससे उनका देश सितारों की दुनिया में सम्राट बन जाए। परन्तु उनके साथ क्या हुआ? उनके साथ एक ऐसा षडयत्र रचा गया, जिसके सूत्रधारों का अभी तक पता नहीं चल पाया है।

विज्ञान और वैज्ञानिकों के साथ कौन छल कर रहा है, इसकी तहें खुलनी शेष है और सत्यता बाहर आनी ही चाहिए। फिर भी एक बात अत्यंत हैरानी उत्पन्न करती है कि जो बॉलीवुड अनारकली पर फ़िल्में बना सकता है, जो बॉलीवुड अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ लव जिहाद को महिमा मंडित करती हुई फ़िल्में बना सकता है, उसने कभी विज्ञान और वैज्ञानिकों की ओर झाँकने की क्यों नहीं सोची?
क्या ऐसा कारण रहा होगा कि देश के वैज्ञानिकों के साथ किया जाने वाला छल फिल्मों का हिस्सा नहीं बन पाया?
परन्तु अब बना है, आर माधवन की फिल्म रॉकेट्री ने नांबी नारायण के जीवन पर एक ऐसा आख्यान प्रस्तुत किया है जिसे हर भारतीय को सुनना चाहिए, देखना चाहिए एवं स्वयं से कम से कम प्रश्न तो पूछने ही चाहिए कि क्या हमें वास्तव में वह सब झूठ ही दिखाना चाहिए था? हम वास्तव में उस विष के ही अधिकारी थे, जो हमें मुगलों की झूठी कहानियों के माध्यम से पिलाया गया?

जो अमृत था, जो हमारे राष्ट्रबोध के लिए संजीवनी था, वह विचार हमें फिल्मों के माध्यम से क्यों नहीं दिखाया गया? यही प्रश्न भास्कर के साथ साक्षात्कार में आर माधवन ने किये, जिन्होनें नांबी नारायण के जीवन को परदे पर उतारा है। लोग हैरान हैं, कि एक नायक के साथ इतना अन्याय होता रहा और वह झूठी जोधा अकबर की कहानियों में डूबे रहे?
नांबी नारायण अपने हिस्से का दर्द जीते रहे और हम हँसते रहे बजरंगी भाई जान के गानों पर! नांबी नारायण संघर्ष करते रहे और हम देश तोड़ने वाली “उड़ता पंजाब” जैसी फिल्मों के जाल में फंसे रहे! आखिर क्या कारण था कि देश के मनोबल और हिन्दुओं के मनोबल को तोड़ने वाली पीके जैसी फ़िल्में बनती रहीं और नांबी नारायण जैसे व्यक्तित्व पर फिल्म बनने में इतना समय लगा और वह भी बॉलीवुड ने नहीं, आर माधवन ने साहस किया।
आर माधवन ने जो किया, वह अतुलनीय है। परन्तु फिर भी बॉलीवुड में कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्हें यह पसंद नहीं है कि वास्तविकता दिखाई जाए, और ऐसी वास्तविकता जिससे या तो हिन्दू होने का बोध जागृत हो या फिर हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों को दिखाया जाए। वह लॉबी जो कश्मीर फाइल्स के समय सक्रिय हो गयी थी कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। एकतरफा ही विवेक अग्निहोत्री ने दिखाया है आदि आदि!
अनुपमा चोपड़ा, जो विधु विनोद चोपड़ा की बीवी हैं, उन्होंने इस फिल्म के विषय में आपत्ति व्यक्त करते हुए लिखा था कि नांबी नारायण को बार-बार पूजा करते हुए बहुत दिखाया गया है। अब अनुपमा चोपड़ा को इससे क्या समस्या हो सकती है कि कोई वैज्ञानिक अपने व्यक्तिगत जीवन में पूजापाठ करता है? यदि वह करते हैं तो वही तो दिखाया जाएगा?
बॉलीवुड में नमाज और चर्च में प्रेयर को प्रगतिशील माना जाता है और हिन्दुओं की पूजापाठ को पाखंड, परन्तु अब यह इन लोगों का दुर्भाग्य है कि बॉलीवुड की वास्तविकता लोग समझ चुके हैं, तभी कश्मीरी पंडितों की पीड़ा बताकर बेची जाने वाली फिल्म “शिकारा” न केवल फ्लॉप होती है, बल्कि कश्मीरी पंडित ही इसे खारिज कर देते हैं।
और कश्मीर फाइल्स, जो कश्मीरी पंडितों के पलायन की पीड़ा को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करती है, वह बॉलीवुड के कथित आलोचकों की उपेक्षा के बाद सुपरहिट ही नहीं हुई थी, बल्कि साथ ही उसने समस्या की जड़ को जानने की ओर कदम बढ़ाया था और आम लोगों को समझ आया था कि सिस्टम से लड़ना कितना खतरनाक था और सब कितने असहाय थे!
और इन्हीं अनुपमा चोपड़ा ने इस फिल्म की आलोचना की थी। परन्तु नांबी नारायण द्वारा पूजापाठ करने की आलोचना पर आर माधवन ने बताया कि मैं किसी भी आलोचक के साथ लड़ाई नहीं करना चाहता, वह अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र हैं। परन्तु किसी की पूजापाठ पर आपत्ति व्यक्त करना, और यह कहना कि हमारा नायक एक पूजा करने वाला हिन्दू है, इसके विषय में क्या कहा जाए! इस पर टिप्पणी करना ही बकवास है। नांबी सर एक भगवान पर विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं, तो यदि उन्हें पूजा के कक्ष में दिखाया तो क्या समस्या है?
फिल्म निर्माता अशोक पंडित ने भी आलोचना करते हुए लिखा कि यह कितना हिन्दूफोबिक है? अगर नांबी नारायण हिन्दू देशभक्त हैं और पूजा कर रहे हैं तो समस्या क्या है?
लोगों ने कहा कि हम ध्यान भी नहीं देते हैं कि अनुपमा चोपड़ा क्या कहती हैं? शिकारा को पांच सितारे दिए थे तो क्या क्या हुआ था?
यह फिल्म इसलिए आवश्यक है जिससे यह जाना जा सके कि आखिर नांबी नारायण के साथ हुआ क्या था? और सरकार ने उनके साथ क्या किया था? उनपर जासूसी का झूठा आरोप वर्ष 1994 में लगाया गया और फिर उनका जीवन जिन कष्टों से होकर गुजरा और साथ ही उनकी पत्नी और बच्चों को जिस पीड़ा का सामना करना पड़ा, यह हम कल्पना ही नहीं कर सकते। हालांकि उन्हें सीबीआई और फिर न्यायालय ने शीघ्र ही आरोपमुक्त घोषित कर दिया, एवं उन्हें न्यायालय के आदेश के उपरान्त क्षतिपूर्ति भी प्राप्त हुई, परन्तु न्याय अभी भी शेष है जब तक इस पूरे काण्ड को रचने वाले सलाखों के पीछे नहीं जाते!
बॉलीवुड अभी भी समझ नहीं रहा है कि लोग अब सच जानना चाहते हैं, फिल्मों में वह एजेंडा नहीं चाहते, आत्महीनता वाला विमर्श नहीं चाहते हैं, काश बॉलीवुड अभी भी यह समझ पाता!