विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स को लेकर अभी तक तकरार मची हुई है। हाल ही में वर्ष 2022 में आईएमडीबी की ओर से जो भारत की सबसे लोकप्रिय फिल्मों की सूची जारी की गयी तो उसमें केवल द कश्मीर फाइल्स ही एकमात्र हिन्दी फिल्म थी। इस विषय पर विवेक अग्निहोत्री ने ट्वीट किया था:
आईएमबीडी ने जो रेटिंग जारी की थी, इसमें कश्मीर फाइल्स दूसरे स्थान पर थी तो पहले स्थान पर थी एसएस राजमौली की फिल्म आरआरआर। आरआरआर फिल्म भारत में अंग्रेजी शासनकाल की क्रूरता को दिखाते हुए बनाई गयी थी।
जहां कश्मीर फाइल्स कश्मीरी हिन्दुओं की उस पीड़ा की कहानी है जिसे अब तक दबाकर रखा गया तो वहीं आरआरआर फिल्म भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी अल्लूरी सीता रामा राजू और कौमाराम भीम के बारे में है। ये दोनों ही फ़िल्में आम जनता के दिलों को छूने में सफल रही थीं। मगर अब तक इन दोनों ही फिल्मों को लेकर एक बहुत बड़ा वह वर्ग सहज नहीं है जो इन दोनों ही फिल्मों का विपरीत विमर्श चलाया करता था। वह वर्ग आए दिन इन दोनों ही फिल्मों के विषय में विष उगलता रहता है जो अश्लील फिल्मों का जमकर समर्थन किया करता था।
जो वर्ग भारत विरोधी नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम देकर नारे लगाया करता था। वह वर्ग जिसके लिए कश्मीर का अर्थ हिन्दू भारत द्वारा मुस्लिम कश्मीर की पहचान पर अतिक्रमण था। जिस वर्ग के लिए कश्मीरी हिन्दुओं के जीवन का कोई मोल नहीं है।
वही वर्ग अब यह कह रहा है कि आरआरआर और कश्मीर फाइल्स फ़िल्में बेकार हैं। जुलाई 2022 में ही हिन्दू महिलाओं में करवाचौथ का व्रत रखने से कट्टरपन फ़ैल रहा है कहने वाली रत्ना पाठक शाह ने आरआरआर फिल्म के विषय में कहा है कि यह फिल्म पिछड़ी फिल्म है और यह हमें आगे लेजाने के स्थान पर पीछे लेकर जा रही है
मीडिया के अनुसार उन्होंने शनिवार को कहा कि एसएस राजमौली की फिल्म आरआर आर इन दिनों बहुत लोकप्रिय है, मगर यह एक पिछड़ी फिल्म है। यह हमें पीछे लेकर जाती है जबकि हमें आगे देखने की आवश्यकता है।”
रत्ना पाठक शाह की सोच का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह हिन्दू महिलाओं द्वारा करवाचौथ का व्रत रखने से इस सीमा तक परेशान थीं कि उन्होंने यह तक कह दिया था कि भारत में जिस प्रकार से पढ़ी लिखी हिन्दू स्त्रियाँ करवाचौथ का व्रत रख रही हैं, तो उससे धर्मान्धता बढ़ रही है और यही हाल रहा तो हम एक दिन सऊदी अरब बन जाएंगे।
जुलाई में जब रत्ना पाठक शाह ने यह बोला था तब भी उनका बहुत विरोध हुआ था, परन्तु ऐसा लगा नहीं कि उन्होंने इस विरोध से कुछ सीख ली। बल्कि ऐसा लग रहा है जैसे इस विरोध ने उन्हें और कुंठा में भर दिया और चूंकि फिल्मों में अब उनकी बकवास को देखने लोग आते नहीं हैं तो उन्होंने दर्शकों की पसंद को ही पिछड़ा ठहराने का प्रयास किया। उन्होंने उस पूरी की पूरी सोच पर ही प्रश्न लगा दिया।
उन्होंने यह कह दिया कि यह तो फिल्म ही पिछड़ी है! अर्थात पीछे ले जाने वाली फिल्म को पसंद करने वाले खुद ही पिछड़े होंगे। ऐसा कहकर उन्होंने जनता को ही दोषी ठहराया है। वहीं रत्ना पाठक शाह ने पठान फिल्म के चल रहे विरोध पर यह कहा कि यहाँ पर लोगों के पास खाने के लिए नहीं है और लोग किसी के पहने हुए कपड़ों पर विरोध कर रहे हैं।
रत्ना पाठक शाह बड़प्पन दिखाते हुए यह भी कहती हैं कि वह उन दिनों की आस में हैं जब घृणा गायब हो जाएगी!
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि रत्ना पाठक शाह को हिन्दुओं के साथ होते हुए अन्याय नहीं दिखाई देते हैं, और न ही उन्हें यह दिखाई देता है कि रोज ही श्रद्धा जैसे मामले निकल कर आ रहे हैं, जहां पर उनके लाशों के टुकड़े गिनने पड़ रहे हैं। या कहीं पर किसी और तरीके से मारा जा रहा है। नुपुर शर्मा का समर्थन करने पर महाराष्ट्र के उमेश कोल्हे का क़त्ल कर दिया गया था और उनके कातिल तबलीगी जमात के मानने वाले निकले हैं, मगर रत्ना पाठक शाह को यह सब दिखाई नहीं देता है।
नुपुर शर्मा आज तक अपनी स्वाभाविक ज़िन्दगी नहीं जी पा रही हैं, मगर रत्ना पाठक शाह को यह सब नहीं दिखता है, न ही रत्ना पाठक शाह को श्रद्धा, अंकिता, रिबिका आदि की चीखें सुनाई देती हैं। खैर! ऐसा नहीं है कि केवल रत्ना पाठक शाह ही इस श्रेणी में है। इसमें कश्मीर फाइल्स को कचड़ा कहने वाले स्क्रीनराइटर सईद अख्तर मिर्जा भी हैं। नाटककार सईद अख्तर मिर्जा ने कश्मीर फाइल्स को कूड़ा कहा है। नाटककार एवं निर्देशक सईद अख्तर मिर्जा ने कहा कि उनकी निगाह में यह फिल्म कचड़ा है क्योंकि इसमें दूसरे पक्ष को अर्थात पीड़ित मुस्लिमों को सम्मिलित नहीं किया गया था!
इस पर विवेक अग्निहोत्री ने ट्वीट करके लिखा था कि मैं यह कहना नहीं चाहता हूँ, मगर मैं सोचता हूँ कि अब सच बोलने का समय है।
पूरी ज़िन्दगी उन्होंने पूरे जीवन मुस्लिम विक्टिमहुड पर फ़िल्में बनाईं, हिन्दुओं ने इन्हें अमीर और प्रसिद्ध बनाया और फिर भी कृतघ्न बॉलीवुड हिन्दुओं के प्रति शून्य संवेदनशील है!
यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि रत्ना पाठक शाह और सईद अख्तर जैसे लोग जिन्हें हिन्दुओं ने अमीर बनाया, जिनकी फ़िल्में और सीरियल्स देख देखकर स्टार बनाया, वही लोग हिन्दुओं के प्रति इस हद तक संवेदनहीन हैं कि वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हिन्दुओं की पीड़ा को नकारने की चाल हिन्दू समझ गया है। वह कोई एजेंडा नहीं चाहता, बस यह चाहता है कि उसकी पीडाएं सुनी जाएं! उसकी पीड़ाएं कम से कम विमर्श का हिस्सा तो बनें! उसकी पीडाओं को पहचाना तो जाए
परन्तु जब भी हिन्दू अपनी पीड़ा पर बात करता है तो उससे कहा जाता है कि जिसने पीड़ा दी है उसका पक्ष तो जान लो? समस्या आतताइयों के चश्मे से हिन्दू की पीड़ा देखे जाने की है!