आज पूरा विश्व डॉटर्स डे मना रहा है, और कल से अर्थात 26 सितम्बर 2022 से हिन्दू धर्म में स्त्री शक्ति के सबसे बड़े पर्व के रूप में नवरात्रि भी आ रहा है। यह बहुत ही दुखद है कि एक ओर फेमिनिस्ट इस दिन को क्रांतिकारी diदिन बताती हैं तो वहीं उनका निशाना केवल हिन्दू पुरुष और पिता होते हैं, जिन्होनें कथित रूप से लड़कियों अर्थात बेटियों पर अत्याचार किए होते हैं। उसे वह सदियों पुरानी परम्पराओं तक ले जाती हैं और कहती हैं कि सदियों से पुत्री प्रताड़ित होती आई है?
क्या वास्तव में? क्या वास्तव में हिन्दू पुरुषों को अपनी बेटियों से घृणा थी? यदि हाँ, तो अब तक बेटियाँ क्यों हैं और बेटियों की तमाम उपलब्धियां क्यों हैं? यदि नहीं तो फेमिनिस्टों को अपने इस झूठ को वर्ष दर वर्ष बोलने में लज्जा नहीं आती? या वह निर्लज्ज हो चुकी हैं?
वेदों से लेकर अभी तक न जाने कितने पिता ऐसे हैं जिन्होनें अपनी पुत्री के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया? स्त्रियों की आन बान को लेकर न जाने कितने हिन्दू युवक थे, जो बलिदान हो गए, फिर भी हिन्दू पुरुष दोषी? क्या पूरे समुदाय को दोषी ठहराया जा सकता है?
क्या इस कथित फेमिनिज्म में स्त्रियों अर्थात बेटियों को अधिक अधिकार हैं या फिर हिन्दू धर्म में बेटियों का स्थान उच्च था? इस प्रश्न का उत्तर उस आत्महीनता में है, जिसके तले वह गले तक धंसी हैं और वह चाहती हैं कि दूसरे भी डूब जाएं! आज कुछ पिताओं का उल्लेख करते हैं, जिन्हें कथित रूप से पिछड़ा कहा जाता है। उनमें सबसे ऊपर नाम है मिथिला नरेश जनक का!
मिथिला नरेश जनक, जिन्हें अपनी पुत्री सीता भूमि से प्राप्त हुई थीं, उनके विवाह को लेकर वह कितने सजग थे, वह महर्षि वाल्मीकि ने अत्यंत सुन्दरता से लिखा है, जिसे पढ़कर कोई भी पिता उस भाव को समझ सकता है, जो वह कन्यादान करता है। “कन्यामान” की बात करने वाली पीढ़ी संभवतया इसे नहीं समझ पाएगी।
यह राजा जनक थे, जिन्होनें अपनी धरती से निकली पुत्री के गुणों के आधार पर ही यह निश्चित किया कि जो भी महादेव के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, वही उनकी पुत्री का वर होगा। महाराज जनक ने अपनी गुणी पुत्री के लिए वर के पराक्रम की परीक्षा ली।
वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड में लिखा है कि राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के लिए वर के पराक्रम की परीक्षा लेने का निश्चय किया। वहीं दूसरी ओर वह प्रभु श्री राम एवं लक्ष्मण को देखकर स्वयं आनंदित हो गए हैं, परन्तु परीक्षा वह तब भी लेते हैं! जब महर्षि विश्वामित्र उनसे उस धनुष के विषय में बताने के लिए कहते हैं तो राजा जनक कहते हैं कि हे मुनिश्रेष्ठ, जब मैंने कहा कि मैं अपनी कन्या बिना वर के परीक्षा नहीं दूंगा तो सब राजा इकट्ठे होकर अपने पराक्रम की परीक्षा देने के लिए मिथिलापुरी में आए। उनके बल की रक्षा के लिए मैंने यह धनुष उनके सम्मुख रखा।
फिर उनमें से कोई भी राजा उस धनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाया। हे महर्षि, जब मैंने देखा कि कोई भी उस धनुष को उठाने में सफल नहीं है, तो मैंने सभी “अल्पवीर्य” (अत्यधिक दुर्बल) जानकर अपनी कन्या नहीं दी। हे मुनिराज! तब उन लोगों ने क्रुद्ध होकर मिथिलापुरी को घेर लिया।
इसके बाद क्या कहते हैं, राजा जनक उसे समझना चाहिए और डॉटर्स डे के बहाने हिन्दू पिताओं और माताओं को नीचा दिखाने वालों को अवश्य पढ़ना चाहिए। वह कहते हैं कि उन लोगों ने अत्यंत क्रुद्ध होकर मिथिलावासियों को बड़े बड़े कष्ट दिए, एक वर्ष तक लड़ाई होने से मेरा धन भी नष्ट हुआ, इसका मुझे बड़ा दुःख हुआ और फिर मैंने तप द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया। देवताओं ने मेरी सहायता की तथा अपनी सेना दी, अपनी वीरता की झूठी डींगे हांकने वाले वह सभी राजा अपनी सेना एवं मंत्रियों समेत भाग गए।
अर्थात, अपनी उस पुत्री के लिए, जो उन्हें भूमि से प्राप्त हुई थीं, उनके लिए भी वह इस सृष्टि के सबसे शक्तिशाली राजाओं से लड़ने के लिए तैयार थे, परन्तु उन्होंने अपनी कन्या किसी गलत हाथों में नहीं दी।
विडंबना यही है कि पिता के रूप में अत्यंत उच्च स्थान रखने वाले जनक को भी आज ऐसे पिता के रूप में माना जाता है, जिन्होनें अपनी पुत्री के साथ अन्याय किया। यह कुपढ़ता की सीमा है।
ऐसे ही एक और पिता थे, जिनका नाम फेमिनिस्ट लेना उचित नहीं समझती हैं और लेंगी भी नहीं क्योंकि उन्होंने अपनी पुत्री को लेकर जो स्वतंत्रता की मर्यादा स्थापित की है, उसका दशमलव अंश भी इनके घर पर इन्हें नहीं मिलता है, या कहें वह उसके दशमलव के भी योग्य नहीं हैं, इसीलिए वह कभी समझ नहीं पाईं कि दरअसल पिता क्या होते हैं?
पुत्री को दी जाने वाली स्वतंत्रता में सबसे उच्च नाम है, मद्र नरेश अश्वपति का। उनके कोई संतान नहीं थी, अत: उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए सावित्री देवी की उपासना की, जिसके परिणामस्वरूप एक अत्यंत ही सुन्दर कन्या की प्राप्ति उन्हें हुई। महाराज अश्वदेव ने उस कन्या का नाम ही सावित्री रख दिया।
सावित्री इतनी रूपवती एवं गुणों से परिपूर्ण थी कि महाराज अश्वपति ने स्वयं को उनके लिए कोई योग्य वर खोजने में सक्षम नहीं माना तथा उन्होंने अपनी पुत्री से ही कहा कि वह अपने लिए अपने योग्य वर खोजने के लिए पूरे देश की यात्रा करें। यह किसी भी पिता द्वारा अपनी पुत्री पर किया गया सबसे बड़ा विश्वास है। यह पुत्री का मान है। उसके उपरान्त यह जानते हुए भी कि सत्यवान की आयु मात्र एक ही वर्ष है, अपनी पुत्री के प्रेम की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए, वह उनका विवाह सत्यवान से तब करते हैं, जब वह राजा नहीं हैं।
अर्थात उन्होंने अपनी पुत्री के प्रेम का ही सम्मान नहीं किया, बल्कि अपनी पुत्री के चयन पर आँखें मूँद कर विश्वास किया। यही कारण था कि सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा कर सकीं, क्योंकि उनके पिता को अपनी पुत्री के निर्णय पर विश्वास था!
ऐसे ही पिता थे महर्षि अत्रि! उन्हें संतान चाहिए थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि पुत्र या पुत्री? फिर उनके यहाँ एक कन्या ने जन्म लिया, कन्या के आगमन से वह हर्षा गए। उनके यहाँ अपाला ने जन्म लिया था। अपाला की उम्र बढ़ते ही पिता को ज्ञात हुआ कि इतनी सुन्दर देह पर कुष्ठ के कुछ चिह्न हैं। उपचार के बाद भी चिह्न नहीं हटे, तो उन्होंने क्या किया? क्या उन्होंने पुत्री के साथ सामाजिक भेदभाव किया? नहीं उन्होंने पुत्री की विद्या में कोई कमी नहीं आने दी, पुत्री को दी गयी विद्या का ही परिणाम था कि अपाला इंद्र से अपना सौन्दर्य पाने में सफल हुईं!
जिस देश में ऐसे पिता हुए हैं, जिस देश में पिताओं ने आगे बढ़कर अपनी पुत्रियों को हर प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की, सत्यवती के पिता निषादराज का पुत्री प्रेम हालांकि स्वार्थ से भरा हुआ है, परन्तु वह अपनी पुत्री के लिए है। उन्होंने स्वयं के लिए तो कुछ नहीं माँगा!
परन्तु यह अत्यंत दुखद है कि पश्चिम से उधार लिया गया कोई भी दिवस हो, उसकी परिणिति हिन्दू धर्म को ही नीचा दिखाने के साथ होती है। जबकि वेदों से लेकर अब तक हिन्दू माता-पिताओं द्वारा अपनी पुत्रियों पर किया गया विश्वास एवं सहज आचरण में स्वतंत्रता परिलक्षित होती है।
महाभारत में कुंती भी दत्तक पुत्री ही थीं। कालान्तर में मजहबी आक्रमणकारियों के कारण कुरीतियों का आगमन हुआ और हिन्दू समाज कई बेड़ियों में फंस गया, परन्तु यह देखना दुखद है कि जब भी भारत में पश्चिम से आयातित कोई भी दिवस मनाया जाता है, तब कुरीतियों को लाने वाले समुदाय पर कोई प्रश्न नहीं उठाता, न ही यह कोई बताता है कि आज भी हिन्दू धर्म में ही स्वयं में आई कुरीतियों से लड़ने का साहस है तथा वह स्वयं ही कुरीति को मिटाता है, परन्तु एक बड़ा वर्ग है वह हिन्दू धर्म को दूषित करने वाले, भारत को तोड़ने वाले मजहब को उद्धारक या मसीहा ही बताकर काले बुर्के में कैद हो जाता है, या फिर ननों पर कविता लिखने की पाबन्दी लगाने वाले सफ़ेद जहर में खो जाता है!