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Sunday, October 13, 2024

सूरत और दिल्ली में दिल्ली के कंझावला काण्ड के जैसी ही दो और दुर्घटनाएं: परन्तु चुप्पी क्यों? हर दुर्घटना में स्त्री विमर्श कहीं हिन्दुओं के व्यापक विमर्श को लील तो नहीं रहा?

दिल्ली में नए वर्ष की रात को घटी दुर्घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और चूंकि वह दिल्ली में हुआ था और इस बहाने कई एजेंडे एवं निशाने साधे जा सकते थे तो उस पर हंगामा हुआ, चर्चा हुई, बेटी बचाओ जैसे नारों पर हंगामा हुआ और अंतत: यह प्रमाणित करने का प्रयास किया गया कि हिन्दू पुरुष कितने खूंखार होते हैं कि एक युवती को ऐसे मारा!

हालांकि यह तक कहा जा रहा था कि सेक्सुअल असौल्ट अर्थात दैहिक उत्पीड़न भी किया गया है, परन्तु यह सत्य नहीं था और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी ऐसा कुछ नहीं आया था। मामला दुर्घटना का ही रहा, परन्तु उसे स्त्री शोषण आदि के साथ जोड़ा गया एवं जिसने भी इस बात पर प्रश्न उठाया कि लड़की इतनी रात में बाहर क्या कर रही थी तो उसे पिछड़ा आदि कहा गया।

इस मामले में एक भारतीय जनता पार्टी के छोटे नेता का भी नाम सामने आया तो उसे लेकर मामला राजनीतिक बनाने का प्रयास किया गया, परन्तु जैसे ही निधि अर्थात अंजलि की सहेली का बयान और यह बात निकल कर सामने आई कि वह पहले भी ड्रग मामले में पकड़ी जा चुकी है, यह मामला असामान्य रूप से शांत हो गया।

इस मामले में न ही स्त्री विमर्श निकलकर आया और न ही कुछ और! बात होनी चाहिए थी कि आखिर ३१ दिसंबर या कभी भी रात में शराब पीकर गाड़ी क्यों चलाई जाए? क्योंकि कहा जा रहा है कि आरोपियों ने शराबा पी रखी थी।

इस बात को लेकर भारतीय जनता पार्टी फिर केजरीवाल सरकार पर हमलावर हुई कि उसकी शराब नीति के चलते शराब इतनी सुलभ हो गयी है कि लोग शराब पीकर गाड़ी चला रहे हैं। परन्तु फिलहाल मामला शांत है, ठंडा है, संभवतया कोई भी राजनीतिक हित नहीं सध सका होगा तो न्याय आदि की बातें अभी नेपथ्य में हैं!

परन्तु जो सबसे महत्वपूर्ण बात रह गयी वह यह कि गाड़ी चलाते समय दायित्व बोध कि सड़क पर यदि किसी के साथ आप दुर्घटना कर देते हैं तो गाड़ी रोकनी है। या फिर गाड़ी की गति कितनी रखनी है, क्योंकि भारत में रोज ही सैकड़ों जानें सड़क दुर्घटना के चलते जाती हैं।  वर्ष 2022 में प्रकाशित वर्ष 2021 में सड़क दुर्घटना में मारे हुए लोगों के आंकड़े भयावह थे।

दैनिक जागरण के अनुसार “भारत में 2021 में हुए सड़क हादसों की ताजा रिपोर्ट सामने आई है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि देश में वर्ष 2021 में सड़क दुर्घटनाओं में 1।55 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई है। यह आंकड़ा औसतन 426 लोग प्रतिदिन या हर घंटे 18 लोगों का है।“

यह आंकड़े हर किसी को डराने चाहिए। क्योंकि जहां बात होनी चाहिए आम लोगों के साथ हुए इस प्रकार के हादसों की तो वहीं बात होने लगती है राजनीतिक कारणों से स्त्री शोषण आदि का शोर मचाया जाने लगता है, यदि किसी प्रतिद्वंदी से मामला साधना है तो यह कहा जाने लगता है कि अमुक धर्म तो ऐसा है, इसके मानने वाले लड़कियों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं, जैसा कंझावला काण्ड में हुआ था।

जहां बात होनी चाहिए सड़क पर मारे जाने वाले लोगों की, क्योंकि कंझावला काण्ड से पहले और उसके बाद भी उसी प्रकार की अन्य दुर्घटनाएं हुई हैं और एक दो नहीं बल्कि कई जानें जा चुकी हैं। आज अर्थात 29 जनवरी 2023 को ऐसी ही दो घटनाएं सामने आई हैं, यह दोनों ही घटनाएं हूबहू दिल्ली के कंझावला कांड के जैसी है, जिसमें मरने वालों को गाड़ी में घसीटा गया, मगर यह दोनों ही मृत्यु किसी भी विमर्श का हिस्सा नहीं हैं।

यह क्यों किसी विमर्श का हिस्सा नहीं हैं, क्या यह जो मरे हैं, वह किसी की सन्तान नहीं? दिल्ली में केशवपुरम में ऐसी ही एक घटना सामने आई जिसमें एक युवक की जान चली गयी।

टक्कर मारकर कार ने स्कूटी चालक को 350 मीटर तक घसीटा। इसके चलते एक युवक कैलाश भटनागर की मृत्यु हो गयी एवं दूसरा युवक अभी जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है।

परन्तु इन दोनों ही युवकों के लिए कोई आवाज नहीं उठी। क्या जबरन स्त्री विमर्श लाकर सड़क दुर्घटनाओं के वृहद विषय को सीमित किया जा रहा है? क्या शोर इसीलिए मचाया जाता है जिससे कि वह कारण नेपथ्य में चले जाएं, जिनके चलते सैकड़ों लोग रोज अपनी जान गंवा देते हैं?

यह तो मात्र 350 मीटर की बात थी। मगर गुजरात में सूरत में जो घटना आई है सामने वह बिलकुल ही दिल्ली की घटना के जैसी है क्योंकि इसमें एक युवक को एक कार द्वारा घसीटा ही नहीं गया बल्कि उसे भी पूरे 12 किलोमीटर तक घसीटा गया। जहाँ पर दुर्घटना हुई थी, वहां से 12 किलोमीटर दूर उनका शव पाया गया।

जो लोग कंझावला की घटना पर स्त्री विमर्श आदि की बातें कर रहे थे, वह इन पुरुषों की मृत्यु पर मौन हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन युवकों की मृत्यु मात्र आंकड़े बनकर रह जाएगी या फिर जो जिम्मेदार लोग हैं, वह इस पर बात कब करेंगे कि जो ऐसे पुरुष इन दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं, वह भी किसी के भाई, पति या पिता होते हैं। क्या सारा पीड़ा विमर्श उन्हीं मुद्दों के इर्दगिर्द सिमट कर रह जाएगा जिससे राजनीतिक दल परस्पर एक दूसरे पर निशाना साधते हैं और फिर उसके आधार पर राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास करते हैं?

यदि महिला न्याय ही मुख्य विमर्श होता तो क्या निर्भया काण्ड से पहले हुआ किरन नेगी हत्याकांड उसी तरह मर जाता, जैसे वह अभी मर गया? उत्तराखंड की किरन नेगी की हत्या दिल्ली में 9 फरवरी 2012 को सामूहिक बलात्कार के बाद कर दी गयी थी। और हत्या भी बहुत क्रूर तरीके से की गयी थी। उसकी आँखों में तेज़ाब डाला गया था। उसके कानों और आँखों में तेज़ाब डाला गया था। पेचकस से आँखें फोड़ दी थीं और उसके गुप्तांगों में बोतल फोड़ दी थी।

मगर किरण नेगी के हत्यारों अर्थात राहुल, रवि एवं विनोद को नवंबर 2022 में उच्चतम न्यायालय ने बरी कर दिया था, जिसके विरोध में उत्तराखंड में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। क्योंकि कोई भी सहज यह विश्वास कर ही नहीं सकता था कि इतने जघन्य अपराध के बाद भी किसी को रिहा किया जा सकता है।

हालांकि इस निर्णय के बाद उच्चतम न्यायालय में दिल्ली गृह मंत्रालय की ओर से समीक्षा याचिका दायर कर दी गयी है, और आरोपियों की रिहाई का विरोध किया गया है क्योंकि यह कोई साधारण मामला नहीं था, फिर भी न ही इस मामले को लेकर विमर्श बन पाया और न ही विमर्श बना!

परन्तु जो विमर्श निर्भया का बना, वह किरन नेगी का नहीं बन सका था? आज भी किरण नेगी का नाम लोगों को नहीं पता है। इसलिए ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं सिलेक्टिव ही समस्याएं उठाई जा रही हैं, जैसे हाथरस काण्ड को उभारा जाता है, जिससे योगी सरकार को घेरा जा सके, हिन्दुओं को पिछड़ा विरोधी घोषित किया जा सके, मगर जब झारखंड में जनजातीय लड़कियां संगठित अपराध का शिकार हो रही है, उन पर मौन पसर जाता है क्योंकि अपराध करने वाले मुस्लिम समुदाय के हैं।

ऐसे में यह देखना दुर्भाग्य है कि चाहे दुर्घटना हों या फिर महिलाओं के साथ होने वाले अपराध, वह वृहद विमर्श का हिस्सा न होकर मात्र इस आधार पर आंके जाते हैं कि उनसे सियासी लाभ कितना होगा या फिर किस अपराध पर बात करके हिन्दुओं को कैसे नीचे दिखाया जा सकता है, कैसे योगी सरकार को घेरा जा सकता है, कैसे विमर्श के स्तर पर हिन्दुओं को अपमानित किया जा सकता है!

क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो जैसा शोर कंझावला कांड पर मचा था, वैसा ही शोर उन युवकों की मृत्यु पर भी मचना चाहिए था, जो किसी कार में घिसट कर मर गए और जिनकी मृत्यु मात्र एक आंकड़ा बनकर रह गया, और आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट बनती है, चुनाव नहीं जीते जाते!

काश कि हिन्दू पुरुष भी किसी व्यापक वोट बैंक वाले विमर्श का हिस्सा होते तो उनकी मृत्यु पर भी विमर्श होते, सड़क दुर्घटनाओं में कैसे युवकों की मृत्यु का आंकड़ा कम हो, इस बात पर चर्चा होती, परन्तु चर्चा से सब कुछ गायब है, शेष है तो मात्र यह कि कैसे भी हिन्दुओं को व्यापक रूप से अपराधी घोषित कर दिया जाए, विमर्श में हिन्दुओं को इतना पिछड़ा घोषित कर दिया जाए कि वह आवाज भी न उठा पाएं, वह अपना पक्ष भी न रख पाएं!

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