बीजापुर और शिवाजी के मध्य यह अब निश्चित हो चला था कि संधि होगी। एक ऐसा व्यक्ति अब निर्विवाद रूप से दक्कन में शासक या निर्धारक शक्ति बनने जा रहा था, जिसकी माँ ने स्वराज्य और सुराज दोनों का ही स्वप्न उनके नेत्रों में बसा दिया था। बीजापुर अब और युद्ध करने की स्थिति में नहीं था और न ही हिन्दू मराठा अभी इतने शक्तिशाली हो पाए थे कि वह बीजापुर को जीत लें। परन्तु यह निश्चित था कि अब दोनों ही पक्षों को शांति चाहिए थी। शिवाजी ने यह बताया था कि शांति का अर्थ आत्मसम्मान से भरी शांति होती है, एवं वह युद्ध या बल प्रदर्शन के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है।
परन्तु वर्ष 1662 संधि के साथ साथ टूटे एवं ठिठके हुए सम्बन्धों के लिए भी जैसे एक प्राणवायु लेकर आने वाला था। बीजापुर प्रशासन की ओर से यह निर्धारित किया गया कि शिवाजी के साथ संधि करने के लिए और कोई नहीं बल्कि शिवाजी के पिता, शाहजी जाएंगे!
यह इतिहास का अद्भुत क्षण था। जिस पर लिखा नहीं गया है। शिवाजी, के हृदय में उस क्षण कैसा अनुभव हुआ होगा कि उनसे संधि करने के लिए और कोई नहीं स्वयं उनके पिता ही मध्यस्थ बनकर आ रहे हैं। शाहजी स्वयं आत्मसम्मान से भरे हुए थे, परन्तु वह कभी यह नहीं सोच पाए थे कि हिन्दुओं का भी राज्य उस समय की परिस्थितियों में हो सकता है, यही कारण है कि उन्हें बार बार यह प्रतीत होता रहा कि उनका पुत्र उनके लिए समस्याएं उत्पन्न करता है, तथा विद्रोही है। वह शिवाजी से अंतिम बार तब मिले थे जब शिवाजी उन्नीस बरस के थे और अब वह उस आवरण में नहीं होंगे, जिस आवरण में वह पहली बार बीजापुर आए थे। अर्थात निजाम के अधीन! अब वह स्वतंत्र शिवाजी से संधि करने जा रहे थे। शाहजी के लिए भी सम्भवतया यह एक अद्भुत अनुभव होने जा रहा था। वह अपने उस पुत्र से भेंट करने जा रहे थे, जिसके कारण उनका नाम सृष्टि में सदा के लिए रहने जा रहा था।
और वहीं सुदूर दिल्ली में भी जब इतिहास लिखने की बारी आनी थी तो ऐसे बेटे का इतिहास लिखा जाना था, जिसने अपने जन्मदाता को गद्दी के लिए कैद कर लिया था। वर्ष 1662 से तीन वर्ष पूर्व ही औरंगजेब, जिसे इतिहासकार “ज़िन्दापीर” कहते हैं, उस “ज़िन्दापीर” ने अपने अब्बा को गद्दी पाने के लिए कैद कर दिया था। और इतना ही नहीं अपने अब्बू को दर्द देने के लिए उनके सबसे प्यारे बेटे का सिर काटकर चांदी की तश्तरी में भेजा था।

इतना ही नहीं उसने मुराद के साथ भी खेल खेला था। परन्तु यह देखना रोचक है कि एक ही समय दिल्ली और दक्कन में दो शक्तियाँ और उनका पिता के प्रति आचरण ही यह निर्धारित करने जा रहा था कि संस्कृति पर वह तहजीब कभी हावी नहीं हो सकती है जिसके भीतर अपने जन्मदाता के प्रति आदर नहीं है।
औरंगजेब ने अपने अब्बा अर्थात हिन्दुस्तान के बादशाह को कैद कर लिया, एवं वह चूंकि मार नहीं सकता था, क्योंकि उसे पता था कि हिन्दुस्तान का जनमानस सब कुछ सहन कर सकता है, कैसा भी बादशाह सहन कर सकता है, परन्तु पिता की हत्या करने वाला नहीं।
अत: जिस बुर्ज में उसने अपने अब्बू को कैद कर रखा था वहां पर बाहर रोज खूब ढोल बजवाता, हर प्रकार के युद्ध अभ्यास भी उसी बुर्ज के बाहर किये जाते और कभी कभी उसे प्यासा रखा जाता, तो कभी उसके पास शराब और लड़कियां दोनों भेज जातीं।
और एक ओर थे यह शिवाजी, जिनके समक्ष उनके पिता संधि करने आ रहे थे तो जैसे वह समझ ही नहीं पा रहे होंगे कि क्या करना है? संभवतया उन्हें यही प्रतीत हो रहा होगा कि वह पिता के लिए अब गर्व का विषय हो ही गए हैं। इस क्षण की महत्ता वही समझ सकता है जिसकी आँखों में कोई स्वप्न हो,
नियत समय पर उनके पिता उनके साथ संधि के लिए आए और फिर वह क्षण आया जब शिवाजी ने अपने पिता के चरणों पर शीश धर दिया।

एक समय था शिवाजी ने बीजापुर के निजाम को उसी के दरबार में सलाम करने से इंकार कर दिया था; और वह तो उस समय बालक ही थे, आज उनके पिता उसी निजाम का प्रतिनिधि बनकर संधि करने आए हैं। शिवाजी ने जैसे ही अपने पिता के चरणों में अपना शीश रखा विसे ही दोनों ही पिता पुत्र आंसुओं से भीग गए। यह अश्रु संभवतया इतिहास के सबसे बहुमूल्य अश्रुओं में से एक थे।
शिवाजी ने अपने पिता के लिए पालकी बुलवाई परन्तु वह स्वयं उनके साथ नंगे पैर ही पालकी के साथ साथ चलते रहे। जब वह संधि के लिए निर्धारित स्थान पर पहुंचे तो एक अत्यंत ही सुन्दर स्थान पर उनके पिता का स्वागत किया गया, परन्तु शिवाजी अपने पिता के साथ नहीं बैठे। वह अपने वक्ष पर अपने हाथ बांधे खड़े रहे अपने पिता के बगल में। जब शाह जी ने उनसे अनुरोध किया कि वह भी उनके साथ बैठ कर खाएं। तो शिवाजी ने इंकार कर दिया। और कहा “जब तक आप मुझे इसके लिए क्षमा नहीं कर देते कि मेरे ही कारण आपको सुलतान की कैद में जाना पड़ा था।”
(shivaji, The Grand Rebel-Denis Kinkaid) (शिवाजी, द ग्रांड रेबेल, डेनिस किनकैड के अनुसार)
यह सुनते ही शाहजी भूल गए कि वह संधि करने आए हैं और उनका पिता का रूप जाग गया, वह फूट फूट कर रोने लगे एवं उन्होंने अपने पुत्र से अतीत को भूलने की प्रार्थना की। और फिर दोनों का विषाद धुल गया एवं दोनों ने साथ बैठकर भोजन किया।
शाहजी के पास बीजापुर की ओर से यह पूर्णतया शक्ति थी कि वह शिवाजी के साथ संधि की शर्तों को अंतिम रूप दें। शिवाजी की सभी मांगे मान ली गईं, उनकी स्वतंत्रता को मान्यता दी गयी और उन्हें मुम्बई से गोवा तक पूरे तटीय क्षेत्रों का शासक माना गया।
शाहजी इस संधि के उपरान्त गर्व के भाव के साथ चले गए एवं सुलतान के अधीन जाकर कार्यभार सम्हाल लिया, वही भेंट इन पिता पुत्र की अंतिम भेंट थी।
और उधर औरंगजेब अपने जन्मदाता को तिल तिल मार रहा था!
विडंबना यह है कि फेमिनिस्ट और वाम इतिहासकारों के लिए औरंगजेब केवल टोपी सिलने के कारण सभी हत्याओं से मुक्त कर दिया गया है, यहाँ तक कि अपने अब्बू को आठ वर्ष तक असहनीय यातनाएं देने के बाद!
एवं शिवाजी जैसे महान व्यक्ति को इतिहास में मात्र एक पहाड़ी शासक तथा विद्रोही में समेट दिया है, जबकि शिवाजी सनातन मूल्यों के प्रतीक हैं, वह सनातनी गर्व हैं, वह इस्लाम के कट्टर चेहरे के सामने सगर्व तनी सनातनी चट्टान है।