आज पूरे विश्व में ‘मदर्स डे’ अर्थात मातृ दिवस मनाया जा रहा है। इसका इतिहास कुछ भी रहा हो, परन्तु यह अब सत्य है कि यह भारत के कोने कोने में फ़ैल गया है और कहीं न कहीं यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। इस अवसर पर मातृत्व के कई पहलुओं पर चर्चा अपने आप ही आरम्भ हो जाती है। एक विमर्श है फेमिनिस्ट मातृत्व का और दूसरा है भारतीय अर्थात हिन्दू मातृत्व का। इन दिनों मातृत्व के नाम पर फेमिनिस्ट द्वारा हिन्दू समाज को कोसने का चलन बहुत बढ़ गया है जैसा हमने महिला दिवस पर देखा था।
एकदम से स्त्रियों के मातृत्व रूप को महिमामंडित किया जाने लगा था। यद्यपि ऐसा नहीं हैं कि मातृत्व को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दू धर्म ग्रंथों में तो माँ को सबसे बढ़कर बताया है एवं माँ के नाम पर ही महापुरुषों को जाना गया है। जैसे राम को कौशल्यानन्दन कहा गया तो लक्ष्मण को हमेशा ही सुमित्रानंदन कहा गया। कृष्ण भी देवकीनंदन के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ तक कि घरेलू परिचारिका जबाला के महान पुत्र को जबाला पुत्र सत्यकाम के नाम से ही जाना जाता है। यहाँ तक कि रामायण में भी लिखा गया है कि
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||
अर्थात जन्म देने वाली जननी एवं जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। अर्जुन सदा कुंती पुत्र कहलाए। फिर अचानक से ऐसा क्या हुआ कि लोगों को मातृत्व एकदम से ऐसा लगने लगा जैसे कि मातृत्व का अर्थ पुरुषों के विरोध में है। भारत में मातृत्व का अर्थ स्त्री को पूर्णता प्रदान करने वाला था, अर्थात वह अस्तित्व को पूर्णता प्रदान करता था, परन्तु जो अभी पुरुषों को कोसने वाले फेमिनिज्म से उत्पन्न मातृत्व का महिमामंडन है वह समाज को तोड़ने वाला है।
जो फेमिनिस्ट रचनाकार माओं पर कविता लिखती हैं, वह जैसे केवल रोना धोना ही कविताओं में परोसती हैं या फिर हालिया दिनों के विषय में निराशा! माँ के रूप में उनके लिए स्त्री हमेशा ही एक पीड़ित है, जिसका शोषण उसके पिता कर रहे हैं। और ऐसे में इन सभी नकारात्मक कविताओं को प्रकाशित कर रही हैं, हर किसी की व्यक्तिगत साहित्यिक वेबसाईट या ब्लॉग!
जैसे एक कविता है, यह एक एसोसिएट प्रोफ़ेसर की कविता है, मगर समाज के प्रति किस हद तक यह नकारात्मकता से भरी हुए है, वह देखने की बात है:
मेरे समय में बेटियाँ लूटी जा रही हैं
मेरे समय में बेटियाँ नोची जा रही हैं
यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं धब्बे
उनके ख़ून के, उनके आँसुओं के
न चाह कर भी मैं छीन रही हूँ तुमसे तुम्हारा बचपन
और थमा रही हूँ पोटली
तुम्हें अपने जिए अनुभवों की।
जब ज्योति चावला यह लिख रही हैं, तो वह यह नहीं बता रही हैं कि आखिर उनके समाज में कौन लूट रहा है बेटियाँ? और कौन नोच रहा है बेटियों को? और क्यों वह अपने नकारात्मक अनुभव अपनी बेटी के हाथ में थमा रही हैं? यह एक प्रश्न है? मगर इन एजेंडापरक वेबसाईट को किसी भी प्रश्न से इसलिए लेना देना नहीं है क्योंकि इन्हें व्यूअर चाहिए, जो शायद बड़े नामों के होते हैं। ऐसे ही हिन्दवी पर एक कविता है नीलेश रघुवंशी की जो बच्चे को केवल जिम्मेदारी के रूप में प्रस्तुत करती है,
एक आया ढूँढ़नी है अभी से,
ताकि जब ऑफ़िस जाऊँ तो वह तुम्हें अपनी-सी लगे
गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसी किताबें बढ़ती हूँ इन दिनों
ढेर सारे नाम खोजती-फिरती हूँ
हर दिन दूधवाले की जान खाती हूँ
दिन-भर इन्हीं चकल्लसों में उलझी रहती हूँ
फिर भी काम हैं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे।
यह सही है कि शिशु के आगमन से पहले कार्य बढ़ जाते हैं, परन्तु वह किसी भी माँ को बोझ नहीं लगते। हिन्दू धर्म ग्रंथों में संतान की प्रतीक्षा की जाती है। प्रेम पूर्ण तरीके से! कौशल्या प्रतीक्षा करती हैं, देवकी प्रतीक्षा करती हैं। यहाँ तक कि गर्भाधान संस्कार होता है, तभी माँ प्रतीक्षा करती है। माँ के होने से सम्पूर्णता है! उसके लिए अपने शिशु के लिए जागना समाज पर अहसान नहीं है, बल्कि यह उसका कर्तव्य है कि वह समाज के लिए उपयोगी सन्तान का विकास करे।
यह इसलिए होता है क्योंकि फेमिनिज्म में माँ को एक रोजगार माना गया है। जैसे फेमिनिज्म में एक विचार है चॉइस फेमिनिज्म। इस ब्रांड में फेमिनिज्म में खुल कर इस बात की वकालत की जाती है कि किसी भी स्त्री को अपने मन से अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार है। और इस विचारधारा में एक फुल टाइम कैरियर के रूप में सेक्स वर्कर या फिर सिंगल मदर को अपनाया जा सकता है। वह परिवार को सबसे बड़ी बाधा मानती हैं इतना ही नहीं वह ऐसा मानती हैं कि जब एक स्त्री माँ बनती है तो वह पुरुष से नीचे हो जाती है। मातृत्व को ही स्त्री की मुख्य प्रकृति बना दिया जाता है। एवं ऐसी स्थिति में औरत और मर्द के बीच जो सम्बन्ध हैं वह एक लैंगिक अनुबंध के द्वारा निर्धारित होते हैं, जो औरतों के शरीर को आदमी एवं समाज के प्रति समर्पित कर देता है।
जबकि भारत या कहें हिन्दू दर्शन में स्त्री और पुरुष को अलग अलग न मानकर एक माना गया है अर्थात अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा है। जो यह कविताएँ लिखी जा रही हैं, वह स्त्री और पुरुष के परस्पर उपभोग के कारण उत्पन्न संतानों के सम्बन्ध में है तो वहीं हिन्दू दर्शन जब गृहस्थ जीवन की अवधारणा देता है तो वह सम्भोग का सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जिसमें स्त्री एवं पुरुष परस्पर एक दूसरे के प्रति समर्पित होते हैं।
सम्भोग जिसमें एक ही धरातल पर खड़े हुए दो भिन्न व्यक्ति अपने मध्य के समस्त अंतर भुलाकर एक दूसरे की देह के माध्यम से आत्माओं को जानते हैं एवं स्वयं का आत्मिक विकास करते हैं। उपभोग में वह केवल दैहिक रह जाता है, ऊपर ऊपर संतुष्टि हुई, जैसे बर्गर खाने के बाद हुई थी और आपके भीतर एक कुंठा भर गयी। क्षण भर की जिह्वा या देह की संतुष्टि और फिर शून्य बटे सन्नाटा!
और जब उपभोग के सम्बन्धों से उत्पन्न संताने होती हैं तो मातृत्व के लिए वह केवल ऊपरी ही स्तर पर देखकर लिख पाती हैं। वह माँ को भीतर तक समझ ही नहीं पातीं।
भारत में भी हिन्दुओं में स्वतंत्र एवं एकल माओं की एक लम्बी श्रृंखला रही है जिसमें माओं ने अपनी संतानों को धर्म के पथ की शिक्षा दी, फिर चाहे सीता हों, कुंती हों, शकुन्तला हों, जबाला हों, और आधुनिक समय में जीजाबाई हों! यह सभी स्वतंत्र स्त्रियाँ थीं एवं सबसे बड़ी बात इनके लिए मातृत्व बोझ नहीं था। जीजाबाई ने शिवाजी से यह नहीं कहा “यह बहुत बुरा समय है, मैं तुम्हें कैसे बचाऊँ”, बल्कि उन्होंने कहा कि यह लोग हिंदुत्व एवं मानवता के शत्रु हैं, इनका नाश करो, शिवाजी ने एक नया पथ अपनाया।
हमारे यहाँ की एकल माँ भी एक समाज को तोड़ती नहीं हैं, तभी हर दिन माँ का दिन होता है, हर क्षण माँ का क्षण होता है।
क्या आप को यह लेख उपयोगी लगा? हम एक गैर-लाभ (non-profit) संस्था हैं। एक दान करें और हमारी पत्रकारिता के लिए अपना योगदान दें।
हिन्दुपोस्ट अब Telegram पर भी उपलब्ध है. हिन्दू समाज से सम्बंधित श्रेष्ठतम लेखों और समाचार समावेशन के लिए Telegram पर हिन्दुपोस्ट से जुड़ें .