अभी तक जो लोग भी मदरसों में दी जा रही दीनी तालीम पर प्रश्न उठाते थे, उन्हें पिछड़ा कहकर अपमानित किया जाता था, परन्तु अब यूनेस्को ने ही अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि मदरसों में जो तालीम दी जा रही है, उससे महिलाओं के प्रति गलत और पिछड़ी सोच पैदा हो रही है। और वह औरतों को बच्चे पैदा करने वाली मशीन से अधिक नहीं समझते हैं।
इस चौकाने वाली रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसा से पढ़कर निकलने वाले लोगों में औरतों की ऊंची शिक्षा और कामकाजी माँ के प्रति एक कम स्क्रारात्मक दृष्टिकोण होता है और उनका यह पूरी तरह से मानना होता है कि औरतों का मुख्य काम केवल बच्चे पालना है और उनकी इच्छा होती है कि उनका एक बड़ा परिवार हो, अर्थात उनके खूब बच्चे हों!
इसे दूसरे शब्दों में समझें तो यही बात कि वह औरतों को बच्चे पैदा करने वाली मशीन मानते हैं! इस रिपोर्ट में हालांकि यह कहा गया है कि एशिया में राज्यों से मुक्त दीनी तालीम वाले स्कूल्स ने हालांकि लड़कियों को शिक्षा तक पहुँच दी है, परन्तु इसकी एक बहुत बड़ी कीमत भी सामने आई है।
रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसे जैसे जैसे शिक्षा की पहुँच बढ़ा रहे हैं, वैसे वैसे लैंगिक समानता पर कुछ सकारात्मक प्रभाव भी नगण्य हो सकते हैं। क्योंकि सबसे बड़ी बात तो यही है कि उनका जो भी पाठ्यक्रम है और जो पाठ्यपुस्तकें हैं, वह लैंगिक रूप से समावेशी नहीं हैं बल्कि उन पर लैंगिक भूमिकाओं पर पहले से चले आ रहे रिवाजों को ही थोप दिया जाता है। ऐसा बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, पाकिस्तान और सऊदीअरब में हुए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है। और दूसरा उनकी शिक्षाएं और सीखने की प्रक्रियाएं जैसे लैंगिक भेदभाव एवं सामाजिक संवादों में लैंगिक प्रतिरोध से ऐसा असर जाता है कि ऐसी लैंगिक असमान प्रक्रियाएं सामाजिक रूप से स्वीकार्य हैं!”
इस रिपोर्ट के अनुसार जो भी टीचर इनकी तालीम दे रहे हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि कैसे लैंगिक मामलों को हल किया जाए और इससे एक नकारात्मक मॉडल के रूप में बदल सकते हैं।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चूंकि परम्परागत संस्थानों में प्रगतिशील रोल मॉडल एवं मीडिया के साथ संपर्क कम हो सकता है और जो बार बार उनकी रीतिरिवाजों की बातें बताई जाती हैं, उनके कारण शिक्षा एवं रोजगार में औरतें शामिल नहीं हो पाती हैं जिसके कारण समाज में आदमियों का ही रूतबा कायम रहने की एक प्रवृत्ति है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जहाँ मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों के दिल में यह बात भर दी जाती है कि बच्चे तो ऊपर वाले की देन है और बड़े परिवार होने चाहिए, और ऐसे मदरसों में तालीम देने वाले टीचर्स के भी बड़े परिवार होते हैं।
इस रिपोर्ट में आगे यह भी कहा गया है कि उनके विशेष तहजीबी और संस्थागत इतिहास, जो अक्सर राज्य और गैर राज्य संस्थानों के बीच की सीमाओं को धुंधला कर देते हैं, इससे विश्लेषण और भी अधिक जटिल हो जाता है। वहां पर इन बातों पर बल दिया जाता है कि किन विचारों का पालन किया जा रहा है, इस्लामिक मजहबी किताबों की पढ़ाई, दैनिक इस्लामी मजहबी प्रक्रियाओं का होना और साथ ही स्थानीय मस्जिदों के साथ सम्बन्ध कैसे हैं। ये महत्वपूर्ण अंतर देश या कहें स्कूल के अनुसार अलग अलग हैं!
भारत में भी समय समय पर मदरसा शिक्षा में सुधार की मांग बढ़ रही है
भारत में भी इस बात की आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि मदरसा में शिक्षा में सुधार होना चाहिए। यही कारण है कि असम सरकार ने सरकारी अनुदान प्राप्त सभी मदरसों को सामान्य स्कूल में बदल दिया है। हालांकि इस निर्णय का विरोध भी हुआ था एवं इसके विरोध में लोग न्यायालय भी गए थे, परन्तु न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि सरकारी अनुदान प्राप्त मदरसों को ही स्कूल में बदला है, निजी या सामुदायिक मदरसे इससे मुक्त हैं।
उत्तर प्रदेश में भी मदरसा शिक्षा में सुधार के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। जैसे मदरसा शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण प्रदान करना। वहां पर दीनियत विषयों को कम करके हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान आदि विषयों को और अधिक पढ़ाया जाना।
भारत में जो भी मदरसा द्वारा दी जा रही तालीम पर एक भी प्रश्न उठाता है तो उसे इस्लामोफोबिक तथा न जाने क्या क्या कहा जाता है, परन्तु अब जब यूनेस्को ने इतनी बड़ी बात कही है तो देखना होगा कि भारत में मदरसों में सुधार का विरोध करने को मुस्लिम खतरे में हैं कहने वाली ब्रिगेड यूनेस्को के विरुद्ध क्या बोलेगी? क्योंकि मामला उस विषय पर है जिस विषय पर सब कुछ जानते बूझते हुए भी कोई मुंह नहीं खोलता है अर्थात औरतों का मजहबी तालीम में स्थान, कि मदरसा में पढने वाले बच्चों के दिल में औरतों की क्या छवि बनाई जा रही है और वह भी तालीम के माध्यम से!