आज देश में जश्न मनाया जा रहा है अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़े जाने का। एक दिन पहले ही हमने विभीषिका स्मरण दिवस मनाया है। आंसू और हर्ष का यह मेल अनोखा है और इसके साथ ही यह अवसर है उन सभी चेहरों को स्मरण करने का, जो इतिहास में तो हैं, पर हमारी स्मृति में नहीं। यह क्यों नहीं हैं, इस विषय में सोचने की आवश्यकता है। आज ऐसी ही चार स्त्रियों की कहानी, जिन्होनें अपना जीवन, अपना सर्वस्व अपनी भूमि के लिए समर्पित कर दिया, परन्तु उन्हें स्मृति में स्थान नहीं प्राप्त हुआ।
ननी बाला देवी: ननी बाला देवी का जन्म हावड़ा में 1888 में हुआ था, और 1916 में वह विधवा हो गयी थीं। परन्तु उन्होंने अपना जीवन स्वतंत्रता के संघर्ष को समर्पित कर दिया था। उनका कार्य था स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आश्रयस्थल की व्यवस्था करना, गुप्त दस्तावेजों को इधर से उधर पहुंचाना और युवक-युवतियों को प्रशिक्षित करना। और उनमें गजब का कौशल था, वह सहज अंग्रेजी पुलिस की पकड़ में नहीं आती थी। मगर एक बार वह बीमार पड़ गईं और उसके कारण पुलिस को उनका पता चल गया और उन्हें हिरासत में लेकर बहुत यातनाएं दी गईं, पर वह भी शक्ति स्वरूपा थीं उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला।
अपनी यातनाएं तो उन्होंने झेली ही, साथ ही अपने साथ जेल में बंद एक और क्रांतिकारी दुकड़ी बाला देवी पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ 21 दिनों तक भूख हड़ताल की। जब दुकड़ी देवी के साथ अत्याचार कम हुए, तब उन्होंने अपनी भूख हड़ताल समाप्त की।
जब वह 1919 में रिहा हुईं, तो उन्हें अंग्रेजी सरकार के डर से किसी ने सहारा नहीं दिया। उनका घरबार, सामान आदि सब कुछ छिन गया था और उनके क्रांतिकारी साथियों के साथ भी इसी प्रकार का दमनचक्र चल रहा था।
देश के लिए उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया, गरीबी झेली, भूखी रहीं, और अंत में ऐसी ही गुमनाम मृत्यु का शिकार हुईं।
क्षीरोदा सुन्दरी देवी: इनकी कहानी भी ननी बाला देवी जैसी ही कुछ कुछ रही। वर्ष 1883 में मैमनसिंह जिला के सुंदाइल गाँव में इनका जन्म हुआ था। यह 32 वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थीं। उनके भतीजे क्षितिज चौधरी देश के लिए कार्य करते थे और उनके फरारी जीवन में उनकी यह चाची बहुत मदद करती थी। इनकी इस छाया में कई क्रांतिकारी अपने देश के लिए कार्य करते थे, योजनाएं बनाते थे। पुलिस को उन पर शक हुआ, मगर पुलिस के पास कोई सबूत न होने के कारण उन्हें पकड़ नहीं पाई। उन्हें कई बार एक या डेढ़ महीने में ही जगह छोडनी पड़ जाती थी क्योंकि उनके पास क्रांतिकारियों के लिए सन्देश होते थे।
इनके जीवन की यह कहानी इन्होनें खुद ही 76 वर्ष की उम्र में 1959 में लिखी थी।
चारुशीला देवी: चारुशीला देवी ने स्वतंत्रता के लिए भारी कीमत चुकाई थी। वह मूलत: स्वदेशी आन्दोलन से जुड़ी थीं, परन्तु उन्हें क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने के कारण दंड झेलना पड़ा था। इनका जन्म 1883 में मिदनापुर में हुआ था। चारुशीला देवी खुदीराम बोस की मुंहबोली बहन थीं और उन्होंने ही खुदी राम बोस को स्वदेशी का मूलमंत्र दिया था और वह भी खून का टीका लगाकर। खुदीराम बोस के साथ उनके संबंध होने के कारण पुलिस उन्हें 1908 में मुजफ्फरपुर बम-काण्ड के सिलसिले में खोज रही थी। और इसी के कारण वह भूमिगत हो गईं और फिर वह नमक आन्दोलन के दौरान दिखाई दीं, और फिर भूमिगत हो गईं।
उसके बाद असहयोग आन्दोलन के दौरान चंदा लेने के लिए निकलीं तो उन्हें हिरासत में लेने का प्रयास किया गया, परन्तु श्रमिक एक हो गए और उन्हें बचा ले गए। पर 1931 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और छ महीने की सजा सुनाई गयी और 1932 में उन्हें डेढ़ साल की सजा सुनाई गयी। इतना ही नहीं उनका घर भी सीलबंद कर गया गया।
फिर वर्ष 1933 में मिदनापुर के मजिस्ट्रेट की हत्या में उनके भी शामिल होने का शक होने पर चारुदेवी की सारी संपत्ति नीलाम कर दी गयी और आठ साल की लम्बी सजा सुनाई गयी। मगर कांग्रेस के नेताओं के आन्दोलन के कारण उन्हें वर्ष 1938 में रिहा कर दिया गया था।
और उनकी जो संपत्ति थी, वह भी उस समय सत्तर हजार थी। इस प्रकार उन्होंने अपना जीवन, धन सब कुछ देश के नाम कर दिया था। आर्थिक संकट भी उनके सामने आया ही होगा।
भगत सिंह की साथी सुशीला दीदी: इन्होनें अपनी शादी के लिए रखा गया दस तोला सोने का हार उठाकर काकोरी घटना के मुकदमे की पैरवी के लिए दे दिया था। इतना ही नहीं जेल में एक लम्बी अवधि की भूख हड़ताल करके अपने प्राणों का बलिदान देने वाले यतीन्द्र नाथ दास का शव कलकत्ते में जब उतरा तो सुशीला दीदी ने ही उनकी आरती उतारी थी। क्रांतिकारियों का केस लड़ने के लिए फंड की जरूरत पड़ी तो सुशीला दीदी महिला टोली के साथ कूद पड़ी और उन्होंने मेवाड़ पतन नाटक खेला और उसके बाद लोगों से पैसे एकत्र किये।
सुशीला दीदी ने सिख लड़के के भेष में बम भी बनाने सीखे। उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए थे। मगर चंद्रशेखर आज़ाद और फिर भगत सिंह के जाने के बाद वह जैसे टूट गई थीं, मगर फिर भी वह सामाजिक कार्यों में लगी रहीं। उन्होंने वर्ष 1933 में अपने साथी वकील श्याम मोहन से विवाह किया, जो खुद भी स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जुड़े हुए थे। उसके बाद हालांकि वह सामाजिक कार्यों में लगी रहीं, पर अंग्रेजों की नज़र में रहीं और दोनों पति पत्नी जेल भी गए।
यह अत्यंत दुखद है कि 1947 के उपरान्त इन जैसी स्त्रियों के विषय में न ही चर्चा हुई और हिन्दू स्त्रियों को पिछड़ा बताने और हिन्दू समाज को सबसे पिछड़ा बताने की इतनी जल्दी थी कि ऐसी सभी सशक्त स्त्रियों को दफन कर दिया गया।
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