फेमिनिज्म के नाम पर क्या क्या हो सकता है और किस सीमा तक हो सकता है, यह अब सोचने का समय आ गया है, क्योंकि फेमिनिजम के नाम पर अब बालकों के साथ वह गतिविधियाँ होने लगी हैं, जो उनके स्वाभाविक विकास के लिए बाधक हैं। और लड़कियों के प्रति वह एक गुस्से में भर जाता है।
हाल ही में अमेरिका में जब ब्लैकलाइवमैटर्स वाला आन्दोलन चल रहा था तो उसी बीच एक वीडियो सामने आया, जिसमें गोरे लोगों ने अपने अश्वेत पड़ोसियों से क्षमा माँगी थी, कि जो इतने वर्षों से उन लोगों ने उन पर अत्याचार किए थे। और इसी अवधारणा पर भारत में भी वामपंथी विचारक यह माँग करने लगे थे कि भारत में भी उच्च वर्ग को क्षमा मांगनी चाहिए। यह भारत पर प्रहार करने की एक नयी तकनीक है।
संवेदनशीलता का जो यह नाटक किया जाता है, वह दो विभिन्न वर्गों में कटुता उत्पन्न करता है। और जब फेमिनिज्म के नाम पर आज जितनी भी नाटकीय गतिविधियाँ हो रही हैं, वह महिलाओं के प्रति एक वितृष्णा उत्पन्न कर रही है। पहले ऑस्ट्रेलिया की घटना पर दृष्टि डालते हैं, और फिर हम फेमिनिज्म पर बात करते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में एक स्कूल में छोटे लड़कों को अपनी कक्षा की साथी छात्राओं से क्षमा माँगने के लिए कहा गया। यह क्षमा क्यों माँगी गयी? यह क्षमा इसलिए माँगी गयी क्योंकि उनसे कहा गया कि आप समूची पुरुष जाति की ओर से किए गए अत्याचारों के लिए लड़कियों और महिलाओं से क्षमा मांगे।
और ऐसा भी नहीं कि बच्चे बड़े थे, बच्चे थे 7, 8 या 9 वर्ष के। 7 वर्ष के बच्चे के अभिभावक ने कहा कि उनका बेटा बहुत भ्रमित था, कि उसे क्यों क्षमा माँगनी पड़ रही है। उसे केवल इतना कहा गया कि उन महिलाओं से क्षमा मांगे क्योंकि महिलाओं का बलात्कार किया गया और उनका यौन शोषण किया गया।
बच्चों ने कहा कि उन्हें खड़ा किया गया और क्षमा माँगने के लिए कहा गया। डेनियल शेफ़र्ड ने कहा “यह लड़कों को बताया ही नहीं गया कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं और आखिर में वह क्या कर रहे हैं?”
कुछ विद्यार्थियों का कहना था कि “लड़कों के साथ भी वही अत्याचार होते हैं, जैसे लड़कियों के साथ होते हैं।”
हालांकि वारनमबूल के दक्षिणी पश्चिमी विक्टोरियन शहर में ब्रौएर (Brauer College in the south-western Victorian town of Warrnambool) स्कूल का कहना है कि यह कदम मात्र जागरूकता उत्पन्न करने के लिए किया गया था।
अब फेमिनिस्ट का नया हथियार बच्चे बन गए हैं और बच्चों को आगे रखकर वह अपने हथियार चला रहे हैं। जिसका उदाहरण पर्यावरणविद ग्रेटा है।
ऐसा नहीं है कि यह सब घटनाएं भारत में नहीं हो रही हैं। भारत में भी अब बच्चों को इन फेमिनिस्ट द्वारा अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया जाने लगा है। पर फेमिनिज्म पर बात करने से पहले देखते हैं कि फेमिनिज्म आखिर है क्या?
जब भी आधुनिक सन्दर्भ में फेमिनिज्म की बात होती है तो यह केवल व्यक्तिगत स्वार्थ की लड़ाई है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के वर्चस्व की लड़ाई है। आधुनिक फेमिनिज्म जो कि कथित “शोषित औरत” के सिद्धांत पर ही टिका हुआ है, वह मात्र विध्वंस का ही विमर्श है। फेमिनिस्ट लेखिका और प्रोफ़ेसर लिंडा गॉर्डोन का कथन है कि “संयुक्त परिवार को नष्ट हो जाना चाहिए। और परिवारों का टूटना अब क्रांतिकारी प्रक्रिया है। किसी भी महिला को अपने बच्चों के कारण नौकरी के अवसर नहीं खोने चाहिए।” (“The nuclear family must be destroyed… whatever its ultimate meaning, the break-up of families now is an objectively revolutionary process… no woman should have to deny herself of any opportunities because of her special responsibility to her children..”)
एक अन्य फेमिनिस्ट लेखिका Vivian Gornick, विवियन गोर्निक का कथन है
गृहणी होना एक अवैध पेशा है। (“being a housewife is an illegitimate profession.”)
(The Feminist Lie Bob Lewis)
भारत में तो स्त्रीवाद जैसा कोई शब्द है ही नहीं, क्योंकि भारत में स्त्री हमेशा से ही मजबूत रही थी और हमारे यहाँ अर्द्धनारीश्वर का सिद्धांत है। अर्थात स्त्री और पुरुष एक हैं, तभी वेद से लेकर आज तक स्त्री अपनी बात में मुखर रही है और इस आधुनिक फेमिनिज्म के हर विमर्श को तोडती है। हमारे समाज में यदि कुछ पुरुषों ने अत्याचार किए भी तो वह सामूहिक न होकर एक व्यक्ति का अपराध था और उस दुष्ट पुरुष को दंड देने के लिए पुरुष ही आगे आए।
परन्तु जहां पर औरत की उत्पत्ति आदमी की पसली से हुई, जिसमें औरत को केवल मनोरंजन के लिए बनाया गया था, उसमें औरत के साथ उन्होंने अत्याचार किए, बहुत अत्याचार किए। इतना ही नहीं यह ईसाई लोग जब भारत आए तो स्त्रियों के प्रति संकुचित दृष्टिकोण लेकर आए, जिसने यहाँ की स्त्रियों की सोच को भी संकुचित करने का कुप्रयास किया।
ऑस्ट्रेलिया में जो हुआ है वह और कुछ नहीं बल्कि पुरुषों के प्रति वह घृणा है, जिसके आधार पर यह ईसाई फेमिनिज्म बना है। वह लोग समानता की लड़ाई लड़ रही हैं, जबकि भारतीय दर्शन समानांतर की बात करता है।
द फेडरलिस्ट के इस लेख में सुजेन वेंकर (Suzanne Venker) लिखती हैं कि यह माँग कि पुरुष और स्त्रियाँ समान हैं, औरतों के जीवन को कठिन बना रहा है क्योंकि यह दोनों मूल रूप से समान नहीं है और यदि एक समान बनाने की जिद्द ठानी जाती है तो औरतों को ही समस्या होगी।
ऐसे ही ई. बेलफोर्ट बैक्स अपनी पुस्तक ‘फ्रॉड ऑफ फेमिनिज्म’ में आधुनिक फेमिनिज्म को भ्रमित बताते हैं। वह कहते हैं कि आजकल फेमिनिस्ट को खुद नहीं पता है कि आपको क्या चाहिए, एक ओर वह पुरुषों के साथ हर चीज़ में बराबरी चाहती हैं तो वहीं दूसरी ओर वह सदियों से अपने साथ हुए अत्याचारों के आधार पर समाज से कई बातों में छूट चाहती हैं। और साथ ही वह कहते हैं कि आधुनिक फेमिनिज्म केवल पुरुषों से घृणा पर ही टिका है।
अब यह घृणा अपने सबसे निम्नतम स्तर तक पहुँच गयी है, जहाँ पर छोटे छोटे बच्चों के मन में एक दूसरे के प्रति केवल और केवल घृणा भरी जा रही है। जहां यह आवश्यक था कि बच्चों में नैतिक शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाए, उनमें मूल्य प्रदान किए जाएं, वहीं विद्यालय ऐसी गतिविधियाँ करवा रहे हैं।
हम यह न सोचें कि भारत में ऐसा नहीं होगा, यदि इस प्रकार के फेमिनिज्म का विरोध नहीं किया गया तो शीघ्र ही यह पागलपन भारत में आएगा। क्योंकि पूरी दुनिया को अपना शिकार बनाने के बाद इनकी तोप भारत की ओर है और अपना परिवार और अपने बच्चे बचाने का उत्तरदायित्व हम सभी पर सामूहिक है।
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