हिन्दुओं में कथित सुधारवादी होने का तमगा पाने के लिए ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो हर बात के लिए हिन्दुओं के “सामान्य वर्ग” को कोसते हुए दिखलाई देते हैं। जिनके लिए यदि अभी समाज में जो विसंगतियाँ हैं, वह अभी भी उस वर्ग के कारण है जो उनके अनुसार कथित रूप से जबरन वर्चस्व वाला रहा है और यह विडंबना है कि वही वर्ग मिशनरीज के निशाने पर भी सबसे अधिक रहा था और अभी भी है।
यह “सुधारवादी” वर्ग इस हद तक इस्लामी हिंसा के पक्ष में है कि वह उस हिंसा का उल्लेख ही नहीं करते हैं जो जनजातीय समाज पर कट्टर जिहादी तत्व करते हैं, यदि उन्हें जबरन या लोक लाज के भय से उस हिंसा का खंडन करना भी पड़ता है तो वह घूम फिर कर ब्राह्मणवाद, वंचित वर्ग आदि आदि की बातें करने लगता है। जैसे लव जिहाद पर जब फेमिनिस्ट वर्ग से प्रश्न पूछा जाता है तो वह बहुत आराम से लव जिहाद के मामले को पितृसत्ता या पुरुष के वर्चस्व तक समेटकर पुन: उन्हीं हिन्दू लड़कियों को हिन्दू पुरुषों के विरुद्ध भड़काने लगती हैं, जो जिहादी तत्वों का शिकार होती हैं।
ऐसे ही वह कथित सुधारवादी लोग जो यदि जिहादी हिंसा के शिकार जनजातीय हिन्दुओं के विषय में बात करते हैं तो घूमफिर कर यह चर्चा और विमर्श या तो ब्राह्मणवाद तक सिमट जाता है या फिर वंचित, शोषित एवं उत्पीडित या फिर जन्मना श्रेष्ठता, कर्मणा श्रेष्ठता या फिर ब्राह्मणों ने इतने वर्षों तक ज्ञान पर एकाधिकार करके रखा, वैश्यों ने व्यापार नहीं करने दिया, क्षत्रियों ने शोषण किया जैसे विमर्शों में आम लोगों को फंसाते हैं, परन्तु ऐसे कथित सुधारकों की वाल पर कभी भी उन जनजातीय युवकों की पीड़ा नहीं दिखती है जो जिहादी हिंसा का शिकार होते हैं।
ऐसे कथित सुधारकों की वाल पर उन जनजातीय लड़कियों की पीड़ा नहीं दिखती है जो जिहादी लव जिहाद का शिकार होती हैं, बल्कि उनका हर उद्देश्य हिन्दुओं के सामान्य वर्ग पर होने के साथ साथ किसी प्रकार स्वयं को कथित पिछड़ों का मसीहा घोषित करने का एवं स्व-घोषित उपाधियाँ धारण करने तक ही सीमित रहता है।
आइये कुछ ऐसे ही मामलों को आज देखते हैं।
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के रघुनाथगंज में भरत टुडू (53) नामक जनजातीय पुरुष का शव राज्य के राज्यमार्ग पर एक ओर पड़ा मिला था। हिन्दुस्तान टाइम्स के बांग्ला संस्करण के अनुसार भरत की हत्या के आरोप में अभी दो लोगों को हिरासत में लिया गया है। हालांकि उनकी अभी तक पहचान नहीं बताई गयी है।
रिपोर्ट के अनुसार कथित रूप से चोरों का एक समूह शुक्रवार रात में जरूर गाँव में आबिदा बीबी के घर में घुसा था। जब उसने देखा और शोर मचाया तो स्थानीय लोगों ने एक “चोर” को पकड़ा और उसे पूरी रात निर्दयता से मारा।
पुलिस का कहना है कि, जिस व्यक्ति की चोरी के संदेह में हत्या कर दी गयी थी, वह भरत टुडू ही था, जो मुर्शिदाबाद जिले के नाबाग्राम पुलिस स्टेशन में जलुखन गाँव का निवासी था। हालांकि पुलिस ने अभी तक यह पुष्टि नहीं की है कि चोरी के आरोप सही हैं या नहीं!
परन्तु हिन्दू पर्वों में मीनमेख निकालने वाले तमाम राष्ट्रवादी सुधारवादी लोग इस जघन्य घटना पर मौन साधे हैं क्योंकि उन्हें यह प्रमाणित करना है कि धार्मिक हिन्दू धर्म कितना हिंसक था, वह तो बौद्ध धर्म आया तो वह बदला, आदि आदि कुविमर्श की धारा चलाने का वह लोग प्रयास करते हैं!
ऐसी ही एक और घटना सितम्बर में हुई थी। उसमें भी एक जनजातीय व्यक्ति था, जिसकी हत्या या लिंचिंग का कवरेज किसी भी अंग्रेजी मीडिया ने तो किया ही नहीं, बल्कि उस घटना पर भी उन तमाम विमर्शकारों की चुप्पी ही रही जो हिन्दू धर्म को हर स्तर पर “सुधारना” चाहते हैं!
झारखंड के संजय टुडू (27) को 23 सितंबर को बेंगलुरु, कर्नाटक में महानगर के उत्तर-पूर्वी हिस्से में दरगाह मोहल्ला, दूरवानी नगर के निवासियों द्वारा बेरहमी से पीटा गया था। संजय को बाद में केआर पुरम पुलिस ने मृत पाया। यह गरीब प्रवासी मजदूर राजमिस्त्री के रूप में काम कर रहा था, और यह कहा गया कि उस पर ‘बच्चा चोर’ होने के संदेह में हमला किया गया था, यह एक संदिग्ध आरोप है जो आमतौर पर भीड़ द्वारा हत्या के कई मामलों में लगाया जाता है।
News9Live.com ने बताया कि संजय टुडू की हत्या के लिए 7 अक्टूबर को 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उन्होंने गिरफ्तार लोगों के नाम नहीं बताए। डेक्कन हेराल्ड ने बताया कि सैयद खाजा, फैयाज पाशा और पार्थिबन को गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि अन्य फरार हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता परमीश वी ने आरोप लगाया कि संजय टुडू की मौत पुलिस हिरासत में हुई, लेकिन पुलिस ने इससे इंकार किया। पुलिस ने कहा कि संजय को पहली बार 23 सितंबर की रात को दरगाह मोहल्ला निवासियों द्वारा पिटाई के बाद पुलिस के वाहन में राममूर्ति नगर पुलिस स्टेशन ले जाया गया था, जिन्होंने दावा किया था कि उन्होंने उसे नशे की हालत में “संदिग्ध रूप से” घूमते हुए पाया था। हालांकि, यह हैरानी भरी बात थी कि पुलिस संजय टुडू को अस्पताल नहीं ले गई या उनके साथ मारपीट करने वालों के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की, और यह दावा किया कि संजय ने ऐसे किसी भी आरोप से इंकार किया था।
अगले दिन, राममूर्ति नगर से सटे केआर पुरम थाना क्षेत्र में आईटीआई कॉलेज के पास संजय मृत पाया गया। चूंकि राममूर्ति नगर पुलिस द्वारा पहले शिकायत दर्ज नहीं की गई थी, इसलिए केआर पुरम पुलिस संजय की पहचान करने में विफल रही। डीसीपी गिरीश एस ने दावा किया कि शुरू में इसे केवल एक अप्राकृतिक मौत माना गया था क्योंकि शरीर पर कोई बाहरी चोट नहीं थी। पुलिस अंतत: 30 सितम्बर को उसकी पहचान करने में सफल रही जब पुलिस ने झारखण्ड में पोरैयाहत में संजय की पत्नी रिमु मुनर से बात की। पुलिस ने 3 अक्टूबर को ईस्ट प्वाइंट कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज में पोस्ट-मॉर्टम कराया, जब रिमू ने कहा कि उसके पास बंगलुरु आने के पैसे नहीं हैं।
6 अक्टूबर को आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया है कि मौत कई चोटों के कारण हुई है! इसके बाद ही अप्राकृतिक मौत के मामले को हत्या की जांच में बदला गया। संजय पर हमला क्यों किया गया, इसे लेकर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चुप्पी साधे हुए हैं और बच्चा चोरी के आरोप ‘मीडिया सूत्रों’ पर आधारित अफवाह मात्र लगते हैं।
जहाँ अंग्रेजी मीडिया एवं कथित “सुधारवादी हिन्दू राष्ट्रवादी विचारक” भरत टुडू और संजय टुडू की भीड़ द्वारा पीट-पीटकर की गई हत्याओं पर मौन साधे हैं, विमर्श नहीं करते हैं तो ऐसा तो हो नहीं सकता कि उनकी दृष्टि गोवा में एक और एसटी व्यक्ति, धेना टुडू की हत्या तक गयी होगी। अगस्त, 2022 में एक बहस के बाद पश्चिम बंगाल के मूल निवासी सफिक सेख (24) ने पेरनेम में दिहाड़ी मजदूर ढेना की हत्या कर दी थी।
जनजातीय युवतियों के लव जिहादियों के जाल में फंसकर की जाने वाली हत्याओं पर भी यह लोग मौन रहते हैं
ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी मीडिया या कथित हिन्दू धर्म सुधारक इन जनजातीय युवकों की हत्या पर ही मौन रहते हैं, वह उन तमाम जनजातीय युवतियों और लड़कियों की हत्याओं पर भी मौन साधे रहते हैं जो इन जिहादी तत्वों का शिकार होती हैं। जिन्हें या तो धर्म बदलकर फंसा लिया जाता है और बाद में या तो हत्या कर दी जाती है या फिर उनका शोषण किया जाता है।
जरा कल्पना करें कि यदि ऐसी किसी भी घटना में कथित रूप से “उच्च वर्ग” किसी न किसी कारण से सम्मिलित होता तो क्या होता? या फिर कोई मुस्लिम ऐसी किसी घटना का शिकार होता? न केवल मुख्य धारा का मीडिया बल्कि कथित हिन्दू धर्म सुधारक भी अपना चेहरा चमकाने के लिए और यह कहने के लिए कि हिन्दू धर्म ऐसा नहीं सिखाता है, हिन्दू धर्म कहीं न कहीं कट्टर इस्लामिक होता जा रहा है, असहिष्णु होता जा रहा है, तमाम तरह के तर्क देते और ऐसा परिदृश्य रच देते जिसमें हिन्दू धर्म ही कठघरे में आ जाता!
और अधिक दूर जाने की आवश्यकता है ही नहीं, तबरेज अंसारी और मोहम्मद अख़लाक़ दोनों के ही मामले हमारे सामने हैं ही। तबरेज अंसारी को तो चोरी करते हुए पकड़ा ही गया था और गाँव वालों ने उसे जिंदा ही पुलिस के हवाले किया था। उसका इलाज ही हो रहा था कि वह दिल का दौरा पड़ने से मर गया था। मगर उसकी कवरेज किस हद तक की गयी थी यह हम सभी जानते हैं।
जैसे ही ऐसी कोई घटना होती है, उस समय स्वयं को अतिरिक्त उदार दिखाने की चाह में एक बड़ा कथित सुधारवादी वर्ग है वह ऐसी सफाई देते हुए आगे आ जाता है कि जैसे हिन्दू धर्म वास्तव में असहिष्णु है और वह अत्याचार करता है। वह धार्मिक हिन्दुओं को अपराधबोध एवं आत्महीनता से भरता है!
ऐसे में वह उन हिन्दुओं के विषय में नहीं सोचता है जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया निशाना बना रहा होता है। तबरेज अंसारी को पीटने वाले वह गरीब हिन्दू थे, जो संभवतया ओबीसी या एससी या एसटी वर्ग के होंगे और जिनके लिए मामूली चीज का खोना भी बहुत बड़ा नुकसान था। परन्तु एक प्रकार का अपराधबोध उन कथित “हिन्दू धर्म सुधारकों” द्वारा आम हिन्दुओं में भर दिया जाता है, जो कहने के लिए हिन्दू हैं, मगर हिन्दुओं को “विश्व” के रिलिजन और मजहब के प्रति अनुकूल करते रहते हैं एवं हिन्दू धर्म के धार्मिक स्वरुप को अपमानित करते हैं और वही एजेंडा चलाते हैं जो अभी तक वामपंथी चलाते हुए आए थे!
मोहम्मद अख़लाक़ वाली घटना भी कौन भूल सकता है!
मोहम्मद अखलाक को सितंबर, 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी के पास ग्रामीणों द्वारा एक गाय के बछड़े को मारने और खाने के कारण पीट-पीटकर मार डाला गया था, जिसे उस गाँव के कई लोग प्यार करते थे। लेकिन ग्रामीणों के गुस्से का कारण उन तमाम मीडिया रिपोर्ट्स के तले दब गया था, जिनमें यह कहा गया कि अख़लाक़ पर केवल इसलिए हमला किया गया क्योंकि वह एक मुसलमान था।
अख़लाक़ का बेटा वायु सेना में कार्यरत है, इस विषय में ऐसी ऐसी कहानियाँ बनाई गईं कि कहा नहीं जा सकता और सबसे बढ़कर इस घटना के लिए पूरे हिंदू समाज को शर्मसार किया गया। इस घटना में आरएसएस-बीजेपी को जोड़ने का प्रयास किया गया। तत्कालीन सपा सरकार पर कोई प्रश्न नहीं पूछे गए, यहां तक कि तब भी जब एक आरोपी हिंदू युवक रविन सिसोदिया (21) की एक साल बाद पुलिस हिरासत में संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी।
अंसारी और अख़लाक़ दोनों की मृत्यु ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में हल्ला मचाया एवं ‘मोदी के तहत हिंदुत्व फासीवाद’ जैसे विमर्श बनाए गए।
भरत टुडू और संजय टुडू धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य और उसके अंग्रेजीकृत अभिजात वर्ग की नजर में एक निम्न भगवान की संतान हैं। अगर उन्हें ‘उच्च जाति’ के हिंदुओं की भीड़ ने पीटा होता, तो उनके मामलों को बड़े पैमाने पर उठाया जाता। भरत टुडू ने भी ममता बनर्जी के शासन वाले राज्य में मरने का ‘अपराध’ किया है, जो मात्र भद्र बंगाल लोक की प्रिय नेता ही नहीं हैं, बल्कि मीडिया के अनुसार आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार भी हैं। यदि संजय टुडू के हत्यारे अधिकांश मुस्लिम न होते तो हो सकता है कि उनकी हत्या के मामले को भाजपा को निशाना बनाने के लिए प्रयोग कर लिया जाता!
भरत टुडू और संजय टुडू इस बात के उदाहरण हैं कि औपनिवेशित मानसिकता वाले अंग्रेजी मीडिया एवं औपनिवेशित मानसिकता वाले उन कथित “धर्म सुधारकों” की दृष्टि में हिन्दू एवं धार्मिक हिन्दू का जीवन कितना निम्न है, जो हिन्दू होने के अपराधबोध से दबे हुए हैं। आम धर्मिकों के प्रति इस सीमा तक संवेदनहीनता की स्थिति है कि कथित रूप से बहुसंख्यक समुदाय के ऐसे युवकों की हत्याओं की तस्वीरें भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं और जिन मीडिया आउटलेट ने इन समाचारों को प्रकाशित किया है, उनमें भी मोब लिंचिंग की वही तस्वीरें हैं, जो स्टॉक में होती हैं!
यह इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का दुर्भाग्य है कि उसके साथ जब तक कोई कथित उच्च वर्ग का व्यक्ति अन्याय या हिंसा नहीं करेगा, तब तक उसकी मृत्यु विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाएगी फिर चाहे वह कितनी भी नृशंस हत्या क्यों न हो और यदि जिहादी तत्वों का वह शिकार हुआ है तब तो न ही अंग्रेजी एवं लिबरल मीडिया आवाज उठाएगा और न ही कथित रूप से राष्ट्रवादी “धर्म सुधारक”।