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Tuesday, March 28, 2023

वामपंथी “द हिन्दू” के झूठ पर लगाई भारत में रूसी दूतावास ने लताड़, द हिन्दू ने डिलीट किया ट्वीट

भारत में मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो अपने दुराग्रह के चलते भारत को तो नीचा दिखा ही रहा था, परन्तु अब लेफ्ट लिबरल मीडिया ऐसे काम करने लगा है, जिसके कारण उसे दूसरे देशों से लताड़ का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में हमने देखा था कि कैसे एजेंडा चलाने वाली कट्टर इस्लामी ‘पत्रकार’ राना अयूब को यमन और सऊदी अरब के मामले में हस्तक्षेप करने पर मुस्लिम जगत से ही आलोचना का सामना करना पड़ा था।

ऐसे ही आज एजेंडा पत्रकारिता करने वाले “द हिन्दू” के साथ हुआ। इन दिनों रूस और युक्रेन में इन दिनों विवाद चल रहा है एवं यह एक अंतर्राष्ट्रीय मामला है, जिसमें सीमा का विवाद सम्मिलित है। हाल ही में भारत ने भी इस विषय में अपना स्टैंड लेते हुए इस विषय से दूरी बनाई है। मीडिया के अनुसार भारत ने यूक्रेन सीमा पर जो स्थितियां उपजी हैं, उनके सम्बन्ध में चर्चा के लिए होने वाली बैठक से पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रक्रियात्मक मतदान में भाग नहीं लिया है। भारत का कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय शांति इस समय की आवश्यकता है और यह सभी के लिए आवश्यक है कि तनाव कम हो।

परन्तु इस विषय में भारत की किरकिरी कराते हुए “द हिन्दू” ने आज एक ट्वीट किया और पूछा कि “युक्रेन के किस हिस्से को पहले ही रूस द्वारा वर्ष 2014 में किए गए हमले में लिया जा चुका है।

और फिर चार विकल्प दिए थे।

इस पर भारत में रूसी दूतावास ने उसी ट्वीट को रीट्वीट कर प्रश्न किया कि “डियर द हिन्दू, हमें हमारे पूर्व के आक्रमणों के बारे में बताइए, हमने अभी तक ऐसा नहीं सुना था,”

देखते ही देखते यह ट्वीट वायरल हो गया और नेट पर लोगों ने द हिन्दू की प्रतिबद्धता को लेकर प्रश्न उठाने आरम्भ कर दिए।

हालांकि इतने विरोध के बाद वह ट्वीट डिलीट कर दिया गया, परन्तु लोगों ने तब तक स्क्रीन शॉट ले लिए थे।

दरअसल क्रीमिया को लेकर यह प्रश्न था, जिसे कहा जाता है कि जनमत संग्रह के बाद रूस में सम्मिलित कर लिया गया था। जिसे कुछ यूजर ने बताया भी

और कुछ विशेषज्ञों ने इसका उल्लेख किया कि रूस ने उसे जबरन हासिल किया था

फिर भी, यह सत्य है कि क्रीमिया का रूस में विलय एक जनमत संग्रह के बाद ही हुआ था। कुछ यूजर का कहना था कि चीन कहीं न कहीं भारत और रूस की दोस्ती से असहज है, इसलिए भारत में चीन का माउथपीस कहे जाने वाले “द हिन्दू” ने यह जानबूझ कर किया है।

समय समय पर द हिन्दू की एजेंडा परक पत्रकारिता पकड़ी गयी है

ऐसा नहीं है कि “द हिन्दू” ने गलत तथ्यों को पहली बार परोसा है, बार बार ऐसा हुआ है कि इस समाचारपत्र पर प्रश्न उठे हैं। वर्ष 2020 में लीगल राइट्स ऑब्जर्वेटरी ने गृह मंत्रालय से यह अनुरोध किया था कि जब लद्दाख युद्ध का संवेदनशील समय है, उस समय “द हिन्दू” चीन के राष्ट्र दिवस पर चीन की सरकार की उपलब्धियों को कैसे प्रदर्शित कर सकता है?

इसी के साथ जब 13 ईसाई संस्थानों का एफसीआरए लाइसेंस निरस्त हुआ था, तो इसी समाचारपत्र ने भारत सरकार पर यह आरोप लगाया था कि यह सरकार उन्हें जानते बूझते निशाना बना रही है।

भारत में ईसाई संस्थान सेवा के नाम पर किस हद तक केवल हिन्दुओं के धर्मांतरण के लिए लगे हुए हैं, यह भारत के लोग जानते हैं और समझते हैं। और भारत सरकार वर्ष 2014 से कई उन गैर सरकारी संगठनों के लाइसेंस निरस्त कर चुकी है, जो प्रक्रिया पूरी करने में विफल हो रहे हैं। फिर भी यह प्रश्न तो बार बार पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या है कि अंधविश्वास फैलाने वाले और हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन करने वाले संगठनों का लाइसेंस क्यों नहीं निरस्त होना चाहिए?

पाठकों को गलवान की मुठभेड़ याद होगी। उस समय लोग शोक में डूबे थे परन्तु इसी द हिन्दू के सामाजिक मामलों के सम्पादक ने गलवान घाटी में हुए हमले को भी चुनावों से जोड़ दिया था। जी संपत ने ट्वीट किया था कि “जो भी सैनिक मारे गए हैं, वह सभी बिहार रेजिमेंट के हैं। और अभी बिहार के चुनाव भी होने वाले हैं।”

परन्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह हरकत शर्मिंदा करने वाली है!

“द हिन्दू” की पत्रकारिता में एजेंडा स्पष्ट दिखाई देता है, और बार बार यह प्रमाणित हुआ है, परन्तु फिर भी यह सब भारत सरकार के खिलाफ था और देश की सीमाओं के भीतर था। हालांकि यह भी वामपंथियों द्वारा फैलाया गया झूठ है कि “द हिन्दू” की अंग्रेजी और सम्पादकीय सहित मुद्दों की समझ प्रतियोगी परीक्षा में बैठने वाले छात्रों के लिए बहुत ही अच्छी होती है एवं लगभग हर छात्र को इसे ही पढने की सलाह दी जाती है।

आज यह प्रमाणित हुआ कि इस समाचार पत्र में मात्र देश के विरुद्ध ही एजेंडा परक विश्लेषण नहीं जाता है, बल्कि साथ ही यह अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भी बोलते समय तथ्यों का संज्ञान नहीं लेते हैं।

संभवतया, वामपंथ का पहला चरण तथ्यों को मानने से इंकार करना एवं अपने अनुसार तोडना मरोड़ना ही है! फिर भी ऐसे हर कदम से पत्रकारिता पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दाग लगता है!

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