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Friday, March 29, 2024

‘द ग्रेट इंडियन किचन’ – एक और हिन्दू विरोधी सूक्ष्म प्रपोगैंडा से भरी फिल्म

इन दिनों नैरेटिव युद्ध चल रहा है। यह नैरेटिव युद्ध चलकर अब हमारी रसोई तक पहुँच गया है। और इस बार कुछ फ़िल्में इतनी सूक्ष्मता से परम्परा और धार्मिक प्रथाओं पर आक्रमण करती हैं, कि उनका सहज काट संभव नहीं है।  कहा जाता है कि संस्कृति पर आक्रमण करने के लिए कला सबसे बड़ा माध्यम है।  और कलाओं के माध्यम से समय के साथ आई कुरीतियों को समाज की स्थापित मान्यताएं प्रमाणित किया जा सकता है। जब यह प्रमाणित हो जाता है तो उसके बाद जड़ पर प्रहार किया जाता है।  और यह प्रहार भावनाओं की चाशनी में डूबा हुआ होता है।

ऐसा ही भावनाओं की चाशनी में डूबी हुई फिल्म थी ‘पगलैट‘, जिसमें अत्यंत महीन तरीके से स्त्री वेदना और अस्मिता की आड़ में हिन्दू रीतियों तथा त्योहारों पर आक्रमण किया गया था तो वहीं एक और फिल्म है ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ अमेज़न प्राइम पर, बस अंतर यह है कि यह फिल्म मलयालम फिल्म है। भाषा कोई भी हो, फिल्म के अंत में परिवार तोड़ने वाला फेमिनिज्म ही स्थापित किया गया है।  फिल्म के आरम्भ में ही ज्ञात हो जाता है कि यह फिल्म रसोई के आसपास ही घूमने वाली है।  पहले दृश्य में नायिका को नृत्य करते हुए एवं रसोई के दृश्यों को समानान्तर दिखाया गया है।  फिर विवाह का दृश्य है एवं उसके बाद दैनिक जीवन आरम्भ होता है।

दैनिक जीवन में उसका दिन आरम्भ होता है, रसोई से, रसोई में वह सुबह से लेकर रात तक लगी रहती है।  और उसकी सास भी सुबह से शाम तक रसोई के कई काम करती हैं।  दिन के भोजन से लेकर आचार आदि बनाने के कई कार्य है। यहाँ पर जिस सूक्ष्मता से स्त्री को केवल रसोई में ही सीमित करने के षड्यंत्र को दिखाया है, वह स्वयं में स्वागतयोग्य है। परन्तु रसोई की ऊब के बहाने भगवान अयप्पा पर भी प्रहार कर दिया है, जिनके पक्ष में स्त्रियों के एक बहुत बड़े वर्ग ने सरकार और न्यायालय का विरोध किया था।

निर्देशक जो बेबी ने स्त्री के उस मनोभाव को अत्यंत कुशलता से पकड़ा है जिसका सामना वह रसोई में रोज करती है। और साथ ही यह भी दिखाया है कि उसके ससुर कुछ कार्य नहीं करते हैं, दिन भर आराम करते हैं। और उसका पति भी सुबह से उठकर योग आदि करता है और वह रसोई में ही फंसी रहती है। फिल्म में दिखाया है कि उसके पति और ससुर जूठन प्लेट में ही छोड़ देते हैं और फिर वह उनकी जूठन उठाती है और सफाई करती है। यह समस्या सफाई के संस्कारों से जुड़ी है, जो किसी भी परिवार में हो सकती है और उसे सहजता से दूर भी किया जा सकता है।

नायिका निमिषा को दिन ब दिन अपनी इस उबाऊ दिनचर्या से विरक्ति होती जाती है और जब वह अपने पति से अपने खाने के संस्कार सुधारने के लिए कहती है तो वह समझता नहीं। इतना ही नहीं वह अपने पति से फोरप्ले के लिए कहती है क्योंकि उसके लिए जल्दी जल्दी के यौन सम्बन्ध पीड़ादायक हैं। यह बहुत ही आम समस्या है और इसके कारण किसी भी स्त्री के मन में पति ही नहीं बल्कि पूरे परिवार के प्रति वितृष्णा उत्पन्न हो जाती है।

यहाँ तक फिल्म एक आम मध्यवर्गीय स्त्री और रसोई के कार्य के महिमामंडन तक सीमित है, तो स्त्री स्वयं को कहीं न कहीं जुड़ा हुआ पाती है। परन्तु स्त्रियों की इस ऊब और पीड़ा के बहाने से एक दृश्य में अयप्पा स्वामी जी की पूजा दिखाई गयी है। दृश्य है कि निमिषा कुछ निर्णय लेकर रसोई में खड़ी है और बाहर अहाते और आंगन में उसके पति और ससुर सहित कई अन्य व्यक्ति भगवान अयप्पा की पूजा कर रहे हैं। उसके पति और ससुर दोनों जब रसोई में अन्दर आते हैं तो वह पूजा के दौरान ही उन पर या तो साम्भर या कुछ गर्म फेंकती है और घर छोड़कर चली जाती है, डांस टीचर बनने के लिए।

और फिर वह तलाक ले लेती है और उसके पति का दूसरा विवाह हो जाता है और दूसरी पत्नी के साथ भी विवाह के पहले दिन उसी दृश्य को दिखाया गया है, जैसा निमिषा के साथ हुआ था।

यह फिल्म अत्यंत हौले से एक ऐसा नैरेटिव स्थापित कर देती है कि भगवान अयप्पा के भक्त अपनी बहू या पत्नी पर अत्याचार करने वाले होते हैं। इस पूरी फिल्म में भगवान अयप्पा की पूजा के इस दृश्य को फिल्माने की आवश्यकता नहीं थी। यह क्यों फिल्माया गया, यह कल्पना से भी परे है।

अभी तक सबरीमाला के मामले पर जनाक्रोश थमा नहीं है। क्या यह उस जनाक्रोश को दबाने का प्रयास है या फिर स्त्रियों ने जिस प्रकार से सबरीमाला मामले में सरकारी और न्यायपालिका द्वारा किये जाने वाले हस्तक्षेप का विरोध किया था, उन स्त्रियों को भगवान अयप्पा के विरुद्ध करने का यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है। इसके साथ ही रसोई को पसंद करने वाली स्त्रियों को दबा कुचला बता दिया गया है।

यह सत्य है कि आज भी कुछ परिवारों में स्त्रियों को मात्र रसोई तक सीमित किया जाता है, परन्तु उनकी यह ऊब दिखाने के नाम पर भगवान अयप्पा की पूजा का गलत चित्रण करना एवं यह प्रदर्शित करना जैसे हिन्दू देवी देवताओं का पूजन करने वाले स्त्रियों के प्रति असंवेदनशील होते हैं, स्वीकार नहीं है।

इसने सूक्ष्म स्तर पर षड्यंत्र को समझने की आवश्यकता है और समझकर इसका विरोध करने की। यह फिल्म बेहद शातिरता से मानस में हिन्दुओं के प्रति घृणा का विस्तार करती है और उन्हें पिछड़ा एवं असंवेदनशील स्थापित करती है।


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