कल के हमने अपने लेख में देखा था कि कैसे द्रौपदी को महाभारत धारावाहिक में नीचा दिखाकर विमर्श की वह धारा आरम्भ कर दी गयी, जिसमे नायक को खलनायक बनाने का खेल किया गया एवं प्रतिनायक को नायक। खलनायकों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न की गयी एवं नायकों को संकुचित सोच का बता दिया गया। सबसे बड़ा शिकार इसका कोई हुआ था तो वह थे युधिष्ठिर!

ज्येष्ठ पांडु पुत्र को निर्बल एवं द्युत के प्रति आग्रही क्यों दिखाया गया? यह एक गंभीर प्रश्न हो सकता है, क्योंकि युधिष्ठिर धर्म के वाहक थे, तो क्या वही वामपंथी एजेंडा डाला गया कि धर्म के जिन्हें प्रतीक बताया गया हो, उन्हीं पर प्रहार कर दिया जाए।
द्युत क्रीडा में जो हुआ उसकी ग्लानि में युधिष्ठिर भी रहे, परन्तु हमने पिछले लेख में देखा था कि कैसे दुर्योधन को नायक बनाने के लिए एवं दुर्योधन के प्रति संवेदना उत्पन्न करने के लिए द्रौपदी वाला दृश्य डाला। अब देखते हैं कि कैसे युधिष्ठिर को कायर दिखाने के लिए वह राजसूय यज्ञ के उपरांत का महत्वपूर्ण दृश्य गायब ही कर गए, जो युधिष्ठिर के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता को दिखाते है एवं यह स्थापित करते है कि क्यों उन्हें धर्मराज कहा जाता है और क्यों वह न्याय के प्रतीक माने जाते हैं। और क्यों वह एक दो नहीं बल्कि पूरे तेरह वर्षों तक शांत रहे, मौन रहे, जो हो रहा था उसी प्रवाह में बहते रहे!
राजसूय यज्ञ में शिशुपाल के वध के उपरान्त युधिष्ठिर चिंतित हैं। जब महर्षि वेदव्यास उनसे विदा लेने के लिए आते हैं, तो युधिष्ठिर उनसे प्रश्न करते हैं कि
“हे पितामह! भगवान नारदमुनि ने स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी के ऊपर होने वाले तीन उत्पात कहे हैं। अब चेदिराज शिशुपाल की मृत्यु में उत्पातों का भय दूर हुआ या नहीं?”
उसके उपरान्त महर्षि वेदव्यास ने जो कहा, वह सहज किसी को पता नहीं है। वेदव्यास जी कहते हैं कि
“हे प्रजापालक युधिष्ठिर! तेरह वर्षों की अवधि तक उत्पातों का बड़ा भयानक फल होना रहेगा और उसका परिणाम सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश में होगा! तात्पर्य हे भरत श्रेष्ठ! तेरे ही कारण और दुर्योधन के अपराध हेतु तथा भीम एवं अर्जुन के बल से सम्पूर्ण क्षत्रिय युद्ध भूमि ए इकट्ठे होकर विनष्ट हो जाएंगे। हे नृपश्रेष्ठ! प्रभात काल में स्वप्न में तुम देखोगे कि वृषभध्वज, नीलकंठ, भव, स्थाणु, कपाली, त्रिपुरातक, उग्र, रूद्र। पशुपति, महादेव, उमापति, हर, शर्व, वरिश, शूल पिनाकी, कृत्तिवास कैलाश शिखर समान श्वेत शिव वृषभारूढ़ होकर पितृराजाश्रित दक्षिण दिशा में निरीक्षण कर रहा है।
हे प्रजापालक! यह स्वप्न तू देखेगा, परन्तु उस कारण तू चिंता न करे, क्योंकि काल का उल्लंघन करना अत्यंत कठिन है! तेरा कल्याण हो!”
यह सुनकर युधिष्ठिर दुखी हो जाते हैं। वह व्यक्ति जो धर्म का प्रतीक है, वह व्यक्ति जो सदैव दूसरों के हित के लिए खड़ा रहा, वह व्यक्ति जो सपने में भी किसी का बुरा नहीं सोच सकता था, उनके सम्मुख यह कहा गया कि काल में यह लिखा है, तो उनके चित्त की स्थिति कैसी रही होगी? यह अजीब स्थिति थी। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि यदि मेरे कारण क्षत्रियों का विनाश होगा तो जीवित रहने में कौन सा लाभ है? जब आने वाला समय मुझे क्षत्रियों के विनाश का कारण ठहराएगा!”

उसके उपरान्त जब भाई उनसे बात करते हैं तो युधिष्ठिर कहते हैं कि “आप सबका कल्याण होवे। अब मेरी प्रतिज्ञा सुन लो! तेरह वर्ष जीवित रहकर भी मुझे क्या करना है? न आज से मैं अपने भाइयों के साथ तथा अन्य भ्राताओं के साथ कठोर भाषण नहीं करूंगा। ज्ञानियों की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करता हुआ जो कुछ करना होगा उन्हें बताकर करता रहूँगा। इस प्रकार मैं पुत्रों एवं अन्य सम्बन्धियों से व्यवहार करूंगा, इसमें मतभेद ही नहीं होगा, और मतभेद के अभाव के कारण कलह भी कभी नहीं होगा, क्योंकि जगत में कलह का कारण ही मतभेद हैं। हे मनुष्यों में श्रेष्ठ पुरुषों! इस ढंग से मैं कलह में दूर रहकर जनों का प्रिय कार्य ही करना लगा तो लोगों में मेरी निंदा नहीं होगी!”


उसके बाद दुर्योधन की पीड़ा का वर्णन है, कि कैसे वह युधिष्ठिर के ऐश्वर्य को लेकर जला जा रहा है, कुंठित है और उसे हर मूल्य पर युधिष्ठिर का राज्य चाहिए, उसे हर मूल्य पर युधिष्ठिर को बर्बाद करना है, क्योंकि वह देख नहीं पा रहा है कि जिसे उसने मारने के इतने प्रयास किए, फिर भी वह समृद्ध हो गए। उसके बाद शकुनि उससे कहता है कि हम छल से ही पांडवों को परास्त करेंगे, इसलिए उन्हें द्युत क्रीडा के लिए आमंत्रित किया जाए!
जो महाभारत और जो द्युत क्रीडा दुर्योधन के लालच का परिणाम थी, उसे महाभारत धारावाहिक में बहुत ही चतुराई से द्रौपदी एवं युधिष्ठिर के कंधे पर डाल दिया। जो द्युत क्रीडा पूरी तरह से दुर्योधन के छल के कारण हुई थी, उसे बहुत ही सहज तरीके से यह कहते हुए स्थापित कर दिया कि युधिष्ठिर को जुआ खेलना पसंद था। युधिष्ठिर ने जो किया उसे लेकर महाभारत में भी धिक्कारा है, एवं आज तक हिन्दू समाज खुलकर इस कृत्य की निंदा करता है परन्तु इसका यह अर्थ तनिक भी नहीं है कि हम विमर्श ही ऐसा बना दें कि दुर्योधन निष्पाप एवं निष्कलंक था।

युधिष्ठिर को निर्बल दिखाकर एवं जुआरी दिखाकर सीधे प्रभु श्री कृष्ण पर चोट की गयी है, क्योंकि युधिष्ठिर का पक्ष ही कृष्ण का पक्ष था। यह जनता के मन में डालने का महाभारत के माध्यम से कुप्रयास किया गया कि प्रभु श्री कृष्ण तो जुआरियों के पक्ष में थे, और जो जुआरियों के पक्ष में हो वह कैसा “भगवान?” और फिर जो भगवान है ही नहीं, उसके विषय में कुछ भी लिख दिया जाए, क्या फर्क पड़ता है!
परन्तु युधिष्ठिर जुआरी नहीं थे! उनकी छवि यह जानबूझकर बनाई गयी, हाँ! उन्होंने वनवास के समय अवश्य द्युत विद्या का ज्ञान ग्रहण किया था, जिससे शकुनि जैसे लोग उन्हें छल से परास्त न कर सकें! हिन्दी साहित्य की हम बात यहाँ पर इसलिए नहीं कर सकते हैं क्योंकि साहित्य की पहुँच इस समय कम है, जबकि ऐसे धारावाहिक जो सन्देश देते हैं, वह त्वरित जनता के मस्तिष्क में चला जाता है!
इस महाभारत में दिखाया गया कि द्रौपदी ने अंधे का पुत्र अंधा कहा, तो लोगों ने द्रौपदी को ही महाभारत का दोषी मानते हुए कविताएँ लिख दीं!
इस महाभारत में अप्रत्यक्ष रूप से युधिष्ठिर को कायर दिखाया गया, जबकि वह तेरह वर्षों तक ऐसा कुछ न करने की प्रतिज्ञा ले चुके थे, जिससे आने वाले समय में होने वाले विनाश के लिए उन्हें न उत्तरदायी ठहराया जाए। और उन्हीं युधिष्ठिर को लोगों ने कायर, द्युत व्यसनी आदि आदि क्या नहीं कहा!
दरअसल यह हिन्दू धर्म के उस स्तम्भ पर प्रहार करने का कुत्सित प्रयास था, जो असुरों को दंड देने के लिए स्वयं अवतार लेते हैं, अर्थात विष्णु भगवान! विष्णु भगवान ने कृष्णावतार में कहा है कि जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब वह अवतार लेकर स्वयं आते हैं!”
परन्तु यहाँ पर ऐसे धारावाहिक एवं कथित वैकल्पिक लेखन में उस पक्ष को जो धर्म का है, जो न्याय का है, जो सत्य का है, जो त्याग का है एवं जो हिन्दू मूल्यों का है, उसे ही अधर्मी या ग्रे शेड में प्रस्तुत कर दिया गया एवं यह दिखाया गया कि प्रभु श्री कृष्ण जो धरती पर धर्म का साथ देने आए हैं, दरअसल वह तो एक जुआरी के पक्ष में खड़े हैं!
यह सत्य है कि युधिष्ठिर का वह कृत्य निंदनीय था, एवं जिसकी आलोचना बार बार की गयी, परन्तु परिस्थितजन्य किए गए किसी कृत्य एवं आदतन किए गए छली कृत्य में बहुत अंतर होता है, एवं दुर्भाग्य से ऐसे धारावाहिक एवं वामपंथी तथा बाद में कथित निष्पक्ष एवं राष्टवादी लेखकों ने भी उसी विचार पर चलना उचित समझा जो मानक वामपंथ ने नियत कर दिए थे!
यह दिमागी खेल था, जिसमें कर्ण जैसे प्रतिनायकों के प्रति संवेदना उत्पन्न की गयी, दुर्योधन जैसे खलनायकों को युधिष्ठिर के सम्मुख लाया गया एवं साथ ही कहीं न कहीं प्रभु श्री कृष्ण को भी पक्षपाती दिखाते हुए पूरी की पूरी उस अवधारणा पर चोट की, जो हिन्दुओं का सबसे बड़ा विश्वास है, अर्थात विष्णु जी के अवतार!
अब जब एजेंडा समझ में आता है, तो बार बार वह धारावाहिक देखने से प्रतीत होता है कि राही मासूम रजा, इसमें भी वापमंथी एजेंडा खेल गए हैं, और जिसका अंतिम उद्देश्य हिन्दू धर्म को विमर्श रहित बनाना ही है!