भारत में यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि सेक्युलरिज्म का सारा बोझ हिन्दुओं पर है। अन्य समुदाय अपने अपने मजहबी कट्टर विचारों के साथ भी सेक्युलर रहते हैं, अन्य समुदाय अपने समुदाय के लिए अपने मजहबी एवं रिलिजियस स्थलों का प्रयोग कर सकते हैं, अन्य समुदाय अपने लिए शादी/निकाह के नियम बना सकते हैं, अन्य लोग अपने रिलीजियस स्थलों पर हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए योजनाएं बना सकते हैं, परन्तु हिन्दू मंदिर या संस्थान यह नहीं कह सकते हैं कि वह अपने हिन्दुओं को विधर्मियों के जाल में न फंसने दें! वह कोई कदम न उठाएं!
हिन्दू ऐसा नहीं कर सकते! हिन्दू साधु संत यदि ऐसा कहते हैं कि हिन्दुओं को आत्मरक्षा का अधिकार होना चाहिए, तो वह विवादित हो जाता है, हिन्दुओं को अपने त्यौहार साथ मिलकर मनाने चाहिए, तो वह साम्प्रदायिक हो जाता है, हिन्दुओं को अपनी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, तो यह प्रेम विरोधी और स्त्री विरोधी हो जाता है। विमर्श के आधार पर हिन्दुओं को उस स्थान पर लाकर पटक दिया गया है, जहाँ पर कथित रूप से अंग्रेजी पढ़े समाज का एक ही कार्य है कि किसी भी प्रकार से हिन्दू धर्म को सुधारा जाए!
हिन्दू धर्म चूंकि बहुसंख्यकों का धर्म है, तो वह कथित रूप से राष्ट्रीयकृत धर्म है, जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, वैसे ही हिन्दू धर्म का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, और उससे वह सभी विमर्श छीन लिए गए हैं, जो उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर हो सकते हैं या होते हैं। विरोध का अधिकार यह कहते हुए छीन लिया है कि हिन्दू धर्म तो उदार है, अपनी आलोचना सहन कर सकता है!
इसी प्रकार हिन्दू मंदिरों पर बहुत लिखा जाता है, कि मंदिर आगे नहीं आते हैं, मंदिरों में पैसा चढ़ता है, फिर भी वह अपने लोगों के लिए कार्य नहीं करते हैं, अपने लोगों में सामुदायिक बोध जागृत नहीं करते आदि आदि! वामपंथी कविताओं में मंदिरों को कोसा जाता है, विमर्श तैयार किए जाते हैं कि मंदिरों में यौन शोषण होता है। यहाँ तक कि मंदिरों के विध्वंस को भी यह कहते हुए सही बताया जाता है कि उनके कारण विवाद होता है।
इन्टरनेट पर तमाम ऐसी कविताएँ हैं, जो मंदिरों को बदनाम करती हैं:
देखो यह पूजा का स्थान है
यहाँ शोर मत करो
देखो यहाँ फ़र्श पर चाँदी के रुपए गड़े हैं
यहाँ इस नज़र से मत देखो
मंदिर को देवदासी का स्थल बताया जाए, और उसे रूमानियत का अड्डा बताया जाए
दिल एक सदियों पुराना उदास मंदिर है
उमीद तरसा हुआ प्यार देव-दासी का
कृष्ण मोहन
परन्तु यह बात कोई भी कथित वामपंथी लेखक नहीं बताता है कि मंदिरों का पैसा तो सरकार के पास जाता है। मंदिरों को मुक्त किया जाए तो उनसे हिन्दू शिक्षा का आरम्भ हो सकता है, जिसमें हिन्दुओं का विमर्श हो! हिन्दू अपने समाज के हितों के लिए उसी प्रकार कार्य कर सकता है जैसा अन्य समुदाय कथित अल्पसंख्यक के टैग के साथ कर सकता है!
क्योंकि विमर्श में ही इतना विकृत कर दिया गया है कि उस ओर ध्यान ही नहीं जाता है कि मंदिर के अपने नियम और मान्यताएं होती हैं, मंदिरों का अपना विमर्श होता है! मंदिर ऐसी दुधारू गाय की तरह हो गए हैं, जिसका दूध कहीं न कहीं उन्हें हृष्ट पुष्ट करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, जो खुद इन गायों को काटने के लिए बैठे हैं।
यहाँ तक कि विमर्श में औरंगजेब जैसों को भी मंदिरों की रक्षा करने वाला बता दिया गया है। फिर ऐसे में अश्विनी उपाध्याय जब यह कहते हैं कि 4 लाख से अधिक मंदिर सरकार के अधीन हैं, उन्हें मुक्त किया जाए और याचिका दायर करते हैं तो न्यायालय से भी यही प्रतिक्रिया आती है कि मंदिर का धन सार्वजनिक कार्यों में ही तो व्यय हो रहा है?
अश्विनी उपाध्याय ने वरिष्ठ वकील अरविन्द दातार एवं गोपाल शंकर नारायणन के माध्यम से मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने की याचिका दायर की। इसमें हिन्दुओं, जैन, बौद्ध एवं सिख के लिए उन्हीं अधिकारों की मांग की गयी है जो ईसाइयों, मुस्लिमों एवं पारसियों को उनके मजहबी एवं रिलीजियस स्थानों को स्थापित करने, प्रबंधित करने एवं रखरखाव रखने के लिए हैं!
इस याचिका में कहा गया कि 9 लाख मंदिरों में से 4 लाख मंदिर पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है तो वहीं, एक भी चर्च या मस्जिद सरकारी नियंत्रण या प्रशासन के नियंत्रण में नहीं है। मंदिरों के लिए केंद्र एवं सरकारें क़ानून लागू कर सकती हैं।
दातार ने कहा कि तमिलनाडु क़ानून जो सरकार को मंदिर हुंडी संग्रह का उपयोग करने की अनुमति देता है। सरकार इसका 14% प्रशासनिक लागत के रूप में, 4% ऑडिट शुल्क के रूप में, और 4 से 10% के बीच ‘आयुक्त कॉमन गुड फंड’ के रूप में उपयोग करती है। ये धनराशि कई सरकार द्वारा संचालित योजनाओं के लिए भी आवंटित की जाती है। कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में भी इसी तरह के कानून बनाए गए हैं। उनमें गैर-धार्मिक और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए मंदिर के धन का प्रयोग किया गया है। शंकरनारायणन ने कहा कि कर्नाटक में 50,000 मंदिरों को धन की कमी के कारण बंद कर दिया गया था।
इस पर न्यायालय की ओर से जो टिप्पणी आई है, वह उसी संयुक्त विमर्श का रूप है जो अभी तक सरकार एवं साहित्य तथा वामपंथ की ओर से परोसा गया है या फिर परोसा जा रहा है! माननीय न्यायालय ने कहा कि मंदिर का पैसा लोगों के लिए ही तो प्रयोग हो रहा है
जस्टिस भट ने कहा कि इतिहास में डेढ़ सौ वर्षों से, मंदिर एक विशेष तरीके से कार्य कर रहे हैं, जो समाज की एक बड़ी जरूरतों की पूर्ति करते हैं। आप घड़ी को मोड़ना चाहते हैं। यह मंदिर सम्पात्ति का स्थान बन गए हैं, अगर हम क़ानून वापस लेते हैं, तो हम वापस उसी बिंदु पर पहुंच जाएंगे!
इन शब्दों पर ध्यान दें जो जस्टिस भट ने कहे हैं कि मंदिर समाज की बड़ी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं!
अर्थात मंदिरों का धर्म कल्याण के कार्यों के लिए प्रयोग हो रहा है, जबकि वहीं न जाने कितने मंदिर आज भी फंड के कारण बंद हो रहे है।
अब जो क्रांतिकारी फेमिनिस्ट लेखिकाएं हैं, जिन्होनें कोरोना काल में मंदिरों को लेकर तमाम तरह की कविताएँ लिखी थीं या फिर बार बार जिनका निशाना मन्दिर होते हैं, क्या वह न्यायालय की इस बात का उत्तर दे सकेंगी कि मंदिर का धन कहाँ प्रयोग हो रहा है?
मंदिरों को कोसना फेमिनिस्ट लेखिकाओं एवं कई वामपंथी एवं कई कथित राष्ट्रवादी लेखकों का प्रिय विषय है, बिना इस विमर्श के कि मंदिर मात्र पूजा स्थल ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक केंद्र भी हैं। हर मंदिर की अपनी एक विशिष्ट परम्परा है, एक विशिष्ट इतिहास है, वह एक्टिविज्म का स्थान नहीं हैं, वह मान्यताओं को बदलने का स्थान नहीं हैं, वह भी तब जब आप उनका धन उन लोगों के कल्याण के लिए भी प्रयोग कर रहे है, जिनका विश्वास शायद मंदिरों में और मंदिरों में जाने वालों में है ही नहीं!
जस्टिस भट की कही यह पंक्ति हर उस क्रान्तिकारी फेमिनिस्ट (दाईं एवं बाई) तथा लेखकों (दाएं एवं बाएँ) को ध्यान में रखनी होगी, जब भी वह किसी मन्दिर के खिलाफ उलटा सीधा लिखेंगे कि मंदिरों ने यह नहीं किया, मंदिरों ने वह नहीं किया।
यह स्पष्ट है कि इस विषय में बात कभी मुख्य विमर्श में नहीं आएगी कि मंदिरों के स्वतंत्र होने से हिन्दू विमर्श को क्या लाभ होगा, बल्कि यह बहस अवश्य होती रहेगी कि मंदिरों को स्वतंत्र कर दिया जाएगा तो वह कैसे कार्य करेंगे, झगड़ा होगा आदि आदि! परन्तु यह कोई नहीं प्रश्न करता कि फिर मस्जिदों एवं चर्च का संचालन क्यों नहीं सरकार के हाथों में आता? क्योंकि नुपुर शर्मा के मामले में देखा गया है कि कैसे मस्जिदों से आह्वान किया गया!
इस मामले में अगली सुनवाई 19 सितम्बर को होगी, परन्तु जस्टिस भट ने जो कह दिया है, उसने मंदिरों का विरोध करने वाली पूरी फेमिनिस्ट एवं क्रांतिकारी लॉबी को वस्त्रविहीन कर दिया है, क्योंकि उन्होंने कहा है कि मंदिरों का धन समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्रयोग किया जाता है!
वहीं न्यायालय का कहना है कि उन्हें एचआरसीई कानूनों को चुनौती देने वाली याचिका पर ध्यान देने से पहले, कुछ और आंकड़े देखने हैं!
आगे इस मामले की सुनवाई में क्या आंकड़े सामने निकलकर आते हैं, वह भी सामने आएँगे ही, परन्तु साहित्य में जिस प्रकार से मंदिरों को बदनाम करने की एक आंधी आई और कोरोना काल में तो मन्दिरों को लेकर अपशब्दों की और नीचा दिखाने की भरमार हो गयी थी कि मंदिरों को क्यों खोला जाए आदि आदि, और मंदिर करते ही क्या है, उनकी बेवकूफी और उनकी मूर्खता को दिखाने के लिए एक पंक्ति ही पर्याप्त है। उनके पास कितनी जानकारी है, उन्हें कानूनों की कितनी जानकारी है एवं फेमिनिस्ट तथा क्रांतिकारी लेखक, कितने जानकारी के पानी में हैं, यह समझ में आता है!