अफगानिस्तान में तालिबान की कैद में रहे ऑस्ट्रेलिया के नागरिक टिमोथी वीक्स अब वापस अफगानिस्तान लौटना चाहते हैं। परन्तु उनका नाम अब टिमोथी वीक्स नहीं बल्कि जिब्राइल उमर है, जो उन्होंने इस्लाम अपनाने के बाद रखा है। उन्होंने तालिबान की कैद में रहने के दौरान ही इस्लाम अपना लिया था। एक वेबसाईट के अनुसार वह स्वयं को अब टिमोथी वीक्स न कहलवाकर “जिब्राइल उमर” ही कहलवाना पसंद करते हैं।
जब टीआरटी वर्ल्डवाइड ने उनसे साक्षात्कार के लिए संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि “कृपया मुझे जिब्राइल कहें”। टिमोथी वीक्स का अपहरण तालिबानियों के लिए एक गैंग ने किया था, वह अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। और वह एक समर्पित ईसाई थे, जो एक शिक्षक के रूप में पिछड़े और पीड़ित लोगों के लिए कुछ करना चाहते थे। परन्तु जब उन्हें तालिबान ने वर्ष 2016 में कैद कर लिया तो वह तालिबान के लड़ाकों के “मजहब के प्रति समर्पण” से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें सेवा के बदले एके 47 से घिरे हुए लोग मिले थे, पर वह अब इसे “अल्लाह की मर्जी” बताते हैं।
तालिबान की कैद में रहते हुए करना पड़ा काम
टिमोथी वीक्स को अफगानिस्तान में तालिबान की कैद में रहते हुए बहुत काम करना पड़ा था। क्योंकि अमेरिका की तरह ऑस्ट्रेलिया की भी यह नीति नहीं है कि वह रिहाई के लिए रकम दे, इसलिए उनकी कैद की अवधि बढ़ती ही चली गयी। उनका कहना है कि उन्हें जंजीरों में जकड़कर मारा जाता था, और जैसे ही अमेरिकी सेना कुछ भी नुकसान करती थी, तो तालिबान उसका बदला उन्हें प्रताड़ित करके लेते थे।
बीबीसी के अनुसार उनका कहना है कि उन्हें फर्श को साफ़ रखना पड़ता था और ठंडे पानी से तालिबान के कपड़ों को भी धोना पड़ता था, अगर ठीक से सफाई नहीं होती थी, तो उन्हें पीटा जाता था।
इस्लाम क्यों अपनाया?
बीबीसी के अनुसार जिब्राइल उमर अर्थात टिमोथी वीक्स ने बताया कि जब तालिबान की ओर से प्रताड़ना कम हुई तो उन्होंने पढने के लिए कुछ किताबें माँगी और उन्होंने उन्हें उर्दू बाजार कराची से प्रकाशित कुरआन की अंग्रेजी और उर्दू की प्रतियाँ लाकर दीं।
फिर वह कहते हैं कि “इन किताबों और क़ुरान को पढ़ने के बाद, मैं धीरे-धीरे इस्लाम की ओर आकर्षित होने लगा। आख़िरकार 5 मई, 2018 को मैंने इस्लाम धर्म अपना लिया और वुज़ू और नमाज़ की प्रेक्टिस शुरू कर दी।”
तालिबान को पसंद नहीं आया था:
वह कहते हैं कि जब तालिबान को पता चला कि उन्होंने इस्लाम अपना लिया है तो वह बहुत गुस्सा हुए थे और खुश होने के स्थान पर उन्हें मारने की धमकी देना शुरू कर दिया था।
वह यह कहते हैं कि उन्होंने ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने के लिए इस्लाम अपनाया! तो क्या वह ईसाई रहते हुए ऊपर वाले का शुक्रिया अदा नहीं कर सकते थे? इस पर उन्होंनें कहा कि वह तालिबानियों के मजहब के प्रति समर्पण से बहुत प्रभावित हुए थे, और उनके जैसा मजहब के प्रति समर्पण पश्चिमी जगत में नहीं दिखता!
परन्तु प्रश्न यह उठता है कि इस्लाम अपनाना तो ठीक है, परन्तु अपने ही देश के विरुद्ध खड़े हो जाना यह कितना ठीक है और क्या इस्लाम अपनाने का अर्थ अपने ही देश के नागरिकों की सुरक्षा केलिए बनाई गयी नीतियों का विरोध करना है? भारत में भी नागरिकता आन्दोलन के दौरान यही देखा गया था कि मजहब के नाम पर लोग अपने ही देश को सुरक्षित करने वाली नीति के विरोध में चले गए थे!
इससे पहले ब्रिटिश पत्रकार युवान रिडले भी तालिबान की कैद के बाद इस्लाम अपना चुकी हैं। और टिमोथी वीक्स की तरह इस्लाम का प्रचार कर रही हैं। गार्डियन की एक रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने बात करते हुए कहा कि मुझे केरल में दस हजार लोगों ने सुना था। वह खुद को मोटिवेशनल स्पीकर बताती हैं और वह मुस्लिमों के विश्वास पर बात करती हैं और कहती हैं कि आतंक के युद्ध पर हमला करना चाहिए, जो दरअसल इस्लाम के खिलाफ एक युद्ध है और वह मुस्लिम जगत के साथ हैं।
युवान को बाइबिल में हमेशा ही महिलाओं के चित्रण को लेकर समस्या रहती थी, और वह कुरआन में महिलाओं को दिए गए आदर से बहुत प्रभावित हुईं थीं और उनका कहना है कि इस्लाम महिलाओं को बहुत आदर और अधिकार देता है, परन्तु महिलाओं को यह नहीं पता है।
अब वह इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए काम करती हैं। वह तालिबान को ब्रिटिश सैनिकों से बेहतर बता चुकी हैं, जिनकी कैद में वह रही थीं!
इसी प्रकार टिमोथी वीक्स भी ऑस्ट्रेलिया की कथित माइग्रेशन नीतियों का विरोध कर रहे हैं, और इतना ही नहीं टिमोथी वीक्स अनस हक्कानी को भला इंसान मानते हैं और हिन्दुओं के दुश्मन अनस हक्कानी को केवल युद्ध का कैदी मानते हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि अनस हक्कानी भारत पर सत्रह बार आक्रमण करने वाले महमूद गजनवी की कब्र पर पहुंचा था और उसने सोमनाथ मंदिर तोड़ने का भी उल्लेख किया था।
टिमोथी वीक्स की ट्विटर प्रोफाइल पर अफगानिस्तान और इस्लाम के प्रति प्यार एवं अपने ही देश के प्रति घृणा दिखाई देती है। और अपने ही देश ऑस्ट्रेलिया की डिटेंशन प्रणाली पर प्रश्न उठाती है।
और युवान रिडले फिलिस्तीन की आजादी के लिए आवाज उठाती हैं।
क्या यह दोनों स्टॉकहोम सिंड्रोम का सबसे बड़ा उदाहरण हैं?
बीबीसी के अनुसार टिमोथी का कहना है कि पश्चिम इस्लामोफोबिया से ग्रसित है और वह किसी स्टॉकहोम सिंड्रोम से पीड़ित नहीं हैं। टिमोथी उर्फ़ जिब्राइल का कहना है कि उन्हें ऑस्ट्रेलिया में उनके ही देश में मुस्लिम होने के नाते यातना पहुंचाई गयी। हालांकि उनका कहना है कि वह किसी स्टॉकहोम सिंड्रोम से पीड़ित नहीं हैं, बल्कि वह यह जान चुके हैं कि “अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार अपनी पूर्ववर्ती हर सरकार से बेहतर है क्योंकि इनके नेता किसी भी तरह के भ्रष्टाचार में शामिल नहीं हैं।”
वहीं युवान रिडले का भी यही कहना है कि वह किसी स्टॉकहोम सिंड्रोम से पीड़ित नहीं हैं!
इस बीमारी में व्यक्ति को अपने अपहरणकर्ता या खुद पर अत्याचार करने वालों से ही प्रेम हो जाता है और वह उन्हें ही अपना सबसे बड़ा रक्षक और मित्र मानने लगता है।
भारत में भी पाकिस्तान से आए विस्थापितों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसका उस पाकिस्तान से प्रेम हैरान करने वाला है, जिस पाकिस्तान ने उन्हें अपनी जमीन छोड़ने के लिए विवश कर दिया था।
जैसे पत्रकार कुलदीप नैयर, जिन्हें विभाजन के समय भड़की हिंसा के बाद भारत आना पड़ा था, उनके पास दिल्ली के किसी प्रेस क्लब की सदस्यता नहीं थी, परन्तु लाहौर के प्रेस क्लब की सदस्यता थी।
विनोद दुआ, जिनका परिवार पाकिस्तान से आकर भारत बसा था, उनका भी पाकिस्तानी प्रेम जगजाहिर था। हिन्दुओं के प्रति उनकी घृणा भी उनकी पत्रकारिता में देखी जा सकती थी।
खुशवंत सिंह तो मुम्बई हमलों के दौरान यह प्रार्थना ही कर रहे थे कि मुम्बई को लहूलुहान करने वाले आतंकी पाकिस्तान के न निकलें! उनका भी जन्म अविभाजित भारत में पाकिस्तान वाले क्षेत्र में हुआ था, और पाकिस्तान के साथ उनका लगाव भी बहुत था!
जैसे पाकिस्तान के कुकर्मों को ढाकने का कार्य स्टॉकहोम से पीड़ित कथित वैचारिक वर्ग ने किया था, वैसे ही अब अफगानिस्तान में तालिबान के कुकर्मों को छिपाकर उन्हें आजादी के सिपाही बताने का कार्य किया जा रहा है।
परन्तु अब दुनिया जानती है कि इस्लामिक कट्टरता क्या कर सकती है और पूरे विश्व के साथ क्या कर रही है, इसलिए वह ऐसे जाल में फंसेगी, इसमें संशय है। परन्तु फिर भी टिमोथी वीक्स, या युवान रिडले जैसे लोग इसलिए और भी खतरनाक हैं क्योंकि यह अपना डर एक वृहद समुदाय पर थोप ही नहीं रहे हैं, बल्कि राक्षसों को रक्षक बनाकर भी दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, विशेषकर युवान रिडले जैसी महिलाएं जो उन महिलाओं के साथ नहीं खड़ी हैं, जिन पर तालिबान अत्याचार कर रहा है, बल्कि वह उन तालिबान के साथ खडी हैं, जो महिलाओं की मूलभूत आजादी को छीन रहा है, और वह भारत में भी सुनी जाती हैं, और वह भी केरल में, तो ऐसे में यह और भी चिंताजनक है!