कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। परन्तु क्या यह सही बात है? विशेषकर प्रगतिशील साहित्य को देखते हुए, जिसमें एकतरफा ही हिन्दुओं को दोषी ठहराया गया है और मुस्लिमों को कथित रूप से प्रगतिशील दिखाया गया है। जिसमें मुस्लिमों से प्रेम करना ही सबसे बड़ी प्रगतिशीलता के रूप में प्रदर्शित किया गया है। क्या आपने सोचा है कभी कोई हिन्दू लेखक किसी मुस्लिम मित्र को मजहबी रूप से भ्रष्ट कर दे? और फिर उसे बीबीसी गर्व से दिखाए? शायद नहीं!
मगर यदि वह इस्मत चुगताई जैसे लोग करें, जिन्होनें कहानियां लिखते समय केवल अपने ही समाज का वर्णन किया है, तो? तो बीबीसी भी उसे सगर्व प्रकाशित करेगा और शाकाहार को सबसे बड़ी असहिष्णुता बनाकर प्रकाशित करेगा। ऐसा थोपा जाएगा जैसे शाकाहार का पालन करने के कारण आप कठघरे में चले गए हैं। ऐसा ही कुछ इस्मत चुगताई की आत्मकथा “क़ाग़ज़ी है पैरहन” के एक अंश से प्रतीत होता है, जो बीबीसी ने प्रकाशित किया था।
हालांकि आज से कुछ वर्ष पहले वह प्रकाशित हुआ था, परन्तु वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इस्मत चुगताई प्रगतिशील लेखकों में एक माना हुआ नाम है, जिन्होनें कथित रूप से प्रगतिशील कहानियाँ लिखीं। परन्तु इस्लाम का पालन करने वाले लेखकों की प्रगतिशीलता में उनके मजहब की किसी कुरीति की कोई बुराई नहीं शामिल होती है। उनमें दर्द होगा, दर्द के अथाह किस्से होंगे, भावनात्मक दोहन होगा, परन्तु समस्या क्या है, और उसका हल क्या हो सकता है, उस पर बात नहीं होगी। जैसे उनकी कहानी है बच्चे। वह कहानी पूरी तरह से रूस की उस व्यवस्था की प्रशंसा में है, जिसमें परिवार को लगभग नष्टप्राय कर दिया गया था और बच्चों को परिवार नहीं सरकार का ही उत्तरदायित्व मान लिया था।
इस्मत चुगताई जिन्हें हिंदी साहित्य में प्यार से इस्मत आपा कहा जाता है, वह रूस की साम्यवादी व्यवस्था से प्रभावित थीं और भारत में भी परिवार की वही व्यवस्था लाना चाहती थीं। वह तो खैर सभी प्रगतिशील लेखकों का सपना हुआ करता है कि परिवार व्यवस्था को नष्ट किया जाए और वह भी हिन्दू परिवार प्रणाली को!
मगर जो सबसे हैरान करने वाला है, वह है उनकी आत्मकथा का वह अंश जिसमें वह अपनी बचपन की सहेली को जो शाकाहारी है, उसे जानबूझकर धोखे से गोश्त खिला रही हैं, और उसे मासूमियत के लबादे में लपेट कर पेश करते हुए लिखती हैं
“हमारे पड़ोस में एक लालाजी रहते थे। उनकी बेटी से मेरी दांत-काटी रोटी थी। एक उम्र तक बच्चों पर छूत की पाबंदी लाज़मी नहीं समझी जाती। सूशी हमारे यहां खाना भी खा लेती थी।
फल, दालमोट, बिस्कुट में इतनी छूत नहीं होती, लेकिन चूंकि हमें मालूम था कि सूशी गोश्त नहीं खाती इसलिए उसे धोखे से किसी तरह का गोश्त खिलाके बड़ा इत्मीनान होता था।
हालांकि उसे पता नहीं चलता था, मगर हमारा न जाने कौन-सा जज़्बा तसल्ली पा जाता था। वैसे दिन भर एक-दूसरे के घर में घुसे रहते थे मगर बक़रीद के दिन सूशी ताले में बंद कर दी जाती थी।
बकरे अहाते के पीछे टट्टी खड़ी करके काटे जाते। कई दिन तक गोश्त बंटता रहता। उन दिनों हमारे घर में लालाजी से नाता टूट जाता।”

क्या भारत में किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं कि वह अपने खान पान का अधिकार निर्धारित कर सके? क्या मात्र प्रगतिशीलता यही है कि कोई गोश्त खाए ही खाए? क्या लालाजी को यह अधिकार नहीं था कि वह अपने धार्मिक विश्वास की रक्षा करें? शायद हिंदी का प्रगतिशील साहित्य इस बात से संयोग नहीं रखता है कि हिन्दुओं के भी धार्मिक अधिकार हैं।
यही कारण हैं कि इतनी बड़ी बात को पचा लिया गया कि इस्मत चुगताई ने एक शाकाहारी दोस्त को धोखे से गोश्त खिलाया और फिर उन्हें उसे गोश्त खिलाकर सुकून भी मिलता था।
इस्मत चुगताई इस पर भी नहीं रुकीं, इसी लेख में वह लाला जी को तंगदिल कहती हैं, तंगदिल इसलिए क्योंकि उन्होंने कृष्ण जन्माष्टमी पर इस्मत द्वारा गोद में लिए गए चांदी के लड्डू गोपाल की शिकायत इस्मत के घर पर कर दी थी।
आगे इसी लेख में है “बीए करने के बाद जायदाद के सिलसिले में एक बार फिर आगरा जाने का इत्तफ़ाक़ हुआ। मालूम हुआ, दूसरे दिन सूशी, मेरे बचपन की गुइयां की शादी है। सारे घर का बुलावा आया है। मुझे ताज्जुब हुआ कि लालाजी जैसे तंगख़याल, कट्टर इनसान से मेरे भाई का लेन-देन कैसे क़ायम है।”
और फिर हिन्दुओं की विवाह परम्परा पर उन्होंने लिखा है “मेरा और सूशी का क्या जोड़! सूशी फ़्रॉड है जिससे मां-बाप ने पल्ले बांधने का फ़ैसला कर लिया उसी को भगवान बनाने को तैयार हो गई।”
लालाजी यदि अपनी धार्मिक परम्पराओं का ख्याल रखते हुए बकरे कटते हुए न देखें तो वह तंगखयाल और कट्टर हो गए, मगर शाकाहारी लालाजी के घर के पास ही बकरे क्यों काटने हैं, क्या यह ख्याल नहीं आया? जैसे लालाजी से यह अपेक्षा की गई कि वह बकरे कटते समय अपनी खिड़कियाँ बंद न करें, क्या वैसे ही अपेक्षा यह नहीं हो सकती थी कि बकरे घर पर न कटें?
मगर फिर भी उनकी दोस्त जो उनकी बचपन की दोस्त थी “सुशी” वह सब कुछ भूलकर, या ध्यान न देकर, अपनी शादी से पहले एक ही लड्डू आधा आधा खाती है, जैसे वह बचपन में खाया करती थीं।
सुशी दोस्ती निभा रही हैं और इस्मत चुगताई उसे फ्रॉड, पिछड़ा, तंगख्याल आदि लिख रही हैं, क्यों? क्योंकि वह अपनी धार्मिक परम्पराओं का पालन कर रही हैं और यही नैरेटिव बच्चों के कोमल मस्तिष्क में परोसा जा रहा है!
मगर महानता यह दिखा दी गयी कि उन्होंने अपनी दोस्त के दिए गए लड्डू गोपाल स्वीकार कर लिए और लड्डू गोपाल से प्रश्न कर रही हैं कि
“”क्या तुम वाक़ई किसी मनचले शायर का ख्वाब हो? क्या तुमने मेरी जन्मभूमि पर जन्म नहीं लिया? बस एक वहम, इक आरज़ू से ज़्यादा तुम्हारी हक़ीक़त नहीं। किसी मजबूर और बंधनों में जकड़ी हुई अबला की कल्पना की उड़ान हो कि तुम्हें रचने के बाद उसने ज़िंदगी का ज़हर हंस-हंसके पी लिया?”
मगर पीतल का भगवान मेरी हिमाक़त पर हंस भी नहीं सकता। सियासत की दुनिया का सबसे मुनाफ़ाबख़्श पेशा है, दुनिया का ख़ुदा है।
सियासत के मैदान में खाई हुई मात के स्याह धब्बे मासूमों के खून से धोए जाते हैं। ख़ुद को बेहतर साबित करने के लिए इनसानों को कुत्तों की तरह लड़ाया जाता है।
क्या एक दिन पीतल का यह खोल तोड़कर ख़ुदा बाहर निकल आएगा?”
बीबीसी के लेख के बहाने यह सीखा जा सकता है कि नैरेटिव कैसे बनाया जाता है और वह भी प्रगतिशील साहित्य में हिन्दू विरोधी नैरेटिव, जिसमें पीड़ित को अपराधी करार दे दिया है और अपराधी खुलकर खुद को पीड़ित बता रहा है!
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