महाराष्ट्र में पालघर में साधुओं की लिंचिंग के विषय में अभी तक न्याय लंबित है, न जाने कब तक न्याय मिलेगा, मिलेगा या नहीं मिलेगा, यह भी नहीं ज्ञात है। न्याय की आस में तब से लेकर अब तक न जाने कितने साधुओं, पुरोहितों की हत्या हो चुकी है या फिर हिंसक हमले हो चुके हैं। परन्तु समाज से लेकर सरकार तक जैसे इस ओर से आँखें मूंदे हुए हैं।
यह हत्याएं या आत्महत्या विमर्श में क्यों नहीं आ रही हैं, समस्या यह है! क्या यह सांस्कृतिक जीनोसाइड का एक उदाहरण नहीं है कि साधुओं की हत्याएं हो रही हैं या फिर साधु आत्महत्या कर रहे हैं और हम उनके कारणों को ही विमर्श में नहीं ला रहे हैं, चर्चा नहीं कर रहे हैं, न्याय तो बहुत दूर की बात है! आखिर क्या ऐसा कारण है कि हम समाज के रूप में अपने साधु संतों की असहज मृत्यु के प्रति सहज हो गए हैं, जैसे हमपर कोई प्रभाव ही नहीं हो रहा कि “भगवा वस्त्र अर्थात हिन्दू पहचान को धारण करने वालों की असहज, असामान्य मृत्यु हो रही है?”
ताजा मामला हत्या से बढ़कर एक संत के अग्निस्नान से सम्बंधित है। संतों की मांग इतनी कि उनके प्रभु श्री कृष्ण ने जहाँ पर लीलाएं की थीं, वहां पर खनन न हो। क्या यह इच्छा और मांग रखना गुनाह है? क्या यह ऐसी मांग है जिसके लिए 500 से अधिक दिनों तक साधु संतों को आन्दोलन करना पड़े? क्या यह ऐसी मांग है कि जिसके लिए किसी संत को टावर पर चढ़ना पड़े और क्या यह ऐसी मांग है जिसके लिए किसी संत को अग्नि स्नान करना पड़े?
परन्तु ऐसा हुआ है? न जाने कितने साधु संतों ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए हैं, जिनकी न ही गिनती है और न ही थाह, फिर भी यही साधु, सन्यासी एवं संत वर्ग ही शोषक ठहराया जाता है, एवं फिल्मों से लेकर साहित्य में यदि खलनायक है तो यही बेचारे साधु! किसलिए वह शत्रु एवं खलनायक हैं, यह उन्हें भी नहीं पता, परन्तु वह खलनायक हैं।
पर्यावरण के नाम पर एजेंडा चलाने वाली एक्टिविस्ट भारत के शत्रुओं एवं भारत विरोधी शक्तियों के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाती हैं और वह तमाम तरह के सम्मान पाती हैं। पेटा जैसी संस्थाएं एक्टिविज्म के नाम पर हमारी तमाम परम्पराओं को नष्ट करने के लिए एड़ी छोटी का जोर लगाए हुए हैं, एवं उनका समस्त ध्यान इसी बात पर है कि कैसे वह हमारे आराध्यों से जुड़े प्रतीकों पर वार करें।
ऐसा वह वीगन अभियान चलाकर और अमूल के नाम पर डेयरी उद्योग को निशाने पर लेकर कर चुकी है, क्योंकि गाय हिन्दुओं की आर्थिक ही नहीं बल्कि धार्मिक पहचान का भी प्रतीक है। ऐसे में वह प्रतीक छीनकर उनकी पहचान ही छीन लेना चाहते हैं। वही कार्य राजस्थान में खनन के नाम पर किया जा रहा है कि खनन के नाम पर उस धार्मिक महत्व के क्षेत्र पर आक्रमण हुआ है जो उसी गौ से जुड़ा है जो गौ प्रभु श्री कृष्ण से जुड़ी है।
भारत की धार्मिक आस्था में गाय का स्थान अत्यधिक पवित्र है, वह तब और पवित्र हो जाता है जब स्वयं विष्णु भगवान श्री कृष्णावतार में अवतरित हुए थे तथा तमाम लीलाएं रची थीं। उन्होंने गौ एवं गौधन की महत्ता पर अत्यधिक बल दिया था। यही कारण है कि अधिकांश एनजीओ आदि का निशाना डेयरी उद्योग एवं छोटे दूधिये होते हैं, हालांकि उसका नाम कुछ और हो जाता है।
ऐसे ही विकास के नाम पर उन स्थानों पर खनन कार्य आदि किये जाते हैं, जो सीधे प्रभु के अवतार से जुड़े हैं। राजस्थान में भी जिन संत ने अग्नि स्नान किया है, उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं माँगा था और न ही उन्होंने सिर तन से जुदा के नारे लगाए थे, उन्होंने किसी और समुदाय को हानि भी नहीं पहुंचाई थी, हाँ, बस संत समाज की एक ही मांग है कि जहाँ पर प्रभु श्री कृष्ण ने लीला रची है, वहां पर खनन न हो!
विकास की बात करने वाले लोग यह तर्क दे सकते हैं कि क्या धर्म या अन्धविश्वास के नाम पर विकास न किया जाए? तो क्या वह लोग यह नहीं जानते हैं कि खनन प्रक्रियाओं का पर्यावरण एवं धार्मिक धरोहरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
भास्कर के अनुसार
“भरतपुर के डीग-कामां व नगर इलाके में पहाड़ियों की श्रृंखला है। ये पहाड़ियां ब्रज चौरासी कोस में आती हैं। संत समाज के मुताबिक ये पहाड़ियां तीर्थ स्थल हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कृष्ण यहां लीलाएं करते थे।
साल 2004 में उठी थी खनन को रोकने की मांग
आदिबद्री और कनकांचल में खनन को पूरी तरह बैन करने के लिए 2004 में आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलन बरसाना के मान मंदिर के संत रमेश बाबा के नेतृत्व में हुआ। साल 2007 में भरतपुर के बोलखेड़ा में संतों ने पहला बड़ा आंदोलन किया। इस आंदोलन की अगुवाई बाबा हरिबोल दास ने की। हरिबोल दास वही संत हैं, जिन्होंने 4 जुलाई 2022 को सीएम हाउस के सामने आत्मदाह की चेतावनी दी थी।
2007 में राजस्थान में तत्कालीन भाजपा सरकार ने आदिबद्री और कनकांचल के पहाड़ों में 5232 हेक्टेयर इलाके में खनन रोकने और वन क्षेत्र घोषित करने की मांग मानने का आश्वासन दिया। साल 2009 में गहलोत सरकार ने दोनों मांगों का नोटिफिकेशन जारी किया। आदिबद्री और कनकांचल पहाड़ों के 75 प्रतिशत क्षेत्र में खनन को रोक दिया गया। 25 फीसदी हिस्से में खनन जारी रहा। संत समाज इस 25 फीसदी इलाके में भी खनन को बैन कराना चाहता था। यह इलाका भरतपुर के पहाड़ी और नगर तहसील में था।
संतों के इस आन्दोलन में वर्ष 2017 में बाबा विजयदास जैसे अपनी आहुति देने ही आए। वर्ष 1957 में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे बाबा विजयदास ने वर्ष 2009 में अपने पुत्र एवं पुत्रवधू को खो दिया था। जन्म से उनका नाम मधुसुदन शर्मा था। उनकी एक ही पुत्री थी और वह उस समय तीन वर्ष की थी। वह वर्ष 2010 में पोती दुर्गा को लेकर बड़ाला से उत्तर प्रदेश में बरसाना चले गए थे और मानमंदिर में उनका संपर्क संत रमेश बाबा से हुआ और अंतत: वह मधुसुदन शर्मा से बाबा विजय दास हो गए।
बाबा विजय दास को वर्ष 2020 में भरतपुर के डीग कस्बे के पसोपा गांव के पशुपतिनाथ मंदिर में महंत बनाया गया। मन्दिर प्रबन्धन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उन्हीं पर था। वर्ष 2021 से फिर से साधु संतों ने एक नई रणनीति बनाई। क्योंकि खनन बंद नहीं हुआ था। सरकार और प्रशासन दोनों को ज्ञापन दिए गए परन्तु कोई कदम नहीं उठाया गया। और पसोपा गाँव में संतों का धरना 551 दिनों तक चला! अर्थात एक वर्ष से भी अधिक साधु संत धरने पर हैं, परन्तु उनकी आवाज को नहीं सुना गया।
इसी क्रम में बाबा हरिबोल ने आत्मदाह की चेतावनी दी थी। इसके बाद प्रशासन सक्रिय हुआ और 19 जुलाई को सुबह लगभग 6 बजे आन्दोलनरत बाबा नारायण दास पसोपा में मोबाइल टावर पर चढ़ गए। यहाँ पर वार्ता की बातें हो ही रही थीं कि बाबा विजय दास ने स्वयं को आग लगा ली। प्रशासन उपस्थित था परन्तु कुछ किया नहीं जा सका और बाबा विजय दास 80% तक जल गए थे।
अंतत: 23 जुलाई 2022 को सुबह 3 बजे उनका निधन हो गया।
इस बात को लेकर राजनीति भी हो रही है, भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पर हमलावर है। परन्तु फिर भी हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों को लेकर दृष्टिकोण हर सरकार का ढीलाढाला ही रहता है, जैसा तमिलनाडु में देखा था कि कैसे मंदिरों को विकास के नाम पर या फिर जलमार्ग के मध्य में आने पर तोड़ दिया गया था।
अधिकाँश हिन्दू धार्मिक स्थल सरकार के पास हैं एवं हिन्दू धार्मिक महत्व के स्थलों पर निर्णय भी हिन्दू भावनाओं को ध्यान में रखकर बहुत कम लिए जाते हैं।
हालांकि मीडिया के अनुसार कलेक्टर आलोक रंजन ने यह आदेश बढ़कर सुनाया कि 15 दिन में आदिबद्री धाम और कनकांचल पर्वत क्षेत्र को सीमांकित कर वन क्षेत्र घोषित करने की कार्रवाई की जाएगी। सरकार आदिबद्री धाम और कनकांचल पर्वत क्षेत्र में संचालित वैध खदानों को अन्य स्थान पर पुनर्वासित करने की योजना बनाएगी। इस पूरे क्षेत्र को धार्मिक पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाने को लेकर भी प्रयास शुरु कर दिए गए हैं। कलेक्टर आलोक रंजन ने बताया कि यह समस्त कार्य राज्य सरकार दो महीने में पूरे करेगी।
उसके बाद संत माने हैं। परन्तु फिर भी देखना होगा कि इस सम्बन्ध में साधु विजय दास का यह बलिदान क्या उस स्थल को बचाने में सफल हो पाएगा? क्या बाबा विजय दास जी को न्याय मिल पाएगा? पालघर से लेकर राजस्थान में बाबा विजय दास तक, साधुओं के साथ न्याय की प्रतीक्षा में हिन्दू समाज भी है!
इतिहास में भी यह वर्णित है कि जब जब समाज पर आपदा आई है, सांस्कृतिक ह्रास की ओर कदम बढ़े हैं, तब-तब संत समाज ने आकर समाज को जागृत किया है, आदि गुरु शंकराचार्य ने उस समय हिन्दू धर्म की चेतना को पुन: जागृत किया जब वह कई प्रकार के जालों में फंसकर अपनी वास्तविक मेधा को विस्मृत कर चुकी थी!
मुगल काल एवं मुस्लिम शासन के मध्य उपजा भक्ति आन्दोलन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मीराबाई, कबीरदास, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, समर्थ गुरु रामदास समेत न जाने कितने संत रहे, जिन्होनें आन्दोलन की लौ जगाई, जिन्होनें विरोध करने के लिए अध्यात्मिक शक्ति प्रदान की! जिन्होनें नेतृत्व एवं साधारण जनता को अन्याय का प्रतिकार करने की शक्ति दी।
परन्तु आज वही संत समाज जब आन्दोलन कर रहा है तो पूरे 551 दिनों के उपरान्त बात सुनी जाती है और वह भी तब जब विजय दास आत्मदाह कर लेते हैं और हिन्दुओं की ओर से कोई भी स्वर नहीं उठता है?
इस प्रश्न का उत्तर खोजना होगा कि क्या यह सांस्कृतिक जीनोसाइड की ओर निरंतर बढ़ते हुए कदम हैं?
मोदी-भागवत है तो हिन्दुओं के साथ हर अन्याय मुमकिन है।